Saturday, December 29, 2007
शायर की बीवी
दोस्तों, चाहते हुए भी पिछले कुछ दिनों से ब्लॉग पर लिख नहीं पाया। हां, आपके पोस्ट्स को पढ़ता ज़रूर रहा हूं। कल मैंने जाने-माने शायर आदिल लखनवी साहब की एक रचना पढ़ी। मुझे लगा आपको भी पढ़ना चाहिए। व्यंग्य को ज़रिए संजीदा मसलों को उजागर करने में आदिल लखनवी साहब का कोई सानी नहीं। आप भी देखिए एक शायर की बीवी की व्यथा ----
शायर की बीवी
बहन मैं सोचती हूं ज़िंदगी वो कितनी अच्छी थी
जब अपनी उम्र की हांडी न पक्की थी न कच्ची थी
न हाय हत्या कुछ थी न कोई छी छी थी
मोहल्ले में जिधर जी चाहता था आती जाती थी
जवानी ने मगर आते ही ऐसा राग फैलाया
के मुझको देख कर ठिठका कोई और कोई बौलाया
किसी के लब पे आया मेरा नाम आहिस्ता आहिस्ता
कोई करने लगा मुझको सलाम आहिस्ता आहिस्ता
कोई कहता था मेरी चाल को परियों का फेरा है
कोई कहता था मेरी ज़ुल्फ़ का बादल घनेरा है
किसी के लब पे आहें थीं किसी के लब पे नाले थे
के मेरे चाहने वाले बहुत से गोरे काले थे
मेरे ये सारे आशिक़ कितने बांके और सजीले थे
सफ़ेद और सुर्ख़ थे उनमें कुछ उनमें नीले पीले थे
बड़े बूढ़े मगर जिस वक्त मुझको देख लेते थे
बड़ी संजीदगी से अपनी आंखें सेंक लेते थे
मेरे मां बाप ने मेरे लिये जब ग़ौर फ़रमाया
ख़ुदा की मार हो उनको मुआ शायर पसंद आया
घटाओं पर मेरे बालों के बस मरता है ये शायर
कभी एक बाल्टी पानी नहीं भरता है ये शायर
शफ़क़ कहता है बालों को जो लब को फूल कहता है
वो घूरे के किनारे फ़ूंस के छप्पर में रहता है
लंगोटी बांधता है जो ग़रारा क्या पहनाएगा
लंगोटी भी कभी ठर्रे की ख़ातिर बेच आएगा
निरा शायर है बहना बेअमल है और निकम्मा है
मेरी गोदी नहीं भरती है ये भी एक मोअम्मा है
हज़ारों बार टोका लाख समझाया नहीं माना
अरे हद है संखिया खाने से धमकाया नहीं माना
कभी जब सोचती हूं तो तबीयत ऊब जाती है
के अब मेरी समझ में बस यही एक बात आती है
कहां तक साथ आख़िर इस निखट्टू का निभाउंगी
किसी दिन छोटे देवर को मैं ले के भाग जाउंगी
शफ़क़- रात , मोअम्मा - रहस्य, संखिया - ज़हर
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