रंगकर्मी परिवार मे आपका स्वागत है। सदस्यता और राय के लिये हमें मेल करें- humrangkarmi@gmail.com

Website templates

Friday, December 31, 2010

HAPPY NEW YEAR-2011

A Glorious year is waiting for you.

Walk with aims,

Run with confidence

& Fly with achievements.

Wish you & your family a Very

HAPPY NEW YEAR-2011. 

Friday, December 3, 2010

थिरकन ने वैशाली में बांटे कपड़े।

उत्तर प्रदेश की जानी-मानी सामाजिक संस्था थिरकन वैलफेयर एसोसिएशन (रजि.) का सेवा अभियान तेज़ी से आगे बढ़ रहा है। संस्था पिछले कई सालों से उत्तर प्रदेश और एनसीआर के अलग-अलग शहरों मे समाज सेवा के कार्य करती आ रहा है। इसी सिलसिले को जारी रखते हुये थिरकन क्लॉथ बैंक ने वैशाली सेक्टर-4 की झुग्गियों मे रहने वाले परिवारों को कपड़े बांटे। सेक्टर-4, बिजलीघर पार्क के साथ करीब 40 झुग्गियां हैं जहां लगभग 120 लोग रहते हैं। सामाजिक संस्था "थिरकन" के क्लॉथ बैंक ने यहां पहले सर्वे किया और उसके बाद आज यहां महिलाओं और पुरुषों को कपड़े वितरित किये। इस मौके पर पुलिस अधीक्षक (ग्रामीण) कैप्टन एम.एम.बैग ने कार्यक्रम में पंहुचकर संस्था के सदस्यों के साथ मिलकर कपड़े बांटें। एस.पी. कैप्टन एम.एम.बैग ने थिरकन के कार्यों की सरहना करते हुये कहा कि वो पिछले लगभग पांच सालों से थिरकन के कामों को देख रहे हैं। उन्होने कहा कि जिस तरह से थिरकन वैलफेयर एसोसिएशन निस्वार्थ भाव से समाज की सेवा कर रही है वो दूसरों के लिये प्रेरणादायक है। उन्होने थिरकन स्कूल मे गरीब बच्चों को निशुल्क शिक्षा दिये जाने को भी सराहा। कार्यक्रम मे आये वरिष्ठ पत्रकार एंव राजनैतिक चिन्तक यूसुफ अन्सारी ने कहा कि थिरकन का जो मकसद है वो नेक है। लोगों को संस्था की मदद के लिये आगे आना चाहिये। संस्था की अध्यक्षा श्रीमती स्नेहालता सिंह ने बताया कि थिरकन पिछले नौ सालों से बिना किसी सरकारी आर्थिक सहायता के कार्य कर रही है। इस दौरान संस्था ने बेसहारा गरीब बच्चों की पढाई का जिम्मा लेने के साथ-साथ स्वास्थ जागरुकता के कार्यक्रम भी आयोजित किये हैं। संस्था के सदस्यों की मदद से ही कार्यक्रम आयोजित किये जाते रहे हैं। संस्था सचिव एंव टीवी एंकर नन्दिनी सिंह ने बताया कि संस्था का क्लॉथ बैंक असहाय और गरीब लोगों का तन ढकने के लिये हर सम्भव कोशिश मे जुटा है। इस बैंक को कोई भी अपने पुराने या छोटे हो चुके कपड़े दान कर सकता है। ज़रुरत इस बात की है कि शहर के लोगों को ऐसी संस्थाओं की मदद के लिये आगे आना चाहिये। इस मौके पर संस्था के सदस्य संदीप कुमार, प्रियंका सिंह, कु.ममता सिद्धार्थ, एसआई संजीव कुमार, हसीब खान, खुशी, प्रियंका शर्मा और श्रीमती शबनम अन्सारी आदि का सहयोग रहा। www.thirkanthengo.blogspot.com, www.facebook.com/thirkan

Friday, November 12, 2010

Do You Know?

Do you know that according to RTE, all children between the ages of 6 and 14 shall have the right to free and compulsoryelementary education at a neighborhood school. There is no direct (school fees) or indirect cost (uniforms, textbooks, mid-day meals, transportation) to be borne by the child or the parents to obtain ...elementary education. The government will provide schooling free-of-costuntil a child’s elementary education is completed.” Share this with your friends and family. for more detail Please log on to- www.thirkanthengo.blogspot.com

Friday, October 22, 2010

छोड़ गया वह साथ

जब जब जिस जिस को रखना चाहा अपने दिल के पास, तब तब अकेला रहा छोड़ गया वह साथ।

Tuesday, September 21, 2010

युवा दखल: हाथ जोड़कर एक अपील

हाथ जोड़कर एक अपील

24 तारीख़ को बाबरी मस्ज़िद विवाद का हाईकोर्ट से फैसला आना है।
तय है कि यह एक समुदाय के पक्ष में होगा तो दूसरे के ख़िलाफ़। ऐसे में पूरी संभावना है कि लोकतंत्र में विश्वास न रखने वाली ताक़तें 'धर्म के ख़तरे में होने' का नारा लगा कर जनसमुदाय को भड़काने तथा हमारा सांप्रदायिक सौहार्द बिगाड़ने का प्रयास करेंगी। फ़ैसला आने से पहले ही इसके आसार नज़र आने लगे हैं।
दो दिन बाद … यानि 27 सितम्बर को भगत सिंह का जन्मदिन है। आप जानते हैं कि पंजाब में उस वक़्त फैले दंगों के बीच भगत सिंह ने 'सांप्रदायिक दंगे और उनका इलाज़' लेख में सांप्रदायिक ताक़तों को ललकारते हुए कहा था कि दंगो की आड़ में नेता अपना खेल खेलते हैं और असली मर्ज़ यानि कि विषमता पर कोई बात नहीं होती।
इन दंगो ने हमसे पहले भी अनगिनत अपने और हमारा आपसी प्रेम छीना है। आईये आज मिलकर ठंढे दिमाग़ से यह प्रण करें कि अगर ऐसा महौल बनाने की कोशिश होती है तो हम इसकी मुखालफ़त करेंगे…और कुछ नहीं तो हम इसमें शामिल नहीं होंगे।
ग्वालियर में हमने इस आशय के एस एम एस व्यापक पैमाने पर किये हैं। आप सबसे भी हमारी अपील इसी संदेश को जन-जन तक पहुंचाने की है।
आईये भगत सिंह को याद करें और सांप्रदायिक ताक़तों को बर्बाद करें। यह एक ख़ुशहाल देश बनाने में हमारा
सबसे बड़ा योगदान होगा।
हमने इस साल भगत सिंह के जन्मदिन को 'क़ौमी एकता दिवस' के रूप में मनाने का भी फैसला किया है।

Thursday, August 26, 2010

दर्द आम आदमी का

संवेदनशील कवि की दो लाइन से बात आरम्भ करते हैं-प्रश्नोत्तर चलते रहे,जीवन में चिरकाल,विक्रम मेरी जिन्दगी,वक्त बना वेताल। ये पंक्तियां देश के आम आदमी को समर्पित हैं। उस आदमी को जिसे मैं तब से जानता हूँ जब से अखबार पढना शुरू किया था। आम आदमी!मतलब,जो किसी को नहीं जानता हो और कोई खास आदमी उसको ना पहचानता हो। अपने काम से काम रखने को मजबूर। ना साधो से लेना न माधो का देना। पीपली लाइव के नत्था से भी गया गुजरा। इसी फिल्म के उस लोकल पत्रकार से भी गया बीता। जिसकी मरने के बाद भी पहचान नहीं होती। देश के न्यूज़ चैनल्स में तो यह लापता है, हाँ कभी कभार प्रिंट मीडिया के किसी कौने में जरुर इसके बारे में पढ़ने को मिल जाता है। इन दिनों ऐसे ही एक आम आदमी से साक्षात मिलने का मौका मिला। जिस पर एक कवि की ये लाइन एक दाम फिट है--एक जाए तो दूसरी मुश्किल आए तुरंत,ख़त्म नहीं होता यहां इस कतार का अंत। आम आदमी ने अपना कर्म करके कुछ रकम जोड़ी, पांच सात तोला सोना बनाया। सोचा, घर जाऊंगा ले जाऊंगा। परिवार के काम आयेंगे। बहिन की शादी में परेशानी कम होगी। घर जाने से पहले ही चोर इस माल को ले उड़ा। थाने में गया, परन्तु मुकदमा कौन दर्ज करे? चलो किसी तरह हो गया तो चोर के बारे में बताने,उसे पकड़ने की जिम्मेदारी भी इसी की। घर में इतना सामान क्यों रखा? इस बारे में जो सुनना पड़ा वह अलग से। मोहल्ले वालों ने बता दिया। इस बेचारे ने समझा दिया। पुलिस पुलिस है, समझे समझे,ना समझे ना समझे। बेचारा आम आदमी क्या कर सकता है। जिस पर शक है वह मौज में है। इसी मौज में वह वहां चला जायेगा जिस प्रदेश का वह रहने वाला है। आम आदमी अब भी कुछ नहीं कर पा रहा बाद में भी कुछ नहीं कर पायेगा। पेट काट कर सरकारी कालोनी में भूखंड लिया। सोचा मकान बना लूँ। बैंक आम आदमी के लिए होता है। यह सोचकर वह वहां चला गया उधार लेने। किसी ने एक लाख उधार पर साढ़े तीन हजार मांगे किसी ने तीन हजार। कोई जानता नहीं था इसीलिए किसी ने उसकी सूनी नहीं, मानी नहीं। यह रकम देनी पड़ी। लेकिन मकान का निर्माण इतनी आसानी से तो शुरू नहीं हो सकता ऐसे आदमी नक्शा बनना पड़ेगा। वह पास होगा। तब कहीं जाकर आदमी मकान की नीव भर सकता है। सरकारी कालोनी थी। कब्ज़ा पत्र लिया था। वह गुम हो गया नक्शा पास करवाने की जो फाइल ऑफिस में थी वह ऑफिस वालों से इधर उधर हो गई। सरकारी,गैर सरकारी जितनी फीस लगती है उससे डबल फीस देनी पड़ी। अब यह क्या जाने की किस काम के कितने दाम लगते हैं। कई दिन तक घर ऑफिस के बीच परेड होती रही, काम नहीं हुआ। होता भी कैसे आम आदमी जो ठहरा। उस पर आवाज ऐसी मरी मरी जैसे कोई जबरदस्ती बुलवा रहा हो। यह तो उसकी कई दिनों की कहानी है। टटोले तो अन्दर और भी दर्द हो सकते हैं। मगर हमें क्या पड़ी है। ऐसे आदमी का पक्ष लेने की जिसको कोई नहीं जानता। उस से जान पहचान करके भी क्या फायदा! देश में पता नहीं ऐसे कितने प्राणी है जो इस प्रकार से अपने दिन कटते हैं। इसके लिए तो यही कहना पड़ेगा--कैसे तय कर पायेगा, वो राहें दुशवार,लिए सफ़र के वास्ते, जिसने पाँव उधार। नारायण नारायण।

Monday, August 16, 2010

पीपली लाइव

आजादी की ६३वी सालगिरह,सावन की बरसात,दोस्त के साथ, चले गए पीपली लाइव देखने। सालों बाद किसी फिल्म को थियेटर में देखने का मन बना था। बनना ही था। प्रिंट और इलेक्ट्रोनिक मीडिया ने इसकी इतनी बल्ले बल्ले की कि हमें ऐसा लगा अगर पीपली को नहीं देखा तो हमारा जीना ही बेकार हो जायेगा। लोग ताने मार मार के हमें जिन्दा ही मार देंगे। अंत देखकर यही सोचा कि क्यों आ गये इसे देखने। सब कुछ ठीक था। मीडिया जो असल में करता है वह तो फिल्म में जानदार शानदार और दमदार तरीके से दिखाया गया है। लेकिन आखिर में मीडिया को क्या हो जाता है। वह ऐसा तो नहीं है कि उसे पता ही ना लगे कि मरने वाला नत्था नहीं लोकल पत्रकार है। पोस्ट मार्टम के दौरान भी पहचान नहीं हुई कि मरने वाला नत्था नहीं है। जबकि दोनों के पहनावे, बदन की बनावट में काफी अंतर था। इससे भी कमाल तो ये कि "नत्था" की लाश को ख़बरों में दिखाने से पहले ही मीडिया छूमंतर हो गया। ऐसा होता नहीं है। मुझे तो लगता है यह फिल्म किसान की स्थिति पर नहीं मीडिया के प्रति दिल में छिपी कोई भड़ास निकालने के लिए है। इसमें कोई शक नहीं कि लोकल लेवल की किसी बात का बतंगड़ इसी प्रकार बनता है। मगर ये नहीं होता कि किसी को पता ही ना लगे कि मरने वाला नत्था था या कोई ओर। जिस तमन्ना से फिल्म देखने और दिखाने ले गए थे वह पूरी नहीं हुई। लेकिन फिर भी दो घंटे तक दर्शक इस उम्मीद के साथ थियेटर में बैठा रहता है कि कुछ होगा और फिल्म ख़त्म हो जाती है। समस्या के साथ समाधान भी होता हो अच्छा होता।

Saturday, August 14, 2010

एक पौधा आज़ादी का......

आज़ादी का जश्न हम सब मना रहे हैं। लेकिन आज़ादी के मायने क्या हैं इस पर हम सब को सोचना चाहिये। हमें आज़ादी तो मिली पर उसके साथ कुछ ज़िम्मेदारियां भी आयीं। क्या हमने उन ज़िम्मेदारियों के प्रति ईमानदारी दिखाई? अगर नही तो आज फिर मौका है उस ज़िम्मेदारी को निभाने का...... “थिरकन” सभी देशवासियों से अपील करती है कि हम सब देश की प्रति अपनी ज़िम्मेदारी को समझे और आज़ादी के जश्न को सार्थक बनाते हुये एक पेड़ या पौधा अपने घर या आस-पास कहीं भी ज़रुर लगायें। ताकि हमारे पर्यावरण को भी प्रदुषण से आज़ादी मिल सके और हमारा कल भी प्रदुषण से आज़ाद हो। जय हिन्द। www.thirkanthengo.blogspot.com

Monday, July 12, 2010

कल रात को स्टार न्यूज़ पर एक परिचर्चा हो रही थी। विषय, विषय तो ऑक्टोपस बाबा के अलावा कुछ हो ही नहीं सकता था। उसमे कई ज्योतिषविद ,तर्क शास्त्री और वैज्ञानिक भाग ले रहे थे। चैनल का खेल संपादक उसका संचालन कर रहा था। सबकी अपनी अपनी राय, तर्क,कुतर्क थे। इसमें एक बात बड़ी जोरदार थी। जैसे ही संचालक किसी ज्योतिषाचार्य को अपनी बात कहने के लिए माइक देता, स्टूडियो में काम करने वाला एक बड़ा पत्रकार [ शायद ] आकर जबरदस्ती उससे माइक लेकर अपनी बात कहने लगता। बात भी पूरी गुस्से में कहता। एक बार नहीं ऐसा बार बार हुआ। परिचर्चा का संचालन करने वाला उसको बुलाता या नहीं वह आ जाता। ज्योतिषाचार्य अपनी बात शुरू भी नहीं कर पाते कि वह टपक पड़ता। संचालक भी उसको ऐसा करने से रोक नहीं रहा था। जब चैनल ने उनको बुलाया है, अपनी बात कहने के लिए तो उनको अपना कथन पूरा ना करने देना कहाँ की सभ्यता है। फिर ऐसे कार्यकर्म में तथाकथित नास्तिकों को हिन्दू धर्म, देवी देवताओं, उनसे जुड़ी मान्यताओं को गाली निकालने का खुला मौका मिल जाता है या ये कहें कि दिया जाता है।। गलत को गलत कहना बुरी बात नहीं लेकिन केवल अपनी ही बात को सच साबित करने के लिए जोर से बोलना, दूसरे की भावनाओं को ठेस पहुँचाना कौनसा वैज्ञानिक तथ्य है। चैनलों पर बैठ कर हिन्दुओं, देवी-देवताओं को अपमानित करने वाले इस प्रकार से किसी और धर्म के बारे में एक शब्द भी बोल कर दिखाएँ। चैनल से लेकर सरकार तक की जड़ें हिल जाएँगी। बात कहने वालों का चैनल से बाहर आना मुश्किल हो जायेगा। आप सच्चें हैं, आपका तर्क वैज्ञानिक कसौटी पर खरा है। मगर चैनल वाले ने जिस को बुला रखा है वह भी तो कुछ ज्ञान रखता होगा। मेरी इस पोस्ट से भी ऐसे नास्तिकों के पेट में मरोड़ उठेगी। चलो ठीक है पेट साफ हो जायेगा। ऐसी वार्ता संचालन करने वालों को इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि स्टाफ को कोई बन्दा यूँ किसी की बात को ना काटे। अगर उसको बुलाना मज़बूरी है तो उसको भी परिचर्चा में शामिल कर लो। जिस से बीच बीच में माइक छीन कर वह किसी का अपमान ना कर सके। तर्क शास्त्रियों पर भी किसी धर्म की निंदा करने पर रोक होनी चाहिए। आप समालोचना करो, तर्क से अपने कथन की सार्थकता सिद्ध करो, ये क्या कि जब कोई बस ना चले तो आपे से बाहर होकर किसी का अपमान करना शुरू कर दो। ताकि दूसरा कोई जवाब ही न दे सके। नारायण,नारायण।

Monday, June 21, 2010

यूपी पुलिस- हम नही सुधरेंगें

हमारे देश के पर्यटन स्थलों पर लाखों की संख्या मे पर्यटक आते हैं और देश में पर्यटन का सबसे बड़ा केन्द्र होता है आगरा, जहां दुनियाभर के लोग बेपनाह मोहब्बत की अनमोल निशानी ताजमहल का दीदार करते हैं। आगरा शहर को अगर देश में पर्यटन की राजधानी कहा जाये तो कुछ ग़लत नही होगा। क्योंकि हर साल सबसे ज़्यादा पर्यटक इसी शहर में आते हैं। हमारे देश की रवायत है कि मेहमान भगवान के समान होता है। इसीलिये यहां कहा भी जाता है “अतिथि देवोः भवः”। लेकिन आये दिन पर्यटकों और खासकर विदेशी मेहमानों के साथ कोई ना कोई हादसा होने की ख़बरें आती रहती हैं। आगरा में पर्यटकों के साथ होने वाले हादसों की भी एक लम्बी फेहरिस्त है। इन सब हादसों के पीछे सबसे बड़ा सबब है पुलिस की लापरवाही या फिर कहीये कि पैसे के लालच मे की गयी लापरवाही। शहर मे आने वाले पर्यटकों की सुरक्षा का जिम्मा शहर की पुलिस का है। लेकिन गाहे बगाहे पुलिस पर भी अंगुलिया उठती रहती हैं। इन दिनों आगरा में पर्यटकों को लेकर आने वाले वाहन पुलिस की अवैध कमाई का ज़रिया बने हुये हैं। इनमें सबसे बड़ी संख्या उन वाहनों की है जिनका रजिस्ट्रेशन दिल्ली या आस-पास के राज्यों का है। आगरा की ट्रेफिक पुलिस हो या सिविल पुलिस जिसे मौका मिलता है वो हाथ साफ कर लेता है। पर्यटकों की सुरक्षा का दम भरने वाली पुलिस के हालात ये हो गये हैं कि उन्हे बाहर से आने वाले वाहन केवल सोने का अण्ड़ा देने वाली मुर्गी नज़र आते हैं। फिर चाहे उसमें कोई भी सवार हो, पर्यटक या फिर आगरावासी। राष्ट्रीय राजमार्ग से शहर मे दाखिल होने वाले चौराहों और रास्तों पर सुबह से ही पुलिस वाले तैनात रहते हैं। वहां लगने वाले जाम से उन्हे कोई मतलब नही लेकिन अगर कोई बाहर का वाहन बिना ‘एन्ट्री’ दिये बिना निकल जाये तो मुश्किल है। वसूली का सबसे बड़ा ठिकाना है सिकन्दरा चौराहा और उसके बाद वॉटरवर्क्स चौराहा। इसके अलावा शहर के प्रतापपुरा चौराहा और फतेहाबाद रोड़ भी पुलिस की अवैध कमाई के बड़े केन्द्र साबित हो रहें हैं। हालात इस कदर खराब हो चुकें हैं कि पुलिस ने बाहर से आने वाले इन वाहनों के लिये पैसे तय कर दिये हैं। इण्ड़िका या फिर किसी भी छोटी गाड़ी के लिये पांच सौ रुपये तय हैं। अगर पैसा नही मिला तो गाड़ी शहर मे नही जा सकती। भले ही उसके काग़ज़ात पूरे हों। पैसे लेकर बाकायदा एक कार्ड़ पर एन्ट्री की जाती है। फिर चाहे वो वाहन आगरा में कहीं भी घूमता रहे। वसूली की इस सारी कवायद के पीछे पुलिस वालों की दलील ये है कि चौराहे पर तैनाती के लिये दरोगा को हर दिन के हज़ारों रुपये ऊपर देने पड़ते हैं। रही सिपाही की बात को उसे अच्छे ‘एन्ट्री’ प्वॉइन्ट पर तैनाती के लिये हर माह एक मोटी रकम देनी पड़ती है। अब जब ऊपर तक इतना जाता है तो कुछ कमाने के लिये भी तो होना चाहिये। बस इसी फीक्र मे बेचारे पुलिस वाले धूप हो या छांव, आंधी या तूफान हर हाल मे कमाई का साधन ढूड़ते रहते हैं। पुलिस और वाहन चालकों या स्वामियों के बीच कई बार बात गाली गलौच से बढ़कर हाथापाई तक पंहुच जाती है। लेकिन कुछ दिन दिखावे के लिये सबकुछ ठीक रहता है पर फिर वही वसूली कार्यक्रम शुरु हो जाता है। सबसे अहम बात ये है कि सारी कहानी पुलिस के आलाधिकारियों को पता होती है। लेकिन वो इन मामलों पर चुप्पी साधे रहते हैं। वजह है कि इस कमाई का एक हिस्सा ऊपर वालों को भी तो जाता है इसलिये लाख शिकायत करने के बावजूद किसी पुलिस वाले के खिलाफ कोई कार्यवाही नही होती। आला अधिकारियों से जब इस बारे मे बात की जाती है तो वो अनजान बन जाते हैं। उन्हे तो पता ही नही होता कि किस चौराहे पर क्या हो रहा है। बस अपने कारिन्दो को देखने की बात दोहराते हैं। एक रोना सरकार का रोया जाता है कि सरकार के कामों से अधिकारियों को फुरसत कहां कि वो देख सकें कि किस चौराहे पर क्या हो रहा है। इस पूरे मामले के दौरान सबसे बुरा असर पड़ता है गाड़ी मे बैठे पर्यटक पर जो ये सारा माजरा समझ नही पाता। कई बार पुलिसवाले पर्यटकों के सामने ही वाहन चालक से वसूली के लिये मार पिटाई शुरु कर देतें हैं। जिसे देखकर पर्यटक सहम जाते हैं और खासकर विदेशी पर्यटक तो हैरान रह जाते हैं कि यहां कि पुलिस किस तरह से किसी बेगुनाह को पैसे के लिये मारने पीटने पर आ जाती है। उनकी नज़रों मे पूरे भारत को लेकर सजाया गया ख्वाब और यहां की सभ्यता को लेकर सुनी कहानियां पल मे झूठी हो जाती हैं। बहरहाल केन्द्र और राज्य सरकार दुनियाभर के पर्यटकों की आमद का इन्तज़ार कर रही है। कॉमन वेल्थ गेम्स सर पर हैं। लाखों पर्यटकों के भारत आने की उम्मीद भी है। ऐसे में दिल्ली के बाद पर्यटकों की सबसे ज़्यादा आमद आगरा में होगी। लेकिन अवैध वसूली में नम्बर वन का खिताब पा चुकी आगरा पुलिस पर्यटकों की हिफाजत का ख्याल रखेगी या फिर अपनी जेब का, ये सवाल अब सामने खड़ा दिखाई दे रहा है ?

Saturday, May 15, 2010

कुछ पाने के लिए

ठीक है कुछ पाने के लिए कुछ ना कुछ खोना ही पड़ता है, मगर ये नहीं जानता था कि मैं, कुछ पाने के लिए इतना कुछ खो दूंगा कि मेरे पास कुछ और पाने के लिए कुछ भी तो नहीं बचेगा, और मैं थोडा सा कुछ पाने के लिए अपना सब कुछ खोकर उनके चेहरों को पढता हुआ जो मेरे पास कुछ पाने की आस लिए आये हैं, लेकिन मैं उनको कुछ देने की बजाए अपनी शर्मसार पलकों को झुका उनके सामने से एक ओर चला जाता हूँ किसी और से कुछ पाने के लिए।

Tuesday, May 4, 2010

लिखना भी लड़ाई का हिस्सा है!

पुस्तक लोकार्पण और परिचर्चा की रिपोर्ट

पुस्तक लोकार्पण का दृश्य
समाजवाद मानव की मुक्ति का महाआख्यान है। पूंजीवाद की आलोचना का आधार सिर्फ़ उसकी आर्थिक प्रणाली नहीं बल्कि उसके सामाजिक-सांस्कृतिक आयाम भी हैं। इसने समाज को अमानवीय बना दिया है। औरतों, दलितों और ग़रीबों की ज़िन्दगी इस व्यवस्था में लगातार बद्तर हुई है। सांस्कृतिक क्षेत्र को इसने इतना प्रदूषित कर दिया है कि मनुष्य की प्राकृतिक प्रतिभा का विकास इसके अंतर्गत असंभव है। इसीलिये व्यवस्था के ख़िलाफ़ एक आमूलचूल लड़ाई लड़े बिना इन मुद्दों पर अलग-अलग लड़ाईयां नहीं लड़ी जा सकतीं। आज ज़रूरत मार्क्सवाद की गतिमान व्याख्या तथा नई सामाजार्थिक हक़ीक़त के बरक्स इसे लागू किये जाने की है। अशोक की किताब मार्क्स जीवन और विचार इस लड़ाई का ही एक हिस्सा है जो नये पाठकों और युवा पीढ़ी का मार्क्स से आलोचनात्मक परिचय कराती है। मई दिवस के अवसर पर ग्वालियर में युवा संवाद द्वारा आयोजित परिचर्चा हमारे समय में समाजवाद में हिस्सेदारी करते हुए जाने-माने संस्कृतिकर्मी प्रो शम्सुल इस्लाम ने कही।
कमल नयन काबरा जी
परिचर्चा में हिस्सेदारी करते हुए वरिष्ठ अर्थशास्त्री कमल नयन काबरा ने कहा कि आज़ादी के बाद से ही विकास का जो माडल अपनाया गया वह व्यापक आबादी नहीं बल्कि एक सीमित वर्ग के हाथों में सत्ता तथा अर्थतंत्र के नियंत्रण को संकेन्द्रित करने वाला था। जिसे समाजवाद कहा गया वह वस्तुतः राज्य पूंजीवाद था। गांवों और शहरों के ग़रीबों की संख्या में लगातार वृद्धि होती रही। समाजवाद का मतलब है एक ऐसी व्यवस्था जिसमें सत्ता वास्तविक अर्थों में जनता के हाथ में रहे। आज रूस या चीन की कार्बन कापी नहीं हो सकती और नयी समाजवादी व्यवस्था को आज की सच्चाईयों के अनुरूप स्वयं को ढालना होगा। भूमण्डलीकरण के नाम पर जो प्रपंच रचा गया है अशोक उसेशोषण के अभयारण्य में बख़ूबी खोलते हैं।
कार्यक्रम का आरंभ शम्सुल इस्लाम, गैरी तथा अन्य साथियों द्वारा गाये गये गीत लाल झण्डा ले के हम आगे बढ़ते जायेंगे' से हुआ। इस अवसर पर युवा कवि, लेखक अशोक कुमार पाण्डेय की हाल ही में प्रकाशित दो किताबों, मार्क्स जीवन और विचार तथा शोषण के अभयारण्य भूमण्डलीकरण के दुष्प्रभाव और विकल्प का सवालका लोकार्पण अथिति द्वय और कार्यक्रम की अध्यक्षता कर रहे वरिष्ठ साहित्यकार प्रकाश दीक्षित द्वारा किया गया। पुस्तक परिचय देते हुए युवा कहानीकार जितेन्द्र विसारिया ने इसे मार्क्सवाद को समझने की ज़रूरी किताब बताया, वरिष्ठ संस्कृतिकर्मी डा मधुमास खरे ने कहा कि यह छोटी सी किताब प्रगति प्रकाशन से छपने वाली उन किताबों की याद दिलाती है जिन्हें पढ़कर हमारी पीढ़ी ने मार्क्सवाद सीखा। अशोक ने कम्यूनिस्ट आंदोलनत का संक्षिप्त इतिहास लिखकर एक बड़ी ज़रूरत को पूरा किया है। युवा संवाद के संयोजक अजय गुलाटी ने कहा कि ये एक सक्रिय कार्यकर्ता की किताबें हैं जिन्हें आम जनता के लिये पूरी संबद्धता के साथ लिखा गया है। शोषण के अभयारण्य दूरुह माने जाने वाले विषय अर्थशास्त्र पर इतने रोचक तरीके से बात करती है कि इसे कोई भी पढ़कर अपनी अर्थव्यवस्था को समझ सकता है। लेखकीय वक्तव्य में अशोक पाण्डेय ने कहा कि किताब दरअसल बस वैसी ही होती है जैसा उसे पाठक समझता है। लिखना मेरे लिये इस लड़ाई का ही हिस्सा है और अगर ये किताबें उसमें कोई भूमिका निभा पायें तभी इनकी सार्थकता है। समाजवाद मेरे लिये एक ऐसी व्यवस्था है जिसमें मौज़ूदा व्यवस्था से अधिक शांति हो, अधिक समृद्धि हो, अधिक लोकतंत्र और अधिक समानता। मुझे नहीं लगता कि उसकी लड़ाई आज पुराने तरीकों या फिर हिंसात्मक आंदोलनों से लड़ी जा सकती है।
अध्यक्षीय वक्तव्य देते हुए प्रकाश दीक्षित ने कहा कि अशोक का जुझारुपन और उसकी बैचैनी इन किताबों में साफ़ महसूस की जा सकती है। इसीलिये ये किताबें रोचक हैं और आपसे लगातार सवाल करती हैं। आज बाज़ार ने मध्य वर्ग को पूरी तरह भ्रष्ट बना दिया है और जो अधिकार संघर्षों के बाद हासिल हुए थे वे अब छीन लिये गये हैं। आज इस लड़ाई के लिये और अधिक प्रतिबद्ध संघर्ष की ज़रूरत है।
कार्यक्रम में साहित्यकार वक़ार सिद्दीकी, पवन करण, प्रदीप चौबे, ज़हीर क़ुरैशी, मुस्तफ़ा ख़ान, सत्यकेतु सांकृत, जी के सक्सेना, संतोष निगम, पारितोष मालवीय, इण्डियन लायर्स एसोसियेशन के गुरुदत्त शर्मा, अशोक शर्मा, मेडिकल रिप्रेज़ेन्टेटिव यूनियन के राजीव श्रीवास्तव, गुक्टु के ओ पी तिवारी, एस के तिवारी, डी के जैन, जे एस अलोरिया सी पी आई के सतीश गोविला, स्त्री अधिकार संगठन की किरण, बेबी चौहान, पत्रकार राकेश अचल सहित शहर के तमाम बुद्धिजीवी, ट्रेडयूनियन कर्मियों, छात्रों तथा आम जनों ने बड़ी संख्या में भागीदारी की। संचालन अशोक चौहान ने किया और आभार प्रदर्शन फिरोज़ ख़ान ने।

Sunday, April 18, 2010

जनपक्ष: ये शिक्षा का बाज़ार है!

ये शिक्षा का बाज़ार है!

धरने के दौरान एक पोस्टर
गोरखपुर: उच्च शिक्षा की खस्ताहाल स्थिति
उच्च शिक्षा किसी भी सभ्य समाज के लिए एक जरूरी शर्त होती है। साहित्य संस्कृति, कला और राजनीति के विभिन्न पक्षों पर गंभीर चिन्तन का काम उच्च शिक्षित व्यक्ति ही कर सकता है। लेकिन आज पूरे देश के पैमाने पर उच्च शिक्षा की जो हालात है वह काफी निराशाजनक प्रतीत होती है। उच्च शिक्षा की हाल जानने के लिए अगर हम उ0 प्र0 के पूर्वी इलाके की तरफ रूख करें तो हमें उच्च शिक्षा की दुर्दशापूर्ण स्थिति का सहज ही अंदाजा लग सकता है। दी0द0उ0 गोरखपुर विश्वविद्यालय पूर्वांचल में उच्च का एक बड़ा केन्द्र माना जाता है। इससे सम्बद्ध लगभग 245 महाविद्यालय हैं। जिसमें आधे से अधिक स्ववित्तपोषित एवं वित्तविहीन योजना के अन्तर्गत हैं। ये सभी कालेेज पूर्वी उ0प्र0 में उच्च शिक्षा की खस्ताहाल स्थिति को सुधारने के लिए कुछ स्वघोषित समाजसेवी, ठेकेदारों, राजनेताओं द्वारा संचालित किए जाते है। इन महाविद्यालयों में किसी भी तरह के मानकों का पालन जरूरी नहीं समझा जाता है विश्वविद्यालय द्वारा अच्छी खासी रकम लेकर इन्हें स्थायी मान्यता भी प्रदान कर दी जाती है। और हद तो तब हो जाती है जब इनके प्रबंधक उन कालेजों के विश्वविद्यालय से नियुक्त प्राध्यापकों से अध्यापन तक नहीं करवाते। अनुमोदित शिक्षकों को न्यूनतम् वेतन तक नही देतेे बल्कि वे पढ़ाई करवाना ही नही चाहते है। अनुमोदित शिक्षक जिन्हे लगभग बारह हजार रू0 तनख्वाह मिलनी चाहिए थी वे अपनी डाक्टरेड की उपाधि लिए सामाजिक अपमान का दंश झेलने को मजबूर हैं। उन्ही के बराबर योग्यता वाले वित्तपोषित कालेजों के शिक्षक 80-90 हजार रू0 प्रतिमाह पाते हैं और वहीं उनसे अधिक मेहनत से पढ़ाने वाले लोग भूखमरी के शिकार होते है। हाईकोर्ट के सर्विस बेंच ने- 129-11-2-2010 को दिये अपने 9.5.2000 के निर्णय में शासनादेश के अनुसार यूजीसी को न्यूनतम वेतनमान नियमित रूप से शिक्षकों को दिये जाने की अनिवार्यता बताया है। इसके लिए उसने राज्य सरकारों एवं विश्वविद्यालय को निर्देशित भी किया किंतु उसका भी कोई प्रभाव उच्च शिक्षा के धंधेबाजो पर नही है।
245 के लगभग संख्या में दी0द0उ0 गोरखपुर विश्वविद्यालय से सम्बद्ध महाविद्यालयों में छात्रों का प्रवेश पूरे सत्र भर चलता रहता है। निर्धारित सीटों से कई गुना अधिक प्रवेश लेने की इन्हें पर्याप्त छूट है। शिक्षक विहीन इन कालेजों में भारी संख्या में ग्रामीण युवा उच्च शिक्षा लेने के लिए दाखिला लेते है। ये छात्र वर्ष भर कालेजों से दूर रहते है। प्रबंध तंत्र इन छात्रों से पैसे लेकर पास करवाने का ठेका लेता है और परीक्षा के समय भाड़े के मास्टरों द्वारा नकल करवाकर अच्छे अंकों से पास करवा दिया जाता है। यह सब कुछ विश्वविद्यालय प्रसाशन के संज्ञान में किया जाता है।
कुछ तो कालेज ऐसे भी है जिन के पास मान्यता ही नही है और प्रवेश ले चुके हैं अभी पिछले दिनों 17 महाविद्यालय ऐसे पाये गये जिनके पास स्थायी मान्यता ही नही है बी.एड. कालेजों की हाल तो और भी बुरी है। प्रबंधतंत्र द्वारा मनमानी फीस वसूलने के बाद अनेक ऐसे कालेज प्रकाश में आये है जिनके पास एन.सी.ई.टी. से मान्यता ही नही है। इन कालेजों में प्रवेश ले चुके छात्र अब इस लिए परेशान हैं कि उनकी वार्षिक परीक्षा ही नही हो रही है। सैकड़ों की ंख्या में छात्र-छात्राएं कुलपति से लेकर कमिश्नर तक का प्रतिदिन चक्कर लगा रहे है तथा धरना-प्रदर्शन कर रहे हैं। लेकिन इन छात्रों की समस्याओं को सुनने वाला कोई नही है। पूर्वांचल के बेेटे-बेटियों के भविष्य के साथ हो रहे इस खिलवाड़ के खिलाफ बोलने वाला कोई नही है। यहाँ के अधिकारी से लेकर जनप्रतिनिधि तक इन शिक्षा माफियाओं के खिलाफ बोलने को तैयार नही हैं इनका एक प्रमुख कारण यह भी है कि अधिकांश प्रबंधक खुद जनप्रतिनिधि है या फिर कोई बड़ा ठेकेदार, बाहुबली आदि। इनके खिलाफ न तो कुलपति कोई कार्यवाही करते है और नही प्रदेश सरकार ही।
पूर्वांचल में उच्च शिक्षा को इस दुर्दशा पूर्ण स्थिति से आजिज आकर विगत वर्ष इन कालेजों में पढ़ाने वाले शिक्षकों ने ‘स्ववित्तपोषित- वित्तविहीन महाविद्यालय शिक्षक एसोसिएसन’ के बैनर तले एकत्रित होकर यह तय किया कि अगर प्रबंधकों द्वारा घूस देने पर उनका काम विश्वविद्यालय प्रशासन द्वारा कर दिया जाता है तो हम शिक्षक भी अपने वेतन तथा अन्य मांगों के समाधान के लिए कुलपति को घूस देेंगे। इसके लिये इन शिक्षकों ने पूरे महानगर में जुलूस निकालकर भिक्षाटन किया था। शिक्षको के इस प्रतिरोधात्मक कार्यवाही के बाद भी विश्वविद्यालय और प्रदेश सरकार को शर्म तक नही आयी कि वे इन शिक्षा माफियाओं के विरूद्ध कोई भी कार्यवाही करें।
देवरिया जिले में रमाशंकर कृषक महाविद्यालय, मईल एक ऐसा कालेज है जहाँ के सारे अनुमोदित शिक्षक विश्वविद्यालय प्रशासन को लिखकर दे चुके है िकवे उक्त कालेज में अध्यापन कार्य नहीं कर रहें हैं क्योंकि वहाँ वेतन के रूप में कोई धनराशि दी ही नही जाती। विद्यवविद्यालय एवं महाविद्यालयों के स्थायी शिक्षक वेतन के स्तर को देखकर प्रमुदित है; शिक्षा का स्तर देखने की उन्हे फुर्सत ही नही रह गई है। बल्कि प्रबंधकों की सेवा एवं बेहतरी के लिए प्रतिबद्ध दिखते हैं। ऐसे मे यह सवाल उठता है कि पिछले वर्षो से उक्त कालेज में अध्यापन कार्य कौन कर रहा है? तथा परीक्षा मे कक्ष निरीक्षक की भूमिका में कौन हैं? जबकि सभी प्राध्यापकों ने कालेज छोड़ दिया है। 4000 से अधिक छात्रों का प्रवेश लेने वाले इस महाविद्यालय में सीटों से कई गुना अधिक प्रवेश किया गया है। अनेक बार लिखित शिकायत के बाद भी विश्वविद्यालय द्वारा वहाँ खुलेआम नकल करवाया जा रहा है। राजभवन एवं उच्च शिक्षा सचिव ने भी इस मामलेे को गंभीरता से लेते हुए विवि प्रसाशन को पत्र लिखा था लेकिन विश्वविद्यालय ने उक्त निर्देश को दबाकर उक्त कालेज को स्थायी मान्यता दे दी हैै ।
शासन-प्रशासन तथा शिक्षा माफियाओं द्वारा उच्च शिक्षा के साथ एवं आम छात्रों के साथ हो रहे इस अपमानजनक कार्यवाही से आजिज आकर पूर्वांचज के इन कालेजों के शिक्षकों, छात्रों एवं सामाजिक संगठनों तथा कार्यकर्ताओं द्वारा इस साजिश के खिलाफ एक मजबूत जनान्दोलन खड़ा करने का प्रयास किया जा रहा है। इसी क्रम मंे मार्च माह के अंत से गोरखपुर कमिश्नर कार्यालय पर अनिश्चित कालीन धरना प्रदर्शन किया जा रहा है। लेकिन अभी तक विश्वविद्यालय प्रशासन, कमिश्नर तथा जनप्रतिनिधियों तक ने इस सामाजिक मुद्दे पर नजर डालने तक की कोई जरूरत नही समझी है। सामाजिक कार्यकर्ताओं व शिक्षकों का यह आन्दोलन कालेजों के अलावा शिखा के निजीकरण की कार्यवाही तथा शिक्षा पर नवउदारवादी हमलों के विरूद्ध एक जनगोलबन्दी करने की ओर अग्रसर है। आन्दोलनकारियों का मानना है कि पूर्वांचल समेत देशभर में उच्च शिक्षा की जो बदत्तर स्थिति है उसके लिए सरकार की उदारीकरण, निजीकरण व वैश्वीकरण की नीतियां ही मुख्य रूप से जिम्मेदार हैं। ऐसे में इन सभी समस्याओं का स्थायी समाधान इन जनविरोधी नीतियों के खिलाफ खड़ा किये गए जनप्रतिरोध से ही किया जा सकता है। तभी हम एक उच्च शिक्षित युवा पीढ़ी के निर्माण के साथ-साथ एक सभ्य समाज का निर्माण कर सकते है

Wednesday, March 17, 2010

जनपक्ष: शलाका को तमाचे के लिये आभार!

केदार जी…सच मानिये इस एक पुरस्कार को लौटा के आपने हमें वह ख़ुशी दी है जो सारे संकलनों को कई-कई बार पढ़कर नहीं मिलती। पहले पुरुषोत्तम अग्रवालने जब इस पुरस्कार को न लेने की घोषणा की तो ग्वालियर का रहवासी होने पर फ़क्र हो आया था…अब आपके निर्णय के बाद मूलतः पूरबिहा होने पर भी फ़क्र हो रहा है। विमल कुमार , प्रियदर्शन,रेखा जैन, पंकज सिंह, गगन गिल सहित सात साहित्यकारों के भी यही निर्णय ले लेने पर साहित्य-संस्कृति ग्राम के (नान रजिस्टर्ड सही) नागरिक होने के नाते सर ऊंचा हो गया।
सच कहुं तो कृष्ण बलदेव बैद कभी मेरे प्रिय लेखक नहीं रहे। परंतु उनकी अपनी एक शैली है, एक विशिष्ट भाषा और अपनी एक सबलाईम स्टाईल। चीज़ों को देखने का उनका नज़रिया क्रांतिकारी भले न हो लेकिन आधुनिक तो है ही।
अब यह एक विडंबना ही है कि उन्हें परखने का काम एक घोषित भांड को दिया गया है अब अश्लील चुटकुलों पर ठहाका लगाने वाले और अंग्रेज़ीदां राजनैतिक 'विद्वान' ( जिनके कहे हिंद स्वराज गांधी ने नहीं हाथरसी भांड ने लिखी थी) करेंगे तो उन्हें वह अश्लील और दोयम दर्ज़े के लगेंगे ही। सैमसंग से पुरस्कार लेने को आतुर हिन्दी बिरादरी के कलकतिया और दिल्लीवासी लेखकों को चुप रहकर उनकी हां में हां मिलाते देखना अब बुरा भी नहीं लगता। लेकिन जीवन भर रेडिकल विचारों का दामन थामे लोगों को उन्हीं से सम्मानित होते देख ज़रूर बुरा लग रहा था। अब इस निर्णय के बाद चैन आया है।
हम स्वागत करते हैं इन सब लेखकों का और इनका पुष्पहार-पैसा-प्रशस्तिपत्र के बिना हार्दिक सम्मान करते हैं

Sunday, March 14, 2010

बेवफा बता बद दुआ देता है वो,और मैं उसके लिए मंदिर मंदिर धोक खाता रहा। -----बिन बुलाये वक्त बेवक्त चला आता था,अब तो मुड़कर भी ना देखा मैं आवाज लगाता रहा। ----एक सुरूर था दिलो दिमाग पर अपना है वो,देखा जो गैर के संग तो नशा उतर गया।

Friday, March 12, 2010

बात तो कुछ भी ना थी

----- बात तो, कभी भी कुछ भी ना थी, मैं तो बस यूँ ही मुस्कुराता रहा, अपनों को खुश रखने के लिए अपने गम छिपाता रहा। ----- मेरे अन्दर झांकने वाले गुम हो गए दो नैन, कौन सुनेगा,किसको सुनाऊं कैसे मिले अब चैन।

Monday, March 1, 2010

रंगो का त्यौहार मुबारक

होली है भई होली है...... बुरा ना मानो होली है....... रंग लगा दो होली है..... ख़ुशियाँ मना लो होली है..... गले मिल लो होली है...... शोर मचा लो होली है..... मैं भी खेलनी होली है..... मेरी तरफ से आप सभी को होली की शुभकामनाएं........

Sunday, February 21, 2010

सखियाँ खेलन को आई बन के सजना, मैं ना खेलूंगी तुम संग करो मोहे तंग ना। ---- साजन के रंग में रंगकर साजन की हो ली, तू तो हो गई री जोगन खेले ना होली। ---- घर घर धमाल मचाए सखियों की टोली, साजन परदेश बसा है कैसी ये होली।

Saturday, February 20, 2010

साजन का संग ना

सखियाँ रंगों में हो ली संग है सजना, मेरी होली तो हो ली साजन का संग ना। ---- रंगों में भीगी सखियाँ मुझसे यूँ बोली, साजन के संग बिना री काहे की होली। ---- हाथों में ले पिचकारी आई मेरी सखियाँ, साजन की राह निहारे मेरी सूनी अखियाँ ।

Friday, February 19, 2010

फाल्गुन में प्यारा लागे

फाल्गुन में प्यारा लागे मोहे मोरा सजना, उसके बिना री सखी काहे का सजना। ---- कानों में मिश्री घोले चंग का बजना, घुंघरू ना बजते देखो बिन मेरे सजना। ---- रंगों के इस मौसम में भाए कोई रंग ना, फाल्गुन बे रंग रहा री आये ना सजना।

Thursday, February 18, 2010

---- चुटकी---- पी ओ के वालो लौट के आओ, कश्मीरी पंडित भाड़ में जाओ।

Wednesday, February 17, 2010

देश पर नक्सली हमला

प.मिदनापूर में ईएफआर जवानों पर हुए नक्सली हमले ने एक बार फिर नक्सलियों की कथनी और करनी के बारे में देश को बता दिया है.......इस हमले के बाद कौन कह सकता है की नक्सली अपने हक की लड़ाई लड़ रहे है......अगर अपनी हक की लड़ाई इसी तरह से लड़ी जाती तो कई महापुरुषों का नाम आज इतिहास के पन्नों में दर्ज ना होता.......कई सालों पहले जब नक्सली अंदोलन शूरु हुआ तो उसकी सोच और मकसद कुछ और था......उस समय वह उस तबके की अवाज को उठाने के लिए शुरु हुआ जिनकी अवाज़ सुनने वाला कोई नहीं था......लेकिन आज का नक्सल आंदोलन पूरी तरह से अपनी दिशा से भटक चुका है.......कहते है नक्सल सरकार द्वारा शुरू किए गए ओपरेशन ग्रिन हंट से खिन्ने हुए है और इसी के चलते वह इस तरह की घटना को अंजाम दे रहे है........लेकिन क्या नक्सली कभी सोचते होंगे की आज इसकी नोबत क्यों आई की सरकार को उनके खिलाफ यह ओपरेशन शुरु करना पड़ा.....नक्सलियों की सोच चाहे जो भी हो लेकिन उनके इस तरह के हमले को किसी भी सूरत में बर्दाशत नहीं किया जा सकता......उन्होंने मारे गए जवानों के परिवार के लोगों को जो जख्म दिए है उन एक एक जख्म का हिसाब उनसे लिया जाना चाहिए.......मै चाहूंगा जो मेरे इस लेख को पड़े वो Indian Express(Wednesday Edition) की हेडलाइन स्टोरी जरुर पड़े जिसमें एक जवान ने मरने से पहले अपनी जिंदगी की कुछ बातें अपनी डायरी में लिखी है.......

Monday, February 15, 2010

पुणे के जख्म

पूणे में हुए आतंकी हमले ने एक बार फिर पूरे देश को झकझौर के रख दिया है.....खास कर पूणे हमले में मारे गए बंगाल के एक ही परिवार के दो बच्चों की कहानी दिल दहला देने वाली है........उस परिवार ने कभी सोचा भी नहीं होगा की उनके बच्चों को उस गुनाह की सज़ा मिलेगी जो उन्होंने कभी किया ही नही.....आनंदी और अंकिक दोनों की तस्वीरों को देखकर लगता है कि किस तरह वो दोनों अपनी जिंदगी को भरपूर तरीके से जी रहे थे....शायद कभी उनके मन में यह ख्याल तक नहीं आया होगा की कुछ दिनों में उनकी जिंदगी का सफर खत्म होने वाला है........लेकिन उनकी मौत ने मेरे मन में कई सवाल खड़े किए है.....जर्मन बेकरी में हुए विस्फोट में आनंदी और अंकिक इस लिए मारे गए क्योंकि वो वहां मौजूद थे.....अगर उनकी जगह मैं होता तो शायद आज मैं यह लिख भी नहीं पाता.....शाहरुख की फिल्म माय नेम इज खान में शाहरुख की अम्मी ने उन्हें एक बात सिखाई थी कि इस दुनिया में दो ही तरह के लोग होते है अच्छे और बुरे..........आनंदी और अंकिक अच्छे थे इसलिए आज हमारे साथ नहीं है और वह आतंक जो इस तरह के कामो को अंजाम देते है वो शायद यह भी भूल गए है की वो इंसान है..........

Saturday, February 13, 2010

उत्सव और उसका आक्रोश!!!

उत्सव का नाम पहले भी सुना है मैंने। टेनिस खिलाड़ी रुचिका गेहरोत्रा को आत्महत्या के लिए मजबूर कर देने वाले हरियाणा के पूर्व पुलिस महानिदेशक एसपीएस राठौड़ पर छोटे से चाकू से हमला करने वाला उत्सव ऐसा क्यों कर बैठा, कोई नहीं समझ पा रहा। बनारस हिंदू विश्वविद्यालय की फाइन आर्ट्स फैकल्टी में बीएफए का यह गोल्ड मेडलिस्ट सबको याद है। गोल्ड मेडलिस्ट है तो बताने की जरूरत नहीं कि एक्स्ट्रा आर्डिनरी परफॉर्मेंस की वजह से उसे सब जानते थे। उसके साथियों को याद है कि उत्सव में जबर्दस्त कांफिडेंस था। वह खुलकर कहता कि मेरा नेशनल स्कूल आफ डिजाइन में चयन होगा और ऐसा हुआ भी। यह इंस्टीट्यूट भी कला के छात्रों का एक सपना होता है, खासकर एप्लाइड आर्ट स्टूडेंट्स के लिए। उत्सव ने वर्ष 2006 में एनीमेशन फिल्म डिजाइन के ढाई वर्षीय स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम में प्रवेश लिया और वहां भी रंग जमा लिया। इस बात का उदाहरण उसकी शार्ट फिल्म चाय ब्रेक का प्रतिष्ठित अवार्ड के लिए चयन हो जाना है। मेधावी छात्र का इस तरह की वारदात कर बैठना चिंता पैदा करता है। मनो चिकित्सक मां प्रोफेसर इंदिरा शर्मा के अनुसार, वह डिप्रेशन का शिकार था और अहमदाबाद में चार माह से उसका इलाज चल रहा था। एसोसिएशन आफ साइकियाट्रिस्ट इन यूएस की एक रिपोर्ट कहती है कि कलाकारों में डिप्रेशन के मामलों की संख्या ज्यादा होती है, विशेषकर फाइन आर्ट्स से जुड़े लोगों में। यह भी सच है कि कलाकार अधिक संवेदनशील भी होते हैं। उत्सव भी कलाकार है। पिता प्रो. एसके शर्मा बताते हैं कि वह कुछ दिन से न्याय-अन्याय की ज्यादा बातें करने लगा था। हम भी उद्वेलित होते हैं और रुचिका प्रकरण तो है ही ऐसा। पुलिस का एक अफसर उभरती हुई टेनिस खिलाड़ी को विदेश जाने से रोक लेता है। अभद्रता करता है और शिकायत न की जाए, इसके लिए परिवार पर जमकर दबाव बनाया जाता है। इससे ज्यादा बेशर्मी क्या होगी कि मुंह न खोलने देने के लिए भाई की गिरफ्तारी कर ली जाती है। आरोप लगाया जाता है कार चोरी का। यही नहीं, फिर हरियाणाभर में कार चोरी के मामलों में उसका नाम जोड़ा जाने लगता है। चंडीगढ़ के स्कूल से सिर्फ फीस लेट हो जाने पर रुचिका का नाम काट दिया जाता है। पिता और बाकी परिवार अघोषित नजरबंदी का शिकार बनता है और नतीजा, अभद्रता की शिकार चौदह साल की रुचिका आत्महत्या कर लेती है। चंद लाइनों में मैंने जो कहानी कहने की कोशिश की है, वास्तव में वह मन में आक्रोश का हजारों लाइनें पैदा कर देती है। एक अफसर और उसके सामने पूरे प्रदेश के पुलिस तंत्र का नतमस्तक हो जाना एवं नेताओं के साथ रिश्तों की बदौलत साथ ही उसे प्रोन्नति मिलते जाना, अकल्पनीय तो नहीं लेकिन शर्मनाक है। गण के इस तंत्र में गण ही कहीं गौण सा है और उसकी कहीं कोई सुनवाई नहीं। और तो और... पीड़ित परिवार को किसी तरह न्याय की उम्मीद बंधती है तो उसमें भी रोड़े डाल दिए जाते हैं। राठौड़ सजा सुनाए जाने के बाद भी आजाद है तो क्यों कोई उत्सव का आक्रोश न भड़के। बकौल प्रो. इंदिरा, उनके यहां कोई भी रुचिका के परिवार को नहीं जानता। ऐसे में उत्सव में जो आक्रोश पैदा हुआ, वह अन्याय की खबरें सुनकर हुआ। वह चंडीगढ़ में था, राठौड़ की पेशी और रुचिका कांड की खबरें वहां हवा में घुली हुई हैं तो वह कैसे बचता। जब पूरा देश प्रतिक्रिया में है तो चंडीगढ़ में तो यह स्थिति और भी तीव्र हो जाती है। जब आम मुजरिम को थर्ड डिग्री से नवाजने वाली पुलिस राठौड़ को किसी वीआईपी की तरह ट्रीट करे, जैसे वह अब भी उनका अफसर हो तो हिंदुस्तान में अपराधी के हिस्से आने वाली यह थर्ड डिग्री देने के लिए कोई उत्सव तो आएगा ही। वैसे, शुक्र अदा करने की बात यह है कि राठौड़ को सजा देने की तैयारी शुरू हुई है। उसकी पेंशन काटी जा रही है, हरियाणा के मुख्यमंत्री सख्त हैं। उत्सव उन भावनाओं का प्रतीक है जो रुचिका प्रकरण में हर आम भारतीय के मन में घुमड़ रही हैं लेकिन बाहर नहीं आ पा रहीं। उत्सव के साथ शायद कानून नहीं होगा लेकिन भीड़ है तमाम भारतवासियों की। एक मेधावी छात्र के एकाएक अपराधी बन जाने की वजह जो है, उससे तो वह कानून से भी क्षमा का हकदार है। बहरहाल, कोर्ट ने उसे सशर्त जमानत पर छोड़ने के आदेश दे दिए हैं। http://kalajagat.blogspot.com

Sunday, January 24, 2010

----चुटकी---- क्रिकेट की मंडी में नहीं बिका पाकिस्तानी माल, ये कूटनीति है या कुदरत का कोई कमाल।

Saturday, January 23, 2010

जय हिंद,जय हिंद ,जय हिंद

हिन्दूस्तान के महान सपूत सुभाष चन्द्र बोस की आज जयंती है। नारदमुनि उनके कोटि कोटि जय हिंद कर उनको अपनी श्रद्धांजलि अर्पित करता है। इन्होने हिन्दूस्तान के लिए क्या किया, यह दुनिया जानती है। ये अलग बात है कि आज के ज़माने के नेता उनके बारे में हिन्दूस्तान के बचपन को कुछ बताना नहीं चाहते। उसके बाद तो फिर जय हिंद,जय हिंद, जय हिंद, जय हिंद ,जय हिंद,जय हिंद, जय हिंद, जय हिंद,जय हिंद,जय हिंद, जय हिंद, जय हिंद,जय हिंद,जय हिंद, जय हिंद, जय हिंद,जय हिंद,जय हिंद, जय हिंद, जय हिंद,जय हिंद,जय हिंद, जय हिंद, जय हिंद,जय हिंद,जय हिंद, जय हिंद, जय हिंद,जय हिंद,जय हिंद, जय हिंद, जय हिंद,जय हिंद,जय हिंद, जय हिंद, जय हिंद,जय हिंद,जय हिंद, जय हिंद, जय हिंद,जय हिंद,जय हिंद, जय हिंद, जय हिंद,जय हिंद,जय हिंद, जय हिंद, जय हिंद,जय हिंद,जय हिंद, जय हिंद, जय हिंद, हो जाएगी।

Wednesday, January 20, 2010

बसंत से सराबोर

तेरा जाना पतझड़ तेरा आना बसंत, मन एक कामनाएं अनंत। ---- बसंत से सराबोर हर उपवन, पतझड़ सा वीरान तेरा मेरा मन।

Monday, January 18, 2010

कामरेड का देह दान

मृत देह का दान सचमुच अनुकरणीय है। इस से मैडिकल के विद्यार्थी शोध करते हैं। कामरेड की देह भी कल दान कर दी जाएगी। भारतीय संस्कृति में तो जरा से दान का भी बहुत महत्व है, ये तो देह का दान है। लेकिन एक जिज्ञासा है कि क्या ज्योति दा की देह से शोध कार्य हो सकेगा? ऐसा कौनसा विद्यार्थी होगा जो ज्योति दा से अंजान हो। ऐसे में क्या कोई विद्यार्थी देह की चीर फाड़ कर सकेगा ? जैसी ही विद्यार्थी उनके निकट जायेंगे,उनमें उस देह के प्रति सम्मान,श्रद्धा,मान के भाव आ जायेंगें। क्योंकि वे जानते होंगें कि जिस देह को वे खोलने वाले हैं वह कौन था। हम शरीर को ही पहचानते हैं। आत्मा को नहीं। आत्मा,जिससे कोई वास्ता नहीं वह देह में नहीं है। शरीर के रूप में उसकी पहचान सबके सामने है। व्यक्ति,चाहे वह कोई भी हो, उसकी कमजोरी है कि अपनों के सामने उसके स्वभाव में थोडा बदलाव आता ही है।सामने जाना माना इन्सान हो तो फिर और भी भाव आते हैं। ज्योति दा की बात ही अलग है। उनके प्रति तो उनके विरोधियों के दिलों में मान सम्मान,आदर है। ऐसी स्थिति में ज्योति दा की यह इच्छा पूरी हो पायेगी कि उनकी देह शोध के काम आये। पता नहीं मैं गलत हूँ या सही,लेकिन प्रश्न है कि दिल,दिमाग से निकल नहीं रहा। कहीं ऐसा ना हो कि कामरेड की देह हॉस्पिटल में सबके देखने भर की " वस्तु" रह जाये। कामरेड को लाल सलाम।

Sunday, January 17, 2010

राजू गाइड को थैंक्स

देश में बड़ा सूर्यग्रहण है। इसलिए धर्मपत्नी ने सुबह ही बता दिया कि ग्रहण शुरू होने से मोक्ष तक घर से बाहर नहीं जाना। बेटे को स्कूल नहीं भेजा। कई अख़बारों में ग्रहण का समय देखा। उसके हिसाब से रसोई का काम निपटा दिया। मतलब अब चाय,पानी, भोजन, ग्रहण के समाप्त होने के बाद ही। क्या करें?चलो टीवी पर ग्रहण देखते हैं लाइव। बार बार चैनल बदल कर देखते रहे। कमरे का दरवाजा बंद, बाहर देखना नहीं। पत्नी जो धर्मपत्नी है,मन ही मन कोई पाठ करती रही। नजर बेटे पर थी। वह कसमसा रहा था। मैं खुद भी चैनल बदल कर तंग था। चैनल को बदलने के दौरान एक चैनल पर गाइड फिल्म दिखाई दी। सच में राजू गाइड ने ऐसा गाइड किया कि समय बीतता ही चला गया। बेटे को भी कुछ राहत मिली। फिल्म की बात शुरू हो गई। फिल्म में चित्तौड़ का किला देख पुराने दिन याद आ गये। सूरज का ग्रहण समाप्त हो गया,हमारी कैद। पत्नी ने खुद स्नान किया,बेटे को करवाया। मुझ पर गंगाजल छिड़का। तब कहीं जाकर घर की इस कैद से खुले में जाने की इजाजत मिली। इस कैद में राजू ने जो साथ दिया, उसका कोई जवाब नहीं। वरना मुझे पता नहीं, चैनल पर ग्रहण के बारे में और क्या क्या देखना,सुनना पड़ता। मगर अंत में ये नहीं देख पाया कि राजू का स्वामीपना गाँव में बरसात करवाने में सफल हुआ या नहीं। क्योंकि फिल्म पूरी नहीं देख सका। कई घंटे की कैद से छुट्टी के बाद खुद को खुले में जाने से नहीं रोक सका। चैनल ने मेरा इंतजार तो करना नहीं था। फिल्म ने ख़तम तो होना ही था, हो गई। फिर भी राजू गाइड को थैंक्स।

Friday, January 15, 2010

वरिष्ठ पत्रकार सैय्यद राजू को बधाई...

ब्रिटेन की महारानी विक्टोरिया की प्रेम कहानी पर लिखी ब्रिटिश लेखिका शरबनी बसु की चर्चित किताब "विक्टोरिया एण्ड अब्दुल" मे आगरा के वरिष्ठ पत्रकार सैय्यद राजू ने सहयोग किया है। इस सहयोग के लिये शरबनी ने किताब की भूमिका मे उनके नाम का ज़िक्र भी किया है। इस किताब को लन्दन मे लॉन्च किये जाने के बाद भारत मे भी उतारा गया है। इस किताब मे महारानी विक्टोरिया और अब्दुल करीम के प्रेम की वो अनछुई दास्तान है जो अब तक दुनिया से छिपी रही। इस किताब मे करीम का आगरा से सम्बन्ध और उनकी निशानियों का उल्लेख किया गया है। आगरा के वरिष्ठ पत्रकार सैय्यद राजू ने इस किताब में करीम से जुडे पहुलओं को जुटाया है। साथ यहां से सारी तस्वीरे भी शरबनी को मुहैय्या कराई हैं। इस काम के लिये सैय्यद राजू को 11 जनवरी को ब्रिटिश दूतावास मे आयोजित एक कार्यक्रम मे सम्मानित भी किया गया। राजू की इस उपलब्धि पर रंगकर्मी परिवार की बधाई। सैय्यद राजू से 9359937774 पर सम्पर्क किया जा सकता है।

Thursday, January 14, 2010

चुटकी

भारत की हाकी, क्या रह गया अब बताने को बाकी।

Tuesday, January 12, 2010

Sunday, January 10, 2010

आप मुझे अच्छे लगने लगे

साम्राज्यवादी शक्तियों ने आज देश की राजनीतिक विचारधारा, अर्थव्यवस्था एवं संस्कृति को किस प्रकार अपने काबू में कर रखा है कि जो पार्टी अपने को समाजवादी विचारक डॉक्टर राम मनोहर लोहिया की अनुयायी कहा करती थी वह कार्पोरेट समाजवाद के जाल में फंस कर साम्राज्यवादी प्रवत्ति के गुण दर्शा रही है तो वही बेनी प्रसाद वर्मा जैसे लोग जो अमर सिंह के समाजवादी पार्टी में बढ़ते हस्तक्षेप व अपनी उपेक्षा से छुब्ध होकर पार्टी छोड़ गए थे अब उन्ही अमर सिंह को अपने साथ आने की दावत कांग्रेस में दे रहे हैं और अमर सिंह अब उन्हें अच्छे लगने लगे। मुलायम सिंह पर समाजवादी विचारधारा का परित्याग कर अमर सिंह के कार्पोरेट समाजवाद के जाल में फंस कर चाल चरित्र बदलने का आरोप उनके पुराने साथी बेनी प्रसाद वर्मा लगा कर पार्टी से अलग हुए थे और कांग्रेस की गोद में बैठ कर उन्होंने मुलायम सिंह की पार्टी समाजवादी को प्रदेश में सत्ता से बाहर कर देने में अहम् भूमिका अदा की थी, आज वही बेनी प्रसाद वर्मा अमर सिंह को कांग्रेस में आने का न्योता दे रहे हैं । लोग शायद अनुमान नहीं कर पाए कि बेनी प्रसाद वर्मा ने जब कुरता धोती छोड़ सूट धारण किया तो केवल उनका तन का ढांचा नहीं बदला बल्कि उनके मन के विचारों में भी तब्दीलियाँ आ चुकी थी। जो नेता बाराबंकी में सड़कों पर पैदल चल कर बीड़ी पिया करता था अब वह विदेश निर्मित कारों एवं एयर कंडीशन कमरों में बैठ कर भला समाजवाद की बात कैसे करता ? अमर सिंह से भी समाजवादी पार्टी में उनकी रस्साकशी अपनी इसी बढती महत्वकांछा की प्रवृत्ति के चलते ही रही। साम्राज्यवादी शक्तियों ने किस प्रकार देश की समाजवादी विचारधारा रखने वाले या आम जनमानस के हितों का विचार रखने वाले राजनितिक दलों को छिन्न-भिन्न करने की योजना बनाई है उसका अनुमान इस बात से भली भांति लगाया जा सकता है कि आंध्र प्रदेश के कांग्रेसी मुख्य मंत्री राज शेखर रेड्डी जिनका प्रदेश को सूचना प्रद्योगिकी में आत्म निर्भरता एवं निपुणता की और ले जाने में बहुमूल्य योगदान था की हेलीकाप्टर दुर्घटना में हुई मौत महज एक हादसा न होकर एक साजिश थी जो रिलायंस इनर्जी एवं ऑयल कंपनी के बोर्ड ऑफ़ ड़ाईरेक्टर के सलाहकार की हैसियत से काम कर रहे एक अमेरिकी ने अंजाम दिलाई थी और जिसका खुलासा रूस के गुप्तचरों ने अभी हाल में किया तो पूरे आन्ध्र प्रदेश में तीव्र प्रदर्शन रिलायंस कंपनी के विरुद्ध हुए। चूँकि देश में कृषि के व्यवसाय को तहस नहस कर खाद्य पदार्थों में आत्म निर्भरता पर हमला करने की योजना साम्राज्यवादियों ने बना ली थी इसलिए आवश्यक था की समाजवादी विचारधारा का पहले नष्ट किया जाए बेनी प्रसाद वर्मा भी उसी साजिश का शिकार हुए अब वह स्वयं कार्पोरेट समाजवादी बन चुके हैं सो उन्हें अब अमर सिंह अच्छे लगने लगे हैं। -मो॰ तारिक खान

Friday, January 8, 2010

सब कुछ लुटा के होश में आए....

सपा के प्रभावशाली लीडर अमर सिंह ने दुबई में बैठकर पार्टी के सभी महत्वपूर्ण क्रमशः महामंत्री, प्रवक्ता एवं संसदीय बोर्ड की सदस्यता से इस्तीफा दे दिया। उनका यह इस्तीफा ऐसे समय पर आया है जब पार्टी के अन्दर से उनकी कार्यशैली के विरूद्ध बुजुर्ग समाजवादी लीडर ज्ञानेश्वर मिश्रा एवं पार्टी में सबसे समझदार माने जाने वाले डा0 राम गोपाल यादव के विरोध के स्तर फूटने प्रारम्भ हो गये थे और पार्टी मुखिया इस पर खामोश थे। वर्ष 1993 में आकर पार्टी के ब्राण्ड एम्बेस्डर का रोल निभाने वाले अमर सिंह ने चंद वर्षों के दौरान जिस प्रकार मुलायम सिंह के दिमाग पर अपना बंगाल का काला जादू चढ़ाया था, जहां से उन्होंने कांग्रेसी लीडर सिद्धार्थशंकर राम की छत्रछाया में राजनीति की ए0बी0सी0डी0 सीखी थी, उसके चलते सपा के सबके बाद एक दिग्गज नेता किनारे लगते चले गये। चाहे वह ज्ञानेश्वर मिश्रा हो या डा0 रामगोपाल यादव चाहे वह शफीकुर्रहमान बर्क रहे हों या सलीम शेरवानी, चाहे वह बेनी प्रसाद वर्मा रहे हो या आजम खां या राज बब्बर अन्त में मुलायम का हाल यह हुआ कि सारी खुदाई एक तरफ अमर प्रेम एक तरफ। मुलायम पर अमर सिंह का ऐसा नशा चढ़ा कि वह समाजवाद का पाठ भूलकर साम्राज्यवाद की डगर पर चल पड़े। उनके पुराने दोस्त जो लोहिया के विचारों के थे वह तो किनारे लग गये अनिल अम्बानी, अमिताभ बच्चन, सुब्रतराय जय प्रदा व जया बच्चन के साथ उनकी गलबहिएं बढ़ती गई। परिणाम यह हुआ कि लोहिया का समाजवाद बकौल वयोवृद्ध समाजवादी लीडर मोहन सिंह के वह काॅरपोरेट समाजवाद में तब्दील हो गया। मुलायम के वोट की दौलत लुटती गई और विदेशी बैंकों में उनकी दौलत में भण्डार बढ़ते गये। मुलायम सिंह की राजनीतिक बैसाखी दो प्रबल वोट बैंकों पर टिकी थी एक यादव दूसरा मुस्लिम जो उन्हें अपना सच्चा और खरा हमदर्द समझती थी और उनकी इसी छवि के कारण संघ परिवार के लोग उन्हें अपना कट्टर दुश्मन मान कर मौलाना मुलायम सिंह भी कहा करते थे। अमर सिंह ने मुलायम सिंह के चरित्र को ऐसा बदला कि अखाड़े का यह पहलवान जो कभी लंगोट का बेइंतेहा मजबूत माना जाता था, पर बदनामी के कई दाग लगने लगे। कभी फिल्मी तारिकाओं का लेकर तो कभी उनके मुख्यमंत्री कार्यकाल में उनकी निजी सचिव रही एक महिला आई0ए0एस0 अधिकारी के साथ उनकी करीबी रिश्तों को लेकर। कहते हैं कि जब किसी व्यक्ति का चरित्र कमजोर हो जाता है तो वह आत्मबल से कमजोर होकर नैतिक पतन के अंधकार में चला जाता है। मुलायम के साथ भी ऐसा ही होने लगा। उनके घर में उनकी छवि बिगड़ने लगी। पहली पत्नी की बीमारी और उसके बाद उनका देहान्त फिर उनके पुत्र अखिलेश से उनके रिश्तों में कड़वाहट मुलायम सिंह की मौजूदा पत्नी व अखिलेश के बीच मतभेद के पीछे भी बताते हैं अमर सिंह का ही अहम किरदार शामिल है। यही तक नहीं मुलायम सिंह के छोटे अनुज शिवपाल यादव, अखिलेश, डिम्पल वगैरह का एक ऐसा गुट अमर सिंह ने तैयार कर दिया कि मुलायम सिंह बिलकुल बेबस होकर अकेले रह गये मुलायम का अपना कोई स्वतंत्र निर्णय न हो पाता उनके ऊपर अमर सिंह का निर्णय ही सदैव हावी रहता। यहाँ तक कि बीते लोकसभा चुनाव में मुसलमानों में नफरत की निगाह से सदैव देखे जाने वाले कल्याण सिंह के साथ हाथ मिलाकर मुलायम ने अपने सबसे वफादार वोट बैंक मुस्लिम में भी हाथ धो लिया और इसी का लाभ उठाकर कांग्रेस ने अपने बरसों पुराने रूठे हुए मुस्लिम वोट बैंक को अपने घर वापसी कराने में सफलता प्राप्त कर ली। अमर सिंह की ही गलत नीतियों के चलते हपले शफीकुर्रहमान बर्क, सलीम शेरवानी और राजबब्बर जैसे वफादार नेता मुलायम का साथ छोड़कर गये फिर उनके सबसे पुराने साथी बेनी प्रसाद वर्मा व आजम खाँ भी उनसे रूठकर अलग हो गये। यह सभी अमर सिंह के ही घायल रहे और मुलायम के अमर प्रेम के ही चलते उनसे नाराज हुए। बेनी का तो भरपूर इस्तेमाल कांग्रेस ने करके सपा को ठिकाने लगाने के अतिरिक्त उ0प्र0 में अपने दोबारा सत्ता में आने की राह हमवार कर ली। और वह सपने भी संजोने लगी, वही आजम खा की बयानबाजी ने मुस्लिम वोटों को उनसे काफी दूर कर दिया। अमर सिंह ने मुलायम के हरे भरे राजनीतिक चमन में ऐसी आग लगाई कि उनके घर तक आग जा पहुंची। बताते हैं कि फिरोजाबाद में अखिलेश की पत्नी डिम्पल की हार की दुआ मुलायम की पत्नी कर रही थी तो वही पलटवार करते हुए मुलायम की पत्नी की पसंद के उम्मीदवार बुक्कल नवाब लखनऊ पश्चिम से विधान सभा उपचुनाव जो लालजी टण्डन के सांसद होने के पश्चात सपा के टिकट पर चुनाव लड़ रहे थे और जीत के करीब पहुंच गये थे कि अमर सिंह ने आकर एक ऐसा भड़काऊ भाषण इमाम हुसैन के हुसैनी लश्कर की तुलना अपने से करते हुए दिया कि बुक्कल नवाब का अपना स्वयं का शिया वोट बैंक उनसे रूठकर छिटक गया और सपा की जीती सीट मौके के ताक में बैठी कांग्रेस के पाले में चली गई। बुक्कल नवाब ने चुनाव बाद स्वयं यह बयान दिया था कि मेरी हार का कारण अमर सिंह है। समाजवादी पार्टी के दिन प्रतिदिन गिरते राजनीतिक ग्राफ का सीधा लाभ कांग्रेस को हो रहा था जहाँ उसका मुस्लिम वोट जाने को पर तोल रहा था तो वहीं भाजपा के कमजोर होने पर हिन्दू मतों का धु्रवीकरण भी कांग्रेस की ओर होना प्रारम्भ हो गया। उधर विधान सभा का चुनाव होने में मात्र सवा दो साल बचे थे ऐसे में मुलायम सिंह की पार्टी की राजनीतिक भविष्य पर ही प्रश्न उठने खड़े हो गये थे। सपा से बड़े पैमाने पर भगदड़ प्रारम्भ होने के आसार भी साफ दिखने लगे थे सो मुलायम के पास इसके अतिरिक्त कोई चारा नहीं था कि अमर सिंह से छुटटी पा ली जाए। इसीलिए सोंची समझी रणनीति के तहत उन्होंने डा0 रामगोपाल यादव को उन्होंने आगेकर अमर सिंह के विरूद्ध उन्होंने मोर्चा खुलवा दिया वह जानते हैं कि अमर सिंह एक भावुक व्यक्ति हैं वह अपमान सहकर पार्टी में नही रह पायेंगे सो अमर सिंह की प्रतिक्रिया मुलायम की उम्मीदों के करीब आयी हैं। उधर अमर सिंह ने पार्टी की सदस्यता ना छोड़कर इतनी गुंजाइश बाकी बचा ली है कि दोबारा पार्टी में आने की डगर जीवित रहे। मुलायम भी अध्ययन करना चाहते हैं कि अमर सिंह के पार्टी से किनारा करने की खबर पाकर उनके रूठे नेताओं की तरफ से उन्हें क्या संकेत मिलते हैं। समाजवादी का ऊँट किस करवट बैठेगा यह तो समय बतायेगा फिलहाल अमर सिंह के इस्तीफ से समाजवादी पार्टी के तेजी से होते नुकसान में थोड़ा ठहराव अवश्य आ जायेगा विशेष तौर पर मुस्लिम वोटों के पार्टी से जाते कदम रूक सकते हैं। परन्तु मुलायम सिंह को अपनी पुरानी छवि पाने में लोहे के चने चबाने होंगे क्योंकि सब कुछ लुटाने के बाद वह अब अपने होश में आने की तैयारी कर रहे हैं। मो॰ तारिक खान

Tuesday, January 5, 2010

बेनी प्रसाद का कांग्रेस में भविष्य

आजकल उत्तर प्रदेश में फिर बेनी प्रसाद वर्मा राजनीति की सुर्ख़ियों में हैं। कांग्रेस पार्टी से गोंडा के सांसद बेनी प्रसाद वर्मा ने अपने गृह जनपद बाराबंकी की राजनीति में अपना हस्तक्षेप न सिर्फ जारी रखा है बल्कि कांग्रेसी सांसद पुनिया से उनकी ठन गयी है। कारण स्थानीय निकाय के लिए विधान परिषद् सीट के चुनाव में उनका खुले आम बसपा प्रत्याशी को समर्थन का एलान करना और अपने इस निर्णय में कांग्रेस के राष्ट्रीय महामंत्री एवं प्रदेश प्रभारी दिग्विजय सिंह के नाम को घसीटने पर प्रदेश के कांग्रेसी इतने आग बबूला हो चुके हैं कि उनके निष्कासन की सिफारिश पी.सी.सी सदस्यों की तरफ से कांग्रेस आलाकमान को कर दी गयी है। समाजवादी तहरीक से पोषित हो कर राजनीति में अपना कदम रखने वाले बेनी वर्मा के राजनीतिक जीवन का आगाज चरण सिंह के लोकदल से हुआ जो अपनी चौधरी चरण सिंह स्टाइल की ऐंठ व बरर के साथ राजनीति में अपनी स्वार्थ की प्रवत्ति के लिए प्रसिद्ध थे। बेनी का फिर साथ हुआ उस मुलायम सिंह से जिन्होंने अपने कर्णधार विश्वनाथ प्रताप सिंह के साथ घात करके समाजवादी पार्टी का गठन वर्ष 1989 में किया। फिर कशीराम के साथ उनका गठबंधन 1992 मनें बाबरी मस्जिद विध्वंश के बाद हुआ परन्तु वह भी मात्र डेढ़ वर्षों में ढेर हो गया। उसके बाद बेनी प्रसाद वर्मा व मुलायम सिंह के रिश्तों में खटास समाजवादी पार्टी में अमर सिंह की आमद के बाद शुरू हुई जो अंत में 2007 के चुनाव से पूर्व बेनी के पार्टी से बागी होने के बाद पूर्णतया कड़वाहट में बदल गयी। बेनी ने अलग अपने दल का गठन समाजवादी क्रांति दल (एस.के.डी) कर के इंडियन जस्टिस पार्टी के साथ समझौता किया और पूरे प्रदेश में चुनाव लड़े परन्तु उन्हें जबरदस्त विफलता हाथ लगी यहाँ तक कि उनके गृह जनपद बाराबंकी में भी उनका सफाया हो गया उनका पुत्र एवं भूतपूर्व राज्य मंत्री राकेश कुमार वर्मा को भी अपने पिता की कर्म भूमि मसौली से शिकस्त खानी पड़ी। राजनीति में सब कुछ लुटाने के बाद बेनी प्रसाद ने कांग्रेस की डगर पर आ कर विराम किया और कांग्रेस ने उन्हें सम्मान देते हुए गोंडा से न सिर्फ टिकट दिया बल्कि देवीपाटन की लगभग सात सीटों का टिकट उनकी सलाह ले कर दिया। बेनी वर्मा खुद भी जीते और फैजाबाद बहराइच श्रावस्ती, सुल्तानपुर और महाराजगंज पर कांग्रेस को जीत दिलाई बाराबंकी में 1984 के बाद 25 साल के लम्बे अरसे बाद कांग्रेस को सफलता पुनिया की जीत के तौर पर मिली। इसमें कोई शक नहीं कि यदि बेनी की कुर्मी बिरादरी का समर्थन पुनिया को न होता और एक बड़ा बेस वोट बैंक पुनिया के पास न होता तो फिर पुनिया की सफलता की राह आसान न होती। उत्तर प्रदेश में कांग्रेस की सफलता का डंका भले ही बेनी वर्मा के लोग पीटते फिरें परन्तु कांग्रेस का केन्द्रीय नेतृत्व व प्रदेश कांग्रेस इसे राहुल का करिश्मा मानते हैं और सपा, बसपा व भाजपा से परेशान होकर ऊब चुकी जनता का पुन: कांग्रेस की ओर वापसी मान रहे हैं। उधर बेनी है कि आज भी अपने अड़ियल रवैये पर टिके हैं और उस पार्टी को आँख दिखा रहे हैं जिसके बारे में यह कहा जाता है कि वह राजनीति का महासागर है जिससे अलग होकर सभी दरिया निकले हैं चाहे वह भाजपा हो या समाजवादी, चाहे वह लोकदल हो या डी.ऍम.के , अन्ना डी ऍम.के चाहे वह तृणमूल कांग्रेस हो या राष्ट्रवादी कांग्रेस। यहाँ तक की भारतीय जनसंघ भी कांग्रेस के कोख से पैदा हुई पार्टी है. केवल कम्युनिस्ट पार्टियों को यह गौरव प्राप्त है कि उनका उदय कांग्रेस की कोख से नहीं हुआ। जहाँ तक कांग्रेस में बेनी वर्मा के भविष्य का प्रश्न है तो वह बहुत उज्जवल नजर नहीं आता क्योंकि बेनी प्रसाद वर्मा की राजनीतिक पृष्टभूमि स्वार्थ की राजनीति और अवसरवादिता की बैसाखी पर टिकी हुई है विचारों के आधार पर कभी भी उनकी समानता कांग्रेसियों से नहीं हो सकती. कांग्रेस ने वर्ष 2007 में यदि बेनी वर्मा के कंधे पर हाथ रखा तो उसका लक्ष्य मुलायम व उनकी पार्टी सपा को कमजोर करना था सो उन्होंने सफलता के साथ वह कारनामा अंजाम दिया। अब चूँकि 2012 का आपरेशन उत्तर प्रदेश का लक्ष्य अभी कांग्रेस को प्राप्त करना है इसलिए बेनी वर्मा के बडबोलेपन को वह बर्दाश्त कर रही है परन्तु अधिक समय तक नहीं। उधर बेनी वर्मा को भी एस.के.डी के प्रयोग के विफल हो जाने के पश्चात एक राजनीतिक छतरी की आवश्यकता थी सो वह उसके नीचे से आसानी से निकलने वाले नहीं जबतक उन्हें कोई नई छतरी न मिल जाए।
मो॰ तारिक खान

Monday, January 4, 2010

तेरी जुदाई का ग़म....

तमाम खुशियों पर भारी है तेरी जुदाई का गम, मिलने के सारे के सारे जतन पड़ गए कम, हो सके तो चले आना मेरी ओर, निकलने को है अब मेरा दम।

Sunday, January 3, 2010

मोहे आई न जग से लाज..........

महाराष्ट्र के मुंबई में माफिया ड़ॉन छोटा राजन के गैंग सरगना पालसन जोसेफ की (चेम्बूर जिमखाना क्लब) क्रिसमस पार्टी में पांच उच्च पदस्थ पुलिस अधिकारियों ने डांस ठुमके. शायद जीवन में उन्हें पहली बार अपराधियों के साथ खुलकर गठजोड़ जिंदाबाद करने से अत्यधिक उल्लास मिला होगा और उन्होंने पंकज उदास को मात करते हुए गाया होगा "मोहे आई जग से लाज, मैं इतना जोर से नाची आज , की घुंघरू टूट गये " पुलिस अपराधी गठजोड़ की यह छोटी मिसाल है अपराधियों ने राजनेताओं, पुलिस के उच्च से उच्चतम अफसर तक गठजोड़ बना लिया है अपराधियों ने न्यायिक अधिकारियो में भी निचले स्तर पर पहुँच बना रखी है जिससे आम जनता को इन गठजोड़ो के चलते कुंठा के अतिरिक्त कोई भी लाभ नहीं मिलने वाला हैठुमका लगाने वालों में स्पेशल ब्रांच के डिप्टी एस.पी वी एन साल्वे, चेम्बूर के .सी.पी प्रकाश वाणी, सीनियर पुलिस इंस्पेक्टर तुलसी दास खाकर, एंटी एक्सटॉर्शन सेल के अधिकारी खालटकर और कांस्टेबल सालुंखे प्रमुख हैंइसी तरह के गठजोड़ जिले स्तर पर, प्रदेश स्तर पर राष्ट्र के स्तर पर हैंविधयिका कार्यपालिका पर उनका कब्ज़ा बना रहता हैसुमन loksangharsha.blogspot.com

Saturday, January 2, 2010

विधि में संसोधन कोई विकल्प नहीं है

रुचिका प्रकरण के बाद विधि मंत्रालय से लेकर आम जनता तक पूर्व पुलिस महानिदेशक श्री रठौड़ को कम सजा दिए जाने को लेकर एक बहस प्रारंभ हो गयी है सरकार बगैर सोचे समझे जनता की भावनाओ के दबाव में विधि में संशोधन कर रही है जिसका कोई औचित्य नहीं हैन्यायलयों में अभियोजन पक्ष की नाकामियों के लिए विधि को दोषी नहीं ठहराया नहीं जा सकता हैन्यायलयों की कार्यवाहियों में अभियोजन पक्ष की महत्वपूर्ण भूमिका होती है अभियोजन पक्ष सम्बंधित राज्य सरकार के प्रति उत्तरदायी होता हैव्यवहार में मजिस्टे्ट ट्रायल में सहायक अभियोजन अधिकारी सरकार के पक्ष की तरफ से अधिवक्ता होते हैंजो दोनों पक्षों से लाभान्वित होते हैं पीड़ित पक्ष को उनको खुश करने के लिए कोई समझ नहीं होती है इसलिए अभियोजन पक्ष न्यायलयों में बचावपक्ष से मिलकर सही प्रक्रिया नहीं होने देता हैजब कोई अपराधिक वाद किसी भी थाने में दर्ज होता है तो कुछ अपराधों को छोड़ कर सभी अपराधों की विवेचना सब इंस्पेक्टर करता है जिसकी निगरानी के लिए डिप्टी एस.पी, एड़ीशनल एस.पी, एस.पी, एस.एस.पी, डी.आई.जी, आई.जी, अतिरिक्त पुलिस महानिदेशक और पुलिस महानिदेशक होते हैंइतने महत्त्वपूर्ण अधिकारीयों की देख-रेख में हो रही विवेचना का स्तर बहुत घटिया स्तर का होता है इन अधिकारीयों की मद्दद के लिए सहायक अभियोजन अधिकारी, अभियोजन अधिकारी, विशेष अभियोजन अधिकारी सहित एक विशेष कैड़र अभियोजन का होता हैवर्तमान में इनकी भूमिका का स्तर भी बहुत ही निकिष्ट कोटि का होता है. वर्तमान भारतीय समाज में फैले भ्रष्टाचार की गंगोत्री में स्नान करने के बाद सजा की दर क्या हो सकती है आप सोच सकते हैंगंगा अगर मैली है तो स्नान के बाद चर्म रोग निश्चित रूप से होना है उसी तरह अभियोजन पक्ष भ्रष्टाचार की गंगोत्री में हर समय स्नान कर रहा है तो क्या स्तिथि होगी? इसलिए आवश्यक यह है की इस भ्रष्टाचार को अगर दूर कर दिया जाएहजारों लाखों रुचिकाओं को न्यायलय में आने की आवश्यकता ही नहीं पड़ेगीविधि में संशोधन की आवश्यकता नहीं है जरूरत है उसको लागू करने वाली एजेंसियों में सुधार की जिसके लिए कोई सरकार तैयार नहीं हैसुमन loksangharsha.blogspot.com

Friday, January 1, 2010

कैसे मिले गरीब को रोटी ?

नव वर्ष के शुभारम्भ पर आज यह सोचने की आवश्यकता है कि लाखो-करोडो गरीब व्यक्तियों को रोटी कैसे मिले ? केंद्र सरकार द्वारा सस्ते दामों पर खाद्यान सार्वजानिक वितरण प्रणाली के तहत उपलब्ध कराया जाता है खाद्यान्न सरकारी एजेंसी से उठने के बाद सीधे सार्वजानिक वितरण प्रणाली की दुकान पर बिक्री हेतु जाना चाहिए लेकिन वस्तुस्तिथि यह है कि आपूर्ति विभाग के अधिकारियों, विपणन वाली सरकारी एजेंसी, पुलिस, प्रशासनिक अफसर, व्यापारी जिसमें फ्लोर मिल्स राईस मिल्स के मालिकों का एक गठजोड़ बन गया है जिसके कारण विपणन एजेंसी से गेंहू या चावल फ्लोर मिल या राईस मिल को वापस हो जाता है और वह महंगे दामो पर बाजार में बिकने के लिए जाता हैआम आदमी को सरकार द्वारा प्रदत्त सस्ते खाद्यान्न उपलब्ध नहीं हो पाते हैं . गाँवों शहरों में बहुत सारे परिवार भूखे पेट सो जाते हैं इस गठजोड़ के लोग लाखो और करोडो रुपये कमा रहे हैंइस गठजोड़ ने स्थानीय स्तर पर पत्रकारों को भी मिला रखा होता है ताकि पब्लिसिटी होने पाएआज नव वर्ष के शुभारम्भ पर हम आप से आशा करते हैं कि कोई ऐसा कदम उठाया जाए की जिससे यह गठजोड़ टूटे और आर्थिक अपराधी जिनकी जगह कारागार होनी चाहिए वहां पहुंचेवैसे आर्थिक अपराधियों ने देश में समान्तर अर्थव्यवस्था कायम कर रखी है जिससे लाखो करोडो व्यक्तियों के मुंह का निवाला भी यह लोग छीन कर स्वयं खा ले रहे हैंनए वर्ष यह संकल्प होना चाहिए कि आर्थिक अपराधियों के खिलाफ कठोर कार्यवाही करवाने में मेली मदद्गार बने अन्यथा नया वर्ष आया, समाप्त हुआ -यह प्रक्रिया चलती रहेगी। सुमन loksangharsha.blogspot.com

सुरक्षा अस्त्र

Text selection Lock by Hindi Blog Tips