Thursday, December 6, 2007
शब्दों की शक्ल में एक दर्द- "बेकार हाथ"
क्राइम के कुछ स्पेशल एपिसोड़ बना रहा हूँ तो लिहाज़ा आज ऑफिस थोड़ा जल्दी आ गया था। आते ही अपने काम पर जुट गया। कुछ रिसर्च और स्क्रिप्ट करने के बाद जब थोड़ा समय मिला तो रंगकर्मी देखा। सामने तुलिका की एक और कविता थी। लेकिन आज नीचे लिखी इस कविता मे नारी शक्ति या सुहागन का दुख नही था। बल्कि एक ऐसी कहानी थी जो किसी भी आम आदमी को अन्दर तक झकझोर कर रख सकती है। इस कविता को पढने के बाद दिमाग के पुर्ज़े हिल गये। यहां तुलिका ने इस कविता के माध्यम से जो दर्द शब्दों मे उतारा है वो हमारे देश के कई युवाओं की हकीकत है। ये कविता शुरु से अन्त तक आपको बान्धे रखती है। मुझे उम्मीद है जो भी इस रचना को पढेगा वो एक बार सोचेगा ज़रुर। बस कहना चाहुँगा कि तुलिका इसी तरह से शब्दों की शक्ल मे समाज का दर्द और दुख लिखती रहे। कहना तो बहुत कुछ चाह रहा हूँ पर उसकी ज़रुरत शायद नही रह जाती। रंगकर्मी परिवार उनके उज्जवल भविष्य की कामना करता है।
परवेज़ सागर
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