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Thursday, October 18, 2007

शुक्रिया

परवेज़, निमन्त्रण के लिये शुक्रिया. उम्मीद है कि ये मंच रंगकर्मियों के लिये कुछ अच्छा करने में मददगार साबित होगा. गौरव

Thursday, October 11, 2007

Main Udas Rasta Hon Sham Ka

Main उदास Rasta Hon Sham Ka, Mujha Ahaton Ki Talash Hai, Ye sitare hain sab bujhe bujhe, Mujhe jugnuon ki talash hai, Har khushi hai mujh se khafa khafa, Mujhe zindagi ke talash hai, Ek hajoom sa hai rawan dawan, Mujhe doston ki talash hai, Mere zindagi hai bas ek rasta, Mujhe manzilon ki talash hai, Na jane kya hai jo kho gaya, Muje shaid apni talash hai…………

Wednesday, October 10, 2007

रंग यात्रा...

बीसवीं शताब्दी का हिन्दी नाटक और रंगमंच अपने-आप में बहुत बड़ा कैनवास है। इस लम्बे काल की नाट्य-यात्रा में बहुत सारे उतार-चढ़ाव और कई दिलचस्प मोड़ आये हैं। एक ओर हमारी समृद्ध नाट्य-परम्पराएँ और दूसरी ओर युग-परिवर्तन की माँग के कारण पश्चिम से आते आधुनिक प्रभावों और प्रवृत्तियों का यह क्रान्तिकारी समय है। इस लम्बी यात्रा में नाट्यशास्त्र, लोकनाट्य, पारसी नाटक, असंगत नाटक, यथार्थवादी नाटक, नुक्कड़-नाटक आदि विभिन्न प्रवृत्तियों और रंग-प्रयोगों की विविधता और जटिलता के साथ नाटक और रंगमंच दोनों ने अपने-अपने रास्ते तलाशे। हम सब जानते हैं कि हिन्दी में नाटक और रंगमंच के सम्बन्ध बने, टूटे, उलझे और फिर दोनों अलग-अलग जा पड़े। हमारी समृद्ध और ठोस नाट्य परम्परा होते हुए भी नाट्यसाहित्य और रंगमंच दोनों की स्थिति बहुत सीधी और सुगम नहीं रही। सारे उन्मेष के बीच भी द्विविधा-ग्रस्त स्थिति और अनवरत खोज का क्रम चलता रहा। नये-नये प्रयोगों के लिए उत्सुक मन के उत्साह के कारण यह तो निश्चित है कि न नाटककार के मन में, न रंगकर्मी के मन में कोई निश्चित अवधारणा बन पायी और न प्रतिमान निश्चित हो पाये।संस्कृत के महान नाटककार कालिदास ने अपने नाटक ‘मालविकाग्निमित्र’ में अत्यन्त मनोहर नृत्य-अभिनय का उल्लेख किया है। वह चित्र अपने में इतना प्रभावशाली, रमणीय और सरस है कि समूचे प्राचीन साहित्य में अप्रतिम माना जाता है। ‘मालविकाग्निमित्र’ नाटक में दो नृत्याचार्यों में अपनी कला निपुणता के सम्बन्ध में झगड़ा होता है और यह निश्चित होता है कि दोनों अपनी-अपनी शिष्याओं का नृत्य-अभिनय दिखाएँ और अपक्षपातिनी भगवती कौशिकी निर्णय करेंगी कि दोनों में कौन श्रेष्ठ है ? दोनों आचार्य तैयार हुए। मृदंग बज उठा। प्रेक्षागृह में दर्शकगण यथास्थान बैठ गये। भिक्षुणी की अनुमति से रानी की परिचारिका मालविका के शिक्षक आचार्य गणदास यवनिका के अन्तराल से सुसज्जिता शिष्या (मालविका) को रंगभूमि में ले आये। यह पहले ही स्थिर हो गया था कि छलिक नृत्य-जिसमें अभिनेता दूसरे की भूमिका में उतरकर अपने ही मनोभाव व्यक्त करता है-के साथ होने वाले अभिनय को दिखाया जाएगा। मालविका ने गान शुरू किया। मर्म यह था कि दुर्लभ जन के प्रति प्रेमपरवशा प्रेमिका का चित्त एक बार पीड़ा से भर उठता है और फिर आशा से उल्लसित हो उठता है, बहुत दिनों के बाद फिर उसी प्रियतम को देखकर उसी की ओर वह आँखें बिछाये है। भाव मालविका के सीधे हृदय से निकले थे, कण्ठ उसका करूण था। उसके अतुलनीय सौन्दर्य, अभिनयव्यंजित अंग-सौष्ठव, नृत्य की अभिराम भंगिमा और कण्ठ के मधुर संगीत से राजा और प्रेक्षकगण मन्त्र-मुग्ध से हो रहे। अभिनय के बाद ही जब मालविका परदे की ओर जाने लगी, तो विदूषक ने किसी बहाने उसे रोका। वैसे भी कालिदास रंगमंच को ‘चाक्षुष यज्ञ’ कहते हैं। उनका यह श्लोक इसका उदाहरण है कि संस्कृत नाटक का सौन्दर्यशास्त्र भारतीय संस्कृति और परम्पराओं से निकला हुआ है और चिन्तन, आनन्द, सौन्दर्य बोध से जुड़ा है। संस्कृत में हमेशा अच्छे नाट्यप्रयोग पर बल दिया गया है। अच्छे नाट्यप्रयोग में जितना ‘क्रीड़ा तत्त्व’ जरूरी माना गया, उतना ही उसका परिष्कारकर्ता और शुभ, मांगलिक रूप भी। लेकिन कहीं भी वह लोक से अलग नहीं है, लोक का भावानुकीर्तन है, जीवन के विभिन्न भावों, क्रिया-व्यापारों के साथ नाटक हमें सामरस्य की ओर ले जाता है इसीलिए हमारा संस्कृत नाटक जीवन के उल्लास का, आनन्द का प्रतीक है, पश्चिम की तरह अनुकरण और ट्रैजेडी का नहीं। संस्कृत नाटक और रंगमंच इसीलिए लोकधर्मी और नाट्यधर्मी दोनों परम्पराओं से विकसित हुआ है। लोक व्यवहार और मानव स्वभाव को ही प्रमाण मानते हुए संस्कृत नाटक परिष्कृत बुद्धि, समृद्ध कल्पना और कलात्मकता का प्रयोग करता है। वह एक निश्चित दर्शन और संस्कृति का परिचायक है। भारतीय नाटक और रंगमंच के देवता नटराज शिव स्वयं सामरस्य और मांगल्य के, कल्याण के प्रतीक हैं। आशा है कि परवेज़ लगातार इस ब्लाग पर नई जानकारी प्रेषितकरते रहेंगे। साभार: गिरीश रस्तोगी

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