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Sunday, February 27, 2011

सौ अफसाने ,सौ बहाने

बेशक, शहर की चर्चाओं में तेरे-मेरे सौ अफसाने हैं, पर मिलने के भी तो मेरी जां सौ बहाने हैं

Friday, February 18, 2011

--- चुटकी---

मजबूर नहीं मजबूत प्रधानमंत्री लाओ, अरे! कोई तो ये बात सोनिया को समझाओ।

Thursday, February 17, 2011

आप नहीं हम मजबूर हैं

श्रीगंगानगर- "पापा इतने बिजी होते हैं कि हमें उनसे मिलने के लिए सुबह छः बजे उनके पास पहुंचना पड़ता है। उसके बाद उनसे दिन भर मुलाकात नहीं हो सकती।" यह बात देश के मजबूर प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की बेटी दमन सिंह ने जयपुर में एक पत्रकार से कही थी। ये बात यहाँ लिखना इसलिए जरुरी हो गया कि मीडिया प्रधानमंत्री की मज़बूरी को प्रेस कांफ्रेंस बता रहा है। जबकि ऐसा है नहीं। वह तो तरस खाकर प्रधानमंत्री ने संपादकों को ओब्लाइज कर दिया अपने साथ बैठाकर। वरना उनके पास समय ही कहाँ है देश की बात सुनने का। मनमोहन सिंह ने तो दिल खोलकर कह दिया कि मैं मजबूर हूँ। उन्होंने सौ मजबूरियां गिना दी। संपादक तो यह भी नहीं कह सके। ऐसे मजबूर प्रधानमंत्री के साथ बात करने की उनकी पता नहीं क्या मज़बूरी थी। संसार के सबसे शानदार,दमदार,जानदार लोकतंत्र के लिए विख्यात भारत के प्रधानमंत्री बार बार ये कहे कि वो मजबूर हैं, मजबूर हैं। इस से ज्यादा बड़ी बात और क्या हो सकती है। ये तो सब जानते और समझते हैं कि जब समाज में कोई बार बार ये कहता है कि मैं मजबूर हूँ तो हर कोई आपको यही कहता सुनाई देगा--चलो छोड़ो यार बेचारा मजबूर है। देश का आम आदमी तो आज मजबूर है किन्तु ताकतवर देश का प्रधानमंत्री ये कहे कि वो मजबूर है तो फिर कोई क्या कर सकता है। दिमाग तय नहीं कर पा रहा कि मजबूर प्रधानमंत्री की इस मज़बूरी पर हँसे,रोए,अफ़सोस करे या ईश्वर से उनकी मज़बूरी दूर करने की प्रार्थना करे। देश इस बात पर विचार तो करे कि प्रधानमंत्री की क्या मज़बूरी हो सकती है। जिस देश का प्रधानमंत्री ही मजबूर है तो उस देश का क्या होगा? कौन उसकी बात को मानेगा,सम्मान करेगा,गंभीरता से लेगा। मजबूर प्रधानमंत्री से बारी बारी से एक सवाल पूछ कर या अपना परिचय दे कर देश के मीडिया का प्रतिनिधित्व करने वाले टी वी चैनलों के संपादकों/मालिक को कुछ कहना सूरज को दीपक दिखाना है। कैसी विडम्बना है कि प्रधानमंत्री अपने आप को मजबूर बता कर एक समान रहम की भीख मांग रहा है। "हे! संपादकों मेरी मज़बूरी समझो। मेरा साथ दो। मैंने मक्खन नहीं खाया। मैं तो मजबूर हूँ मक्खन खा ही नहीं सकता। कोई खा रहा है तो उसको रोक नहीं सकता। क्योंकि मैं मजबूर हूँ। चूँकि मैं मजबूर हूँ इसलिए दया,रहम को हकदार हूँ।" मनमोहन सिंह जी आप तो क्या मजबूर हैं , मजबूर तो हम हैं जो आपको ढो रहे हैं। देश की इस से बड़ी मज़बूरी क्या होगी कि वह सब कुछ जानता है इसके बावजूद कुछ नहीं कर पा रहा। एक लाइन में यह कि हमारा दुर्भाग्य तो देखो कि हमारा प्रधानमंत्री खुद अपने आप को मजबूर बता रहा है। जिस देश का प्रधानमंत्री मजबूर हो उस देश की जनता की मज़बूरी का कोई क्या अंदाजा लगा सकता है। मजबूर के शब्द हैं-अब तुम ही कहो क्या तुमसे कहें, वो सहते हैं जो सह नहीं सकते।

Sunday, February 13, 2011

--- चुटकी--- मंदिर हमने बना दिए शर्द्धालुओं की लगी कतार , खाली झोली लौट गए सब मंदिर हुए व्यापार

Thursday, February 10, 2011

सच्चाई की जीत होती है। सच से बड़ा कोई नहीं। सच कभी नहीं हारता। सदा सच ही बोलो। ये वाक्य मास्टरों से लेकर घर के बड़ों से सुनते आये हैं। सद्पुरुष भी यही कहते हैं। शास्त्रों, ग्रन्थों में भी ऐसा ही लिखा हुआ है। अगर किसी ने इस सच्चाई का सामना ना किया हो तो वह चुटकियों में रूबरू हो सकता है। अशोक स्तम्भ! कौन नहीं जानता! सरकार का राज चिन्ह। संवैधानिक पदों का प्रतीक। इसके नीचे लिखा हुआ है, सत्य मेव जयते! ये हमने या आपने नहीं लिखा। सरकार ने लिखा। आज तक लिखा रहता है। भारतीय नोटों पर भी यही अंकित है। परन्तु व्यवहार में सबकुछ इसके विपरीत है। दो और दो को चार कहना अपने आप को संकट में डालना है। आप से सब कुछ नहीं तो बहुत कुछ छीना जा सकता है। यही तो हो रहा है आमीन खां के साथ। कांग्रेस कल्चर को सहज भाषा में बताना,कार्यकर्ताओं को समझाना उनके लिए परेशानी का सबब बन गया। उन्होंने उदाहरण देकर अपनी बात में वजन डाला। यही वजन अब उनसे, उनके आकाओं से सहन नहीं होगा। सरकार आजादी के बाद से जिस सत्य मेव जयते का ढिंढोरा पीट रही है वही सत्य आमीन खां के लिए चिंता का कारण बन गया। जिस सत्य को संवैधानिक पद के लिए अशोभनीय टिप्पणी बताया जा रहा है उसी संवैधानिक पद के प्रतीक अशोक स्तम्भ के नीचे हमेशा से लिखा हुआ है -सत्य मेव जयते। तो क्या यह गलत लिखा हुआ है। संवैधानिक पद सत्य मेव जयते से भी बड़ा हो गया! या इस पद पर विराजमान इन्सान के पास सत्य का सामना करने की ताकत नहीं। मुख्य सतर्कता आयुक्त भी तो संवैधानिक पद है। श्री थामस कौनसी संवैधानिकता का निर्वहन कर रहे हैं? आमीन खां का बयान सत्य है तो उनको सजा क्यों मिले! पद से वो लोग हटें जिन्होंने चरण चाटुकारिता के जरिये पद प्राप्त किये हैं। इसमें भी कोई दो राय नहीं कि सच की अपनी गरिमा होती है। सच कहाँ,किसके सामने,किसके लिए,किस बारे में,कब कहना है, यह बहुत ही महत्वपूर्ण होताहै। कोई सच चारदीवारी में ही सबको अच्छा लगता है। यही सच बाहर आते ही अफसाना बनते देर नहीं लगाता। यही हुआ आमीन खां के साथ। किसने किस की रसोई में काम किया और किसने लड़की शादी में झूठे बर्तन साफ़ किये। ये सब आपसी सम्बन्धों पर निर्भर करता इन रिश्तों को महसूस किया जाता है,उजागर नहीं। क्योंकि इसको सब जानते ही होतेहैं। सहज भाषा में आमीन खां ने एक सच कहा और आज वह उनके लिए भारी पड़ गया। उनको पता होता कि मेरे साथ ऐसा होगा तो वे कभी इस बारे में कुछ नहीं कहते। वैसे आजकल सच बोलने वाले हैं ही कितने! सच सुनने वालों की संख्या भी ऐसी ही होगी। हकीकत तो ये कि सच सुनने की हिम्मत नहीं रही इसलिए बोलने वाले भी नहीं रहे। कभी किसी की जुबां से गलती से सच निकल भी जाये तो उसको निगलना मुश्किल हो जाता है। यही हुआ आमीन खां के साथ और यही हो रहा है उसके बाद। पंजाबी में किसी ने कहा है --इन्ना सच ना बोलीं कि कल्ला रह जावें, चार बन्दे छड्ड देंवी मोड्डा देण लई।

Tuesday, February 8, 2011

जुग जुग जियो पुलिस के लाल

श्रीगंगानगर-देश -विदेश के नेताओं की तरफ फैंके गए सभी जूतों को प्रणाम और मायावती की "खडाऊं" को वंदना। मुख्यमंत्री मायावती के जूते एक अफसर ने साफ़ क्या कर दिए मीडिया में हल्ला मच गया। जैसे अफसर ने राजकीय मेहमान कसाब जैसा कोई गुनाह कर दिया। उसकी मज़बूरी तो किसी को दिखाई नहीं दी। नौकरी करनी है तो ऐसा करना ही पड़ता है। सबके सामने जूते पर रुमाल या कपड़ा मार दिया तो अफसाना बन गया,क्या पता अन्दर पालिश भी करनी उसकी मज़बूरी हो। फिर अफसर ने किसी ऐरेगेरे नत्थू खेरे के जूतों के तो हाथ नहीं लगाया। अफसर का सौभाग्य है कि उसे इस युग में ऐसी महिला के जूते चमकाने का मौका मिला जो देश के दलितों की किस्मत चमकाने के लिए अवतरित हुई है। अवतार रोज रोज इस धरा पर नहीं आते। पता नहीं कितने ही सद्कर्मों के उपरांत इस अफसर को इस अलौकिक आत्मा रूपी मायावती के जूते चमकने का अवसर मिला होगा। धन्य हो गया उसका जन्म। बडभागी है उसका परिवार। भाग्यशाली हैं वे लोग जो उस अफसर को जानते हैं,उस से मिलते हैं, उसके साथ रहते हैं। मीडिया कुछ दिखाए और लिखे। हे ! अफसर आपको विचलित नहीं होना है। जब भी इस प्रकार की सेवा मिले तुरंत करना। महान आत्माओं की निष्काम सेवा, चाकरी से बढ़कर इस कलयुग में और कुछ नहीं है। ऐसी चरण चाकरी से ही तुझे इस संसार में आगे बढ़ने के ढेरों मौके मिलेंगे। अगर तू आलोचनाओं से घबरा गया, भटक गया तो कल्याण नहीं होगा। मोक्ष को तरस जायेगा। माया तो क्या किसी भिखारी के जूते भी हाथ लगाने को उपलब्ध नहीं होंगे। हे! पुलिस अधिकारी तू तो मिसाल है विनम्रता की,सेवा भावना की। पुलिस वाले तो अपने जूते साफ़ करवाने के मास्टर होते हैं। तूने एक दलित महिला के जूते साफ़ कर देश की तमाम पुलिस का सर गर्व से ऊँचा कर दिया। ये साबित कर दिया कि पुलिस कितनी कर्तव्य परायण है। हे! अफसर तूने दिखा दिया कि हम ताकतवर के जूते चमकाने में कोई जलालत महसूस नहीं करते। आज गोपी फिल्म का यह गाना सार्थक हो गया-चोर उचक्के नगर सेठ और प्रभु भगत निर्धन होंगे,जिसके हाथ में होगी लाठी भैंस वही ले जायेगा। हे!अफसर ऐसी विनम्र निष्काम सेवा को देख कर पुलिस तुझे अपना आदर्श मानेगी। हो सकता है जलोकडे किस्म के पुलिस वाले , जिनको इस सेवा के काबिल नहीं समझा गया, आपसे बैर रखे। आपके काम में बाधा डालने की की कोशिश करे। पर हे!महान पुलिस अधिकारी तुमको इनकी ओर ध्यान नहीं देना। ऐसे कलयुगी प्राणी तेरी इस अनोखी तपस्या को भंग करने का प्रयत्न कर सकते हैं। क्योंकि ये खुद तो सेवा कर नहीं सकते कोई करे तो इनके पेट में दर्द होने लगता है। ऐसे ना समझ प्राणियों के प्रति दिल में कोई भेद मत रखना। हे! अफसर अब तेरा स्थान इस सबसे से ऊपर बहुत ऊपर है। आप कोई साधारण इन्सान हो नहीं सकते। इतनी महान सेवा के लिए संसार में कोई नोबल,आस्कर होता तो वह आज आपके पास आकर गौरवान्वित हो जाता । देश की पुलिस संभव है कोई नई शुरुआत करके इतिहास में नया पन्ना जोड़े। हे ! अफसर आपके नाम, काम के बिना तो भारत का आधुनिक इतिहास पूरा ही नहीं हो सकता। उस दिन इस देश की शिक्षा में चार चाँद लग जायेंगे जब आपकी सेवा के तराने हर शिक्षण संस्था में गर्व से गए जायेंगे। मजबूर का शेर है--आदत है ज़माने कि दिल रखने की,कह दे जो साफ वो मेहरबां अच्छा।

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