Tuesday, December 11, 2007
एक छोटा सा जनगीत
"इप्टा" के साथ रहकर कई तरह के नुक्कड़ नाटक किये। नाटक शुरु करने से पहले अक्सर पव्लिक को इक्कठा करने के लिये जनगीत गाया करते थे। जब भी जनगीत गाते तो अच्छा लगता था। हमारे कई साथी थे जो गाना नही जानते थे लेकिन जनगीत सुनने के बाद वो भी गाने लगे। ऐसा ही एक गीत था जिसकी कुछ पंक्तियां यहां डाल रहा हूँ। अच्छी लगे तो बताईगा।
ग़र हो सके तो अब कोई शमां जलाईये,
इस दौर-ए-सियासत का अन्धेरा मिटाईये।
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बन्द कीजिये आकाश मे नारे उछालना,
आईये हमारे कांधे से कांधा मिलाईये।
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चुपचाप क्यों हैं आप जब ये देश जल रहा,
पानी से नही आग से इसको बुझाईये।
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परवेज़ सागर
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4 comments:
sar aapki kavita mai jo hai ye kadvi sacchayi hai is hakikat ko badlne ke liey hum sabhi ko aage aana hoga . na ki nare laga ke balki kuch karke............ sahi hai sir hope fdully hum 1 % bhi apne desh ke liye kar payeeeeeeeeee
very nice.....
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