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Monday, December 3, 2007

जयपुर के रंगमंच को तलाश है एक मसीहा की

रंगमंच का नाम आते ही मेरे जेहन में आज की तारीख में जो तस्वीर उभरती हैं वो कई लोगों को निराश कर सकती हैं. आज मुझे रंगमंच के नाम पर लोग नहीं जुटते दिखते हैं. और जो जुटते हैं उनकी संख्या अंगुली पर गिनी जा सकती हैं. जयपुर से लेकर भोपाल और फिर मुम्बई तक में मैंने थियेटर देखे. लेकिन सबसे अधिक निराशा जयपुर से हुई. जयपुर में मेरे कई थियेटर के दोस्त और साथी हैं जो अब या तो मुम्बई कर रुख कर चुके हैं या फिर कहीं नौकरी कर रहे हैं. जबकि उन्होंने रंगमंच कुछ कर गुजरने के लिए ज्वाइन किया था. लेकिन निराशा ही हाथ लगी. जयपुर के जवाहर कला केन्द्र की बात को या रविन्द्र भवन की. इन दोनों से काफी यादें जुड़ी हुई हैं. देर शाम तक चाय-पानी-सिगरेट का वो दौर वाकई यादगार हैं. जिसे भुलाए नहीं भुला जा सकता हैं. समय बदला और लोग बदल गए. फिर भी यहाँ रंगमंच अपने को बचाए रखने के लिए लड़ रहा हैं.

रंगमंच की एक कड़वी सच्चाई से मुझे रूबरू करते हुए मेरे एक मित्र कहते हैं कि रंगमंच नहीं दे पता है, यही सबसे कड़वा सच है. अच्छे कलाकार रोटी के लिए मुम्बई की और रुख कर लेते हैं. लेकिन मुझे वो एक आशा की किरण भी देते हुए कहते हैं कि यदि यहाँ (जयपुर) में सिनेमा बने तो कलाकार दोनों साथ साथ कर सकते हैं.


इस बात से शायद ही कोई इंकार करे कि साथ के दशक से ही देश का रंगमंच लगातार संक्रमण काल से गुजर रहा हैं. विशेष रूप से हिन्दी रंगमंच. इसे आज भी अपने अस्तिव के लिए लड़ना पड़ रहा है और वो लड़ भी रहा है. जयपुर में फ़िल्म सिटी बनने की खबर से आशा की एक ने किरण जागी हैं. ऐसे में एक पंक्ति याद आती हैं कि खून तो खून हैं, गिरेगा तो जम जाएगा. जुर्म तो जुर्म हैं, बढेगा तो मिट जाएगा.

इसे बोल हल्ला पर भी पढ़ा जा सकता है.

2 comments:

Parvez Sagar said...

प्रिय आशीष, आपने रंगमंच की दशा और दिशा को लेकर जो चिन्तन ज़ाहिर किया है वो जयपुर ही नही बल्कि हिन्दी भाषी राज्यों की व्यथा है। इस बारे मे आपके द्वारि लिखा गया है लेख सभी रंगकर्मीयों के सामने एक सवाल खड़ा करता है। उम्मीद है रंगमंच को लेकर आपके ऐसे लेख पढने को मिलते रहेगें।
परवेज़ सागर

Daisy said...

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