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Sunday, May 31, 2009

लोकसंघर्ष !: कवि सम्मलेन -2

लोकसंघर्ष !: कवि सम्मलेन 1

लोकसंघर्ष !: छद्म पूँजीवाद बनाम वास्तविक पूँजी-5

आप ने अगर छद्म पूँजी बनाम वास्तविक पूँजी - ,छद्म पूँजी बनाम वास्तविक पूँजी- ,छद्म पूँजी बनामवास्तविक पूँजी- ,छद्म पूँजीवाद बनाम वास्तविक पूँजी - नही पढ़ा है तो उन पर क्लिक करेंछद्म पूँजी बनाम उत्पादक पूँजी सन 2005-08 के दौरान अमेरिका में वित्तीय संस्थाओ की क्रियाशीलता बेहद बढ़ गई । संपत्ति बाजार में पैसा लगाया जाने लगा । संपत्ति की कीमतों में पागलपन की हद तक वृधि हुई । लोग और कंपनिया अंधाधुंध कर्जे लेने और देने लगे। कंपनियों ने अपनी मूल पूँजी के 25-30 गुना अधिक पूँजी कर्ज पर लेकर निवेश करना आरम्भ किया। अमेरिका के वित्तीय केन्द्र तथा सबसे बड़े स्टॉक बाजार ''वाल स्ट्रीट '' तथा अमेरिका की विशालतम चार सबसे बड़ी वित्तीय संस्थाओ ने अकूत पैमाने पर शेयर बाजार,प्रतिभूति बाजार ,गिरवी बाजार इत्यादि में भारी पैमाने पर पूँजी लगा दी । उधर उत्पादक उद्यम और उत्पादक पूँजी अपेक्षित कर दी गई। ऐसे में वित्तीय अर्थव्यवस्था के ''बैलून'' को कभी न कभी फूटना ही था। इस बार ''अति उत्पादन '' का संकट उतना स्पष्ट नही दिखाई सेता है क्योंकि वितरण एवं सेवा दोनों का चक्र बड़ी तेजी से काम कर रहा है। संकट और मंदी का चक्र अब उत्पादन के क्षेत्र में प्रवेश कर रहा है। 'बेल आउट' और राज्य द्वारा हस्तक्षेप 1929-33 की महामंदी के दौरान और उसके बाद जान मेनार्ड केन्स और शुम्पीटर जैसे पश्चिम के पूंजीवादी अर्थशास्त्रियो ने संकट से उभरने के लिए राज्य के हस्तक्षेप का सिधान्त प्रस्तुत किया था। खासतौर से केन्स इस सिधान्त के लिए जाने जाते है । द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद , खासतौर पर पिछले दो दशको में पश्चिम में तथाकथित उदारवादी सिधान्तो की बाढ़ आई हुई है जिसके तहत राज्य से अर्थतंत्र से बहार जाने के लिय कहा गया। उससे पहले और अब आर्थिक मंदी के दौर राज्य से फिर अर्थतंत्र के हस्तक्षेप करने का अनुरोध किया गया है। साम्राज्यवादी राजनैतिक अर्थशास्त्र भी चक्रीय दौर से गुजरता है। सर्वविदित है की अमेरिका और अन्य पश्चिमी देशो में सरकारें खरबों डॉलर का विशेष कोष लेकर बड़े इजारेदार उद्यमों और वित्त पूँजी को बचने मैदान में उतर रही है। इस राहत कार्य को 'बेल-आउट' कहा जा रहा है। चीन की सरकार भी 600 अरब डॉलर का कोष बना चुकी है। छद्म पूँजी पर अंकुश की आवश्यकता दूसरे शब्दों में पूंजीवादी और साम्राज्यवाद का संकटाप्रन्न आर्थिक चक्र आज इस मंजिल में पहुँच गया है जहाँ राज्य और सरकारों द्वारा वित्तीय पूँजी पर अंकुश लगाना बहुत जरूरी हो गया है। वित्त पूँजी अर्थात छद्म पूँजी तथा उस पर आधारित 'कैसीनो' पूँजीवाद का प्रभुत्व कम करने और उन पर अंकुश लगाने के लिए राज्य द्वारा उत्पादन को सहायता देना आवश्यक है साथ ही अर्थतंत्र के उत्पादक हिस्सों कल कारखानों ,उद्यमों ,खेती,इत्यादि का विकास और उत्पादन जरूरी है। तभी जाकर मुक्त मुद्रा को वस्तुओं द्वारा संतुलित किया जा सकता है। जाहिर इस दिशा में सम्पूर्ण आर्थिक नीतियाँ बदलने की आवश्यकता है। भारत जैसे देशो ने दर्शा दिया है कि सार्वजानिक क्षेत्र का निर्माण देश के अर्थतंत्र के लिए कितना महत्वपूर्ण है। आज सार्वजनिक क्षेत्र और आधुनिक मशीन तथा ओद्योगिक एवं कृषि उत्पादन का निर्माण और विकास विश्व आर्थिक संकट से बचने के सबसे अच्छी उपाय है। छद्म पूँजी के बनिस्बत वास्तविक पूँजी का विकास आवश्यक है । -अनिल राजिमवाले मो नो -09868525812 लोकसंघर्ष पत्रिका के जून अंक में प्रकाशित ।

लोकसंघर्ष !: माँ

जब छोटा था तब माँ की शैया गीली करता था। अब बड़ा हुआ तो माँ की आँखें गीली करता हूँ ॥ माँ पहले जब आंसू आते थे तब तुम याद आती थी। आज तुम याद आती हो....... तो पलकों से आंसू छलकते है....... ॥ जिन बेटो के जन्म पर माँ -बाप ने हँसी खुशी मिठाई बांटी । वही बेटे जवान होकर आज माँ-बाप को बांटे ...... ॥ लड़की घर छोडे और अब लड़का मुहँ मोडे ........... । माँ-बाप की करुण आँखों में बिखरे हुए ख्वाबो की माला टूटे ॥ चार वर्ष का तेर लाडला ,रखे तेरे प्रेम की आस। साथ साल के तेरे माँ-बाप क्यों न रखे प्रेम की प्यास ? जिस मुन्ने को माँ-बाप बोलना सिखाएं ......... । वही मुन्ना माँ-बाप को बड़ा होकर चुप कराए ॥ पत्नी पसंद से मिल सकती है .......... माँ पुण्य से ही मिलती है । पसंद से मिलने वाली के लिए,पुण्य से मिलने वाली माँ को मत ठुकराना....... ॥ अपने पाँच बेटे जिसे लगे नही भारी ......... वह है माँ । बेटो की पाँच थालियों में क्यों अपने लिए ढूंढें दाना ॥ माँ-बाप की आँखों से आए आंसू गवाह है। एक दिन तुझे भी ये सब सहना है॥ घर की देवी को छोड़ मूर्ख । पत्थर पर चुनरी ओढ़ने क्यों जन है.... ॥ जीवन की संध्या में आज तू उसके साथ रह ले । जाते हुए साए का तू आज आशीष ले ले ॥ उसके अंधेरे पथ में सूरज बनकर रौशनी कर। चार दिन और जीने की चाह की चाह उसमें निर्माण कर ....... ॥
तू ने माँ का दूध पिया है .............. ।
उसका फर्ज अदा कर .................. ।
उसका कर्ज अदा कर ................... । -अनूप गोयल

आज का स्ट्रीगंर- पत्रकार या....?

"स्ट्रीगंर" आम आदमी के लिये ये नया या अन्जान शब्द हो सकता है। लेकिन पत्रकारिता से वास्ता रखने वालों के लिये ये शब्द आम है। पत्रकारिता के 13 सालों के दौरान मैं भी दो बार स्ट्रीगंर रहा। लेकिन उस वक्त और आज मे बड़ा फर्क आ गया है। पत्रकारिता की आधुनिकता के इस दौर मे स्ट्रीगंर के मायने बदलते जा रहे हैं। जो लोग इसके बारे मे नही जानते उन्हें बताना ज़रुरी हो जाता है कि आजकल पत्रकारिता की दुनिया मे स्ट्रीगंर ख़बर पाने का एक सस्ता सुलभ ज़रिया है। इसलिये अब हर शहर मे हर चैनल का स्ट्रीगंर मौजूद है। देश के कई न्यूज़ चैनल तो स्ट्रीगंरर्स की बदौलत ही चल रहे हैं। किसी भी शहर मे कोई घटना हो तो तुरन्त स्ट्रीगंर उसे अपने हैंडीकैम से कवर करके न्यूज़ चैनल को भेज देता है। स्ट्रीगंर मतलब वो पत्रकार जिसका चैनल या कम्पनी से सीधे कोई ताल्लुक नही होता बस ख़बर दो उसके बदले पैसा लो, जितनी ख़बरें उतना पैसा। पहले इन्हे माइक आईड़ी तक नसीब नही होती थी। पर अब लगभग सभी चैनल अपने स्ट्रीगंर को माइक आईड़ी देने लगे हैं और उनके साथ सालभर का एग्रीमेन्ट भी किया जाने लगा है। न्यूज़ चैनलों की बढती तादाद के चलते आजकल हर शहर मे इलेक्ट्रोनिक मीडिया यानि स्ट्रीगंर की बाढ़ सी आ गयी है। हालात ये है कि अगर कहीं कोई प्रेसवार्ता या अन्य कोई आयोजन हो रहा हो तो वहां तमाम माईक आईड़ी और टीवी पत्रकार दिखाई देगें जिनमे से शायद कईयों को पत्रकारिता के मायने तक मालूम ना हो। जिनका पत्रकारिता से दूर-दूर तक कोई लेना देना नही है वो भी स्ट्रीगंर बन रहे हैं या बनना चाहते हैं। ऐसे चैनलों की भी कमी नही है जो स्ट्रीगंर बनाने के लिये ज़मानत राशि के नाम पर मोटी रकम बटोर रहे हैं। नतीजा ये कि कई पूंजीपति अपना रुतबा और रोब बनाने की खातिर अपने बच्चों को पत्रकार बनाने के ख्वाब पाल रहे हैं या उन्हे पत्रकार बनाने मे जुटे हैं। इस सारी कवायद के चलते सबसे बड़ा नुकसान पत्रकारिता को हो रहा है। उसके बाद पेशेवर पत्रकारों कों। स्ट्रीगंर के रुप मे ऐसे लोग बड़ी संख्या मे पत्रकारिता करने उतर आयें हैं जो समाज मे बदनाम है या अपराधी हैं। जो केवल खुद के बचाने के लिये या फिर असामाजिक कामों को अन्जाम देने के लिये स्ट्रीगंर बनकर पत्रकार बन जाना चाहतें हैं। मुझे आज तक मे काम करते वक्त उत्तर भारत के कई शहरो में ख़बरों के लिये भेजा जाता रहा। मैं जहां भी गया एक बात समान थी कि हर शहर मे स्ट्रीगंरर्स की एक बड़ी जमात खड़ी हो गयी है। और उसमे ऐसे लोगों की तादाद ज़्यादा है जो शायद हिन्दी मे अपना नाम भी ठीक से ना लिख पाते हों लेकिन हाथ मे किसी चैनल का माईक आईड़ी और मुंह मे गुटखा बस बन गये पत्रकार। खासकर ये अधिकारियों या बड़े नेताओं के इर्द-गिर्द मन्ड़राते नज़र आते हैं। इस बात से वो सभी पत्रकार सहमत होगें जो लम्बे समय से पत्रकारिता करते आयें है और आज किसी चैनल के स्ट्रीगंर या रिपोर्टर है। उन्हे भी इन तथाकथित पत्रकारों की वजह से परेशानी का सामना करना पड़ता है। आज की तारीख मे अगर आप किसी बड़े नेता या अधिकारी से मुलाकात करने जायें तो उसका लहज़ा आपके साथ व्यंगात्मक हो सकता है। जिसकी वजह केवल वो स्ट्रीगंर हैं जो पत्राकरिता की आड़ मे अपना उल्लू सीधा कर रहे हैं। बहुत जल्द कामयाब हो जाने की लालसा भी उन लोगों को बहका रही है जो स्ट्रीगंर बनकर दूसरे रास्तों से पैसे कमाने की फिराक मे बैठें है। चैनल वाले पैसे दें या ना दें। बस स्ट्रीगंर बन जाने की होड़ सी लगी है। मेरे सामने एक या दो नही ऐसे कई उदहारण है जो इन सब बातों की पुष्टि करते हैं। ये सब लिखने का मकसद किसी की भावनाओं को ठेस पंहुचाना नही है बल्कि उन लोगों को आईना दिखाना है जो आंख बन्द कर के स्ट्रीगंर बनाने का काम कर रहे हैं। हो सकता है मेरे खुद के कुछ साथी मेरी बात से सहमत ना हो लेकिन आजकल मुझे जो दिख रहा है उसे देखकर तो ये ही लगता है कि आने वाले वक्त मे पत्रकारिता और पत्रकारों से आम लोगों को बचा-खुचा भरोसा भी उठ जायेगा। समाज मे ज़रुरत ऐसे स्ट्रीगंरर्स की है जो पत्रकार हो या पत्राकरिता की ज़िम्मेदारी को समझे। हमारी अपील है स्ट्रीगंर बनाने वाले और बनने वालों से कि अब बस.....।

Saturday, May 30, 2009

लोकसंघर्ष !: का बताई की मामा केतनी पीर है...... ।

हाल हमरो न पूछौ बड़ी पीर है। का बताई के मनमा केतनी पीर है। बिन खेवैया के नैया भंवर मा फंसी- न यहै तीर है न वैह तीर है। हमरे मन माँ वसे जैसे दीया की लौ दूरी यतनी गए जइसे रतिया से पौ, सुधि के सागर माँ मन हे यूं गहिरे पैठ इक लहर जौ उठी नैन माँ नीर है -
का बताई की मामा केतनी पीर है...... ।
सूखि फागुन गवा हो लाली गई, आखिया सावन के बदरा सी बरसा करे , राह देखा करी निंदिया वैरन भई - रतिया बीते नही जस कठिन चीर है।
का बताई की मामा केतनी पीर है...... ।
कान सुनिवे का गुन अखिया दर्शन चहै, साँसे है आखिरी मौन मिलिवे कहै, तुम्हरे कारन विसरि सारी दुनिया गई- ऐसे अब्नाओ जस की दया नीर है।
का बताई की मामा केतनी पीर है......
डॉक्टर यशवीर सिंह चंदेल 'राही '

'छद्म' पूँजीवाद बनाम वास्तविक पूँजी-4

आप ने अगर छद्म पूँजी बनाम वास्तविक पूँजी - ,छद्म पूँजी बनाम वास्तविक पूँजी- ,छद्म पूँजी बनामवास्तविक पूँजी- नही पढ़ा है तो उन पर क्लिक करें युद्धोत्तर - काल में आर्थिक चक्र की विशेषताएं - इस प्रकार पूंजीवादी अर्थव्यवस्था और स्वयं दो विरोधी अंतर्विरोधी ध्रुवो में ध्रुवीकृत हो जाती है । उत्पादन से ही जनित वित्त पूँजी अब उत्पादन से जितनी दूर हो जाने की कोशिश करती है । पश्चिमी देशो के बड़े पूँजीवाद और नव-साम्राज्यवाद में एक नई विशेषता पैदा हो जाती है। वह वित्तीय और शेयर बाजार से ही अधिकाधिक मुनाफा कमाने का प्रयत्न करता है । फलस्वरूप ओद्योगिक एवं उत्पादक क्षेत्र की अधिकाधिक उपेक्षा होती जाती है। यहाँ आज की विश्व अर्थव्यवस्था की कुछ खासियतो पर ध्यान देना आवश्यक हो जाता है । तभी हम वर्तमान आर्थिक मंदी की भी ठीक से व्याख्या कर पायेंगे। द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद की जो सबसे महत्वपूर्ण घटना है वह है वैज्ञानिक और तकनीकी क्रांति ( संक्षेप में अंग्रेजी अक्षरो से बना एस.टी.आर ) इस क्रांति और इसके तहत हुई संचार क्रांति ने विश्व बजार को एक दूसरे से जोड़कर स्थान और काल का अन्तर समाप्त कर दिया। इलेक्ट्रोनिक्स और कम्प्यूटर पर आधारित इस क्रांति ने नई उत्पादक शक्तियों को जन्म दिया। नई इलेक्ट्रोनिक मशीनों और उपकरणों की उत्पादकता पहले से कई गुना अधिक थी। उद्योगों ,बैंकिग ,वित्तीय संस्थाओ ,कार्यालयों इत्यादि के कार्य-कलापों की गति में असाधारण तेजी आ गई । दूसरे शब्दों में धन ,मुद्रा और पूँजी का उत्पादन कई गुना बढ़ गया तथा अत्यन्त द्रुत गति से होने लगा। वित्तीय हितों ने इन घटनाओ का प्रयोग अपने हितों में किया । हालाँकि अन्य प्रकार की गतिविधियाँ बढ़ी लेकिन वित्तीय पूँजी और एकाधिकार कारोबार में असाधारण तेजी आई । साथ ही यह भी नही भूला जाना चाहिए की छोटे और मंझोले कारोबार में भारी तेजी आई । इजारेदारी और वित्त के विकास पर एकतरफा जोर नही दिया जाना चाहिए। एक अन्य घटना थी बाजार और मुद्रा वस्तु विनिमय प्रथा मुद्रा-मुद्रा विनिमय में असाधारण तेजी । पहले नोटो,मुद्राओ ,सोना,इत्यादि से लेन-देन हुआ करता था। आज भी होता है। लेकिन आज की तकनीकी क्रांति के युग में मुद्रा के नए इलेक्ट्रोनिक्स स्वरूप विकसित हो रहे है। इलेक्ट्रोनिक्स मुद्रा,स्मार्ट कार्ड ,ए .टी .ऍम कार्ड ,कम्पयूटरों एवं मोबाइल के जरिये लेन-देन ,इ-मेल तथा इन्टरनेट का बड़े पैमाने पर प्रयोग इन नए मौद्रिक उपकरणों ने धातु और कागज की मुद्रा की भूमिका लगभग समाप्त कर दी है। अब अधिकाधिक लेन इलेक्ट्रोनिक संकेतो से होता है। इससे जहाँ छोटे उद्धम को फायदा हुआ है वहीं वित्त पूँजी ने अपना प्रभुत्व जमाने के लिए इसका भरपूर फायदा उठाया है। इलेक्ट्रोनिक्स संकेत प्रणाली से स्टॉक बाजारों और वित्त पूँजी का स्वरूप बदल गया है। एक तरह से इलेक्ट्रोनिक्स पूँजीवाद का जन्म हुआ है जिसमें व्यक्तिगत और छोटे उध्योद्ग से लेकर विशालकाय बहुद्देशीय कंपनिया और वित्तीय संस्थाएं कार्यशील है। इसका फायदा वित्त पूँजी ने मुद्रा से मुद्रा और पूँजी से पूँजी कमाने के लिए किया है। इसमें आरम्भ में तो उसे असाधारण सफलता उसकी असफलता और धराशाई होने का कारण बना। पिछले 25 -30 वर्षो में इतना बड़ा विश्व्यापी बाजार निर्मित हुआ है जितना की इतिहास में कभी नही हुआ था। पिछले बीस वर्षो में वास्तु -उत्पादन ,लेन-देन तथा मुद्रा की मात्र एवं आवाजाही में,यानी बाजार की गतिविधि में चार से पाँच गुना वृद्धि हुई है। फलस्वरूप बाजार से मुनाफा कमाने 'धन बनाने' की रुझान में अभूतपूर्व वृधि हुई है । -अनिल राजिमवाले मो.नं.-09868525812 लोकसंघर्ष पत्रिका के जून अंक में प्रकाशित होगा

राहुल गाँधी सुप्रीम पावर है

कौरवों-पांडवों का महाभारत समाप्त हो चुका था। विजयी पांडवों में अब यह बात घर कर गई कि वे सबसे अधिक बलवान हैं। उन्होंने ना जाने कितने ही रथी,महारथी,वीर,महावीर,बड़े बड़े लड़ाकों को मृत्यु की शैया पर सुला दिया। मगर फैसला कौन करे कि जो हैं उनमे से श्रेष्ठ कौन है। सब लोग श्रीकृष्ण के पास गए। उन्होंने कहा, मैं भी मैदान में था, इसलिए किसी और से पूछना पड़ेगा। वे बर्बरीक के पास गए। जिन्होंने पेड़ से समस्त महाभारत देखा था। श्रीकृष्ण बोले, बर्बरीक बताओ क्या हुआ, किसने किस को मारा। बर्बरीक कहने लगा,मैंने तो पूरे महाभारत में केवल श्रीकृष्ण का सुदर्शन चक्र ही देखा जो सब को मार रहा था। मुझे तो श्रीकृष्ण के अलावा किसी की माया, शक्ति,वीरता नजर नही आई। बर्बरीक का भाव ये कि जो कुछ महाभारत में हुआ वह श्रीकृष्ण ने ही किया। हाँ नाम अवश्य दूसरों का हुआ।चलो अब हिंदुस्तान की बात करें। मनमोहन सिंह की सरकार बन गई। मंत्रियों को उनके विभाग दे दिए गए। लेकिन समझदार मीडिया बार बार यह प्रश्न कर रहा है कि राहुल गाँधी मंत्री क्यों नहीं बने? राहुल मंत्री कब बनेगें? अब कोई इनसे पूछने वाला हो कि भाई जो ख़ुद सरकार का मालिक है उसको छोटे मोटे मंत्रालय में बैठाने या बैठने से क्या होगा?जो समुद्र में कहीं भी जाने आने, किसी भी जलचर को कुछ कहने का अधिकार रखता है उसको पूछ रहें हैं कि भाई तुम तालाब में क्यों नहीं जाते? क्या आज के समय प्रधानमंत्री तक राहुल गाँधी को किसी बात के लिए ना कह सकते हैं? और राहुल गाँधी ने जिसके लिए ना कह दिया उसको हाँ में बदल सकते हैं? बेशक राहुल गाँधी किसी को कुछ ना कहें, मगर ये ख़ुद सोनिया गाँधी भी जानती हैं कि किसी में इतनी हिम्मत नहीं जो राहुल गाँधी को इग्नोर कर सके। आज हर नेता राहुल गाँधी का सानिध्य पाने को आतुर है ताकि उसका रुतबा बढे। एक टीवी चैनल पर पट्टी चल रही थी। " शीश राम ओला राहुल गाँधी से मिले। ओला ने राहुल के कान में कुछ कहा। " श्री ओला राजथान के जाट समुदाय से हैं। उनकी उम्र राहुल गाँधी की उम्र से दोगुनी से भी अधिक है। जब ऐसा हो रहा हो तब राहुल गाँधी को किसी एक महकमे के चक्कर में पड़ने की क्या जरुरत है। हिंदुस्तान की समस्त धरती, आकाश उनका है। वे किसी झोंपडी में सोयें या महल में क्या अन्तर पड़ता है। ये तो जस्ट फॉर चेंज। मनमोहन सिंह सरकार के प्रधान मंत्री हैं, कोई शक नही। सोनिया गाँधी कांग्रेस की अध्यक्ष और यू पी ऐ की चेयरपर्सन हैं। मगर इस सबसे आगे राहुल गाँधी सीईओ हैं। आज के ज़माने में सीईओ से महत्व पूर्ण कोई नहीं होता। इसलिए राहुल गाँधी मंत्री बनकर पंगा क्यों लेने लगे। भाई सारा जहाँ हमारा है। समझे कि नहीं।

Thursday, May 28, 2009

लोहे और हीरे का अन्तर

एक संत की कथा में एक बालिका खड़ी हो गई। उसके चेहरे आक्रोश साफ दिखाई दे रहा था। उसके साथ आए उसके परिजनों ने उसको बिठाने की कोशिश की,लेकिन बालिका नहीं मानी। संत ने कहा, बोलो बालिका क्या बात है?। बालिका ने कहा,महाराज घर में लड़के को हर प्रकार की आजादी होती है। वह कुछ भी करे,कहीं भी जाए उस पर कोई खास टोका टाकी नहीं होती। इसके विपरीत लड़कियों को बात बात पर टोका जाता है। यह मत करो,यहाँ मत जाओ,घर जल्दी आ जाओ। आदि आदि। संत ने उसकी बात सुनी और मुस्कुराने लगे। उसके बाद उन्होंने कहा, बालिका तुमने कभी लोहे की दुकान के बहार पड़े लोहे के गार्डर देखे हैं? ये गार्डर सर्दी,गर्मी,बरसात,रात दिन इसी प्रकार पड़े रहतें हैं। इसके बावजूद इनकी कीमत पर कोई अन्तर नहीं पड़ता। लड़कों की फितरत कुछ इसी प्रकार की है समाज में। अब तुम चलो एक जोहरी की दुकान में। एक बड़ी तिजोरी,उसमे फ़िर छोटी तिजोरी। उसके अन्दर कोई छोटा सा चोर खाना। उसमे से छोटी सी डिब्बी निकालेगा। डिब्बी में रेशम बिछा होगा। उस पर होगा हीरा। क्योंकि वह जानता है कि अगर हीरे में जरा भी खरोंच आ गई तो उसकी कोई कीमत नहीं रहेगी। समाज में लड़कियों की अहमियत कुछ इसी प्रकार की है। हीरे की तरह। जरा सी खरोंच से उसका और उसके परिवार के पास कुछ नहीं रहता। बस यही अन्तर है लड़ियों और लड़कों में। इस से साफ है कि परिवार लड़कियों की परवाह अधिक करता है।इसी के संदर्भ में है आज की पोस्ट। जिन परिवारों की लड़कियां प्लस टू में होती हैं। उनके सामने कुछ नई परेशानी आने लगी है। होता यूँ है कि कोई भी कॉलेज वाले स्कूल से जाकर लड़कियों के घर के पते,फ़ोन नम्बर ले आता है। स्कुल वाले भी अपने स्वार्थ के चलते अपने स्कूल की लड़कियों के पते उनको सौंप देतें हैं। उसके बाद घरों में अलग अलग कॉलेज से कोई ना कोई आता रहता है। कभी कोई स्टाफ आएगा कभी फ़ोन और कभी पत्र। यह सब होता है शिक्षा व्यवसाय में गला काट प्रतिस्पर्धा ले कारण। स्कूल वालों को कोई अधिकार नहीं है कि वह लड़कियों के पते,उनके घरों के फोन नम्बर इस प्रकार से सार्वजनिक करें। ये तो सरासर अभिभावकों से धोका है। ऐसे तो ये स्कूल लड़कियों की फोटो भी किसी को सौंपने में देर नहीं लगायेंगें। जबकि स्कूल वालों की जिम्मेदारी तो लड़कियों के प्रति अधिक होनी चाहिए। अगर इस प्रकार से स्कूल, छात्राओं की निजी सूचना हर किसी को देते रहे तो अभिवावक कभी भी मुश्किल में पड़ सकते हैं। आख़िर लड़कियां हीरे की तरह हैं, जिनकी सुरक्षा और देखभाल उसी के अनुरूप होती है। नारदमुनि ग़लत है क्या? अगर नहीं तो फ़िर करो आप भी हस्ताक्षर।

Wednesday, May 27, 2009

loksangharsha: दुनिया में अगर दर्द का मौसम नही होता

दुनिया में अगर दर्द का मौसम नही होता - चेहरों पे तबस्सुम का ये आलम नही होता । क्या चीज मुहब्बत है ये हम कैसे समझते - अश्को से अगर दामने दिल नम नही होता । इक वो है की माथे पे हमावत है शिकने- इक मैं हूँ कि किसी हाल में वह हम नही होता। -डॉक्टर यशवीर सिंह चंदेल 'राही '

धार्मिक कट्टरपंथी तो हारे पर बाजार कट्टरपंथी जीत गये

- प्रो. बनवारी लाल श र्मा

कमाल है इस देश की जनता का ! चुनाव में वह नतीजा कर दिखाया जिसकी किसी को उम्मीद न थी। जनता ने सारी अटकलें, चुनावी पण्डितों के विश्लेषण और भविष्यवाणियाँ झुठला दीं। चुनाव नतीजे सुनाये जाने से पहले काँग्रेस भी घबड़ायी हुई थी, सरकार बनाने का समर्थन पाने के लिए छोटी-छोटी पार्टियों पर डोरे डाल रही थी, ‘फीलर’ छोड़ रही थी। हमारी नजर में इस चुनाव में कुछ अच्छी बातें हुई तो कुछ बहुत ही खराब, खतरनाक। पहले अच्छी बातें लेंः- (1) जाति और धर्म के नाम पर वोटों की जोड़-तोड़ को, जिसे ‘सोशल इन्जीनियरिंग’ का सुन्दर सा नाम दिया गया था, जनता ने ध्वस्त कर दिया। सोशल इंजीनियरिंग के नाम पर ‘पढ़ी-लिखी दलित’ की बेटी दिल्ली की गद्दी पर बैठने का सपना देख रही थी, वह सपना तोड़ दिया। उत्तर प्रदेश के दलितों ने मायावती को चेतावनी दे दी इस चुनाव के मार्फत कि दलितों के नाम पर दलितों के कुछ न करके करोड़ों रूपए बड़े-बड़े स्मारक, नेताओं के और खुद अपने लिये बनाना जनता मंजूर नहीं करती। उसी उत्तर प्रदेश ने दिखा दिया कि हिन्दू-मुसलमानों की राजनीति नहीं चलेगी। यह मुलायम सिंह ने भी देख लिया कि उनके सभी ग्यारह मुसलमान उम्मीदवार हार गये। भाजपा को भी झटका दिया कि धर्म और राम मन्दिर पर जनता बेवकुफ बनना नहीं चाहती। (2) जनता ने मौकापरस्ती को करारी शिकस्त दी। चार साल तक वामपंथी और पूरे पाँच साल तक समाजवादी-लोकशक्तिवादी काँग्रेस का साथ देकर सत्ता सुख भोगते रहे और यह भाँप कर कि काँग्रेस का नाव डूबने वाली है, अलग होकर काँग्रेस की आलोचना में जुट गये। जनता ने वामपंथियों, मुलायम सिंह, लालूप्रसाद और पासवान को धूल चटा दी। पासवान तो ‘क्लीन बोल्ड’ हो गये। (3) जनता ने धार्मिक कट्टरवाद को काफी हद तक नकार दिया। भाजपा को कट्टरपंथी नेता नरेन्द्र मोदी चुनाव प्रचार कराया, उसे प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार भी कह डाला। पर इसका नतीजा उलटा निकला। भारत जैसे देश के लिए यह शुभ लक्षण है क्योंकि यहाँ अनेक धर्म-सम्प्रदायों के लोग रहते हैं। (4) जो नामी-गिरामी माफिया और अपराधी थे, जनता ने उन्हें पछाड़ दिया। (5) पिछले लगभग दो दशक से चल रही गठबन्धन की अस्थिर राजनीति, जिसमें खरीद-फरोख्त आम बात थी, को जनता ने नकार दिया और एक स्थायी सरकार बनाने का जनादेश दिया। (6) जनसंघर्षों का साथ देने से राजनैतिक दल कामयाबी हासिल कर सकते हैं, पश्चिम बंगाल में तृणमूल कांग्रेस का 2 से बढ़ कर 20 सीट पाना इसका उदाहरण है। नन्दीग्राम, सिंगूर, लालगढ़ के आन्दोलनों ने वामदलों के तीस साल पुराने किले को हिला दिया। प्रो. बनवारी लाल शर्मा ’आजादी बचाओ आन्दोलन’ के राष्ट्रीय संयोजक हैं।

इन अच्छी बातों के बावजूद इस चुनाव के कुछ खतरनाक संकेत हैं:- (1) यह पूरा चुनाव पुलिस की बन्दूकों की साया में हुआ है। यह ठीक है कि पुलिस व्यवस्था के कारण झगड़े-फसाद, गुण्डागर्दी और गलत मतदान नहीं हुआ, पर यह तो साफ हो गया कि यह लोकतंत्र बन्दूक से चलता है। इस पूरे लोकतंत्र ने पिछले 60 साल में कैसा समाज बनाया है, यह तो उजागर हो गया। पुलिस न हो तो मतदान ठीक से नहीं हो सकेगा, यह सिद्ध हुआ है। (2) बमुश्किल 50 प्रतिशत मतदान हुआ, यानी आधे मतदाताओं को इस लोकतंत्र से कोई सरोकार नहीं। इन आधे में से 30 प्रतिशत यानी कुल मतदाताओं के 15 प्रतिशत मत लेकर कांग्रेस सरकार बनाने-चलाने जा रही है। यानी 85 प्रतिशत देश के मतदाताओं को कांग्रेस का साथ नहीं मिला है। (3) जाति-धर्म और क्षेत्रवाद के नाम पर वोट मांगने वालों को नकार कर जो बचा उसे जनता ने वोट दिया, वह है कांग्रेस। कांग्रेस ने ‘विकास’ का नारा भी दिया। जनता को लगता है कि कांग्रेस सेक्यूलर है,अवसरवादी नहीं है। विकास की हिमायती है तो इसे ही जिता दो और जिता भी दिया। पर जो बात लोगों के ध्यान में नहींे आयी कि भाजपा अगर धार्मिक कट्टरवादी पार्टी है तो कांग्रेस ‘मार्केट-कट्टरपंथी’ है जिसने देश को देशी-विदेशी बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के हवाले कर दिया है। पिछले पांच साल में गठबन्धन की सरकार चलाने के कारण सहयोगी दलों के दबाव में कांग्रेस पूरी तरह भूमण्डलीकरण, उदारीकरण और निजीकरण की नीतियां नहीं लागू कर पायी। इस बार ऐसी कोई रूकावट न होने के कारण आदि सुधाराचार्य डाॅ. मनमोहन सिंह भारत की अर्थव्यवस्था का पूरी तरह से ‘मार्केट इकोनामी’ बना डालेंगे। इसमें कोई शक नहीं है। नीचे लिखे अधूरे काम वे तुरन्त करेंगे और पूरी ताकत के साथ:- (1) बीज अधिनियम पारित कराना जो लंबित पड़ा है; (2) विदेशी विश्वविद्यालय बिल पास कराना, जो अभी तक अटका हुआ है; (3) श्रम कानूनों में संशोधन; (4) रूपए की पूर्ण परिवर्तनीयता जिसे करने के लिए बड़ी कम्पनियों और अमरीका का भारी दबाव पड़ रहा है; (5) विशेष आर्थिक क्षेत्र (सेज) कार्यक्रम तेजी से चलाना, जनता के विरोध से यह कार्यक्रम आगे नहीं बढ़ रहा है; (6) खेती में दूसरी हरित क्रान्ति लाना यानी कारपोरेट खेती, कांट्रैक्ट फार्मिंग लागू करना, यानी खेती से किसानों का भारी संख्या में विस्थापन और बड़ी कम्पनियों का कब्जा; (7) परमाणु करार को तेजी से लागू करना। (4) डाॅ. मनमोहन सिंह और उनकी सरकार अमरीका से किये गये सामरिक सहयोग को और आगे बढ़ायेंगे। अमरीकी राष्ट्रपति ओबामा ने डाॅ. सिंह को ;ूवदकमतनिसद्ध (ज्ञानी और आश्चर्यजनक) व्यक्ति कह कर उन्हें लुभा लिया है। आतंकवाद के नाम पर अमरीका भारत के साथ सामरिक सन्धि करके अमरीका और चीन के बीच भारत को बफर जोन की तरफ इस्तेमाल करना चाहता है और नयी सरकार यह कर डालेगी। गुटनिरपेक्ष देशों का 60 साल तक नेतृत्व करने वाला भारत ऐलानिया अमरीका का पिछलग्गू देश बनेगा। इस प्रकार नयी सरकार जनता के मुद्दों को सख्ती से दबायेगी, जनता के बीच जो असली मुद्दे हैं, वे ठीक से पहुंचे नहीं हैं। जन आन्दोलनों के सामने दुहरी चुनौतियां हैं-सही मुद्दों को लोगों तक पहुंँचाना और सरकार की गलत, जनविरोधी नीतियों से टक्कर लेना।

Indian becoming refugees in their own land

- Neeraj Jain Ever since1991, when the Indian government decided to accept the conditions of the World Bank-IMF and begin the globalization of the Indian economy, remove all restrictions on inflows of foreign capital and goods and remove all restrictions on profiteering, the people of India have become second grade citizens, or non citizens, in their own land. Helots, as the Roman citizens used to call the others. The country is now being run solely for the profit maximisation of giant corporations, both Indian and foreign. Laws are being modified to facilitate their plunder. All welfare services, including education, health, electricity, transport, the public distribution system designed to provide food to the poor at affordable rates, even drinking water facilities, are being taken over by these corporations and transformed into instruments of naked profiteering. The corporations want to take control of the agricultural lands, forests, rivers, mountains, coastal lands. So that they can commandeer the resources – bauxite, iron ore, coal, water... Or set up special economic zones, infrastructural projects… Or build resorts, golf courses, villas, etc. Overnight, the people living on these lands and forests since times immemorial have become encroachers, and have been told to shoo off. According to the Amnesty International Report of 2008, people are being displaced in every state in the country, including West Bengal, Orissa, Jharkhand, Chhattisgarh, Madhya Pradesh, Andhra Pradesh, Karnataka, Tamil Nadu, Pondicherry, Maharashtra and Meghalaya. How many are being displaced? No one knows. The Government collects volumes of statistics every year, on every aspect of the economy. But it does not have a figure for the number of people that have been, or are being, displaced by big projects or sacrificed in other ways at the altars of 'National Progress'. What happens to these displaced people? How do they earn a living? No one knows. The government of India does not have a National Rehabilitation Policy. According to the Land Acquisition Act of 1894 (amended in 1984), the Government is not legally bound to provide a displaced person anything but a cash compensation. Most tribal people and small farmers have as much use for money as a Supreme Court judge has for a bag of fertilizer. In any case, most adivasis do not have formal title to their lands and therefore need not be given compensation. Many millions are being displaced. Where do they go? No one knows. They don’t exist anymore. A great majority of the displaced eventually land up in the slums existing in the peripheries of our great cities. To live and work in the most degrading, dehumanizing conditions. True, they are not being sent to the gas chambers, but their quality of life is not better than Hitler’s concentration camps. Still their nightmare does not end. They continue to be uprooted even from their hellish hovels so that big corporations can build huge residential complexes, shopping plazas, multiplexes, airports… ●●● The people are obviously not willing to be displaced without a fight. And so the Indian rulers are using every possible weapon in their war on the people: friendly courts, trigger friendly police, most draconian laws, corporate friendly media… Ever since the beginnings of globalization, the higher Indian judiciary has taken a nakedly pro-corporate stance. They have passed judgements permitting displacement and thereby destruction of livelihoods of lakhs of people, in violation of their own previous judgements wherein they had declared the right to food, education, shelter as being fundamental rights. In the Narmada Bachao Andolan case, the courts allowed the project to go ahead, despite the fact that the mandatory environmental impact studies had not been done. In the Tehri Dam case, even though the government’s own expert committee had pointed out serious irregularities in the environmental clearance given to the project, the Supreme Court gave the go-ahead to the construction of the Dam. Likewise, the Supreme Court gave permission to Vedanta to mine bauxite from the Niyamgiri hills in Orissa, despite the fact that its own environmental panel had accused Vedanta of violating environmental guidelines and urged that the environmental clearance given to the project be cancelled. The project will displace thousands of adivasis living in the area and destroy the pristine environment of the region. Four years ago, in a absolutely shocking judgement, the Delhi High Court, at the behest of the Delhi government, ordered the demolition of slums in Yamuna Pushta, affecting nearly one lakh people - the government wanted the land cleared so that five star hotels and shopping malls could be built there. In an even more blatant display of pro-rich bias, the courts have ordered demolition of slum in cities without even issuing notices to the people whose homes were being demolished, simply on the grounds that they were polluting the environment! Likewise, orders were passed for removal of hawkers from the streets of many cities. Orders were also passed to remove cycle rickshaw pullers from Delhi roads, just so that the rich can drive their luxury cars comfortably on what are supposed to be public roads and on which everyone should have equal rights! The police are behaving like the private armies of the corporate elites. To evict people from their homes, they are resorting to indiscriminate arrests, brutal lathicharges, custodial torture and in many cases firings with the deliberate intention of killing the agitating people. The Amnesty International Report of 2008 mentioned above alleges that in several states where big projects are being implemented resulting in displacement and destruction of people’s livelihoods, unlawful methods are increasingly used to deal with such protests, and impunity for abuses is widespread. In Nandigram (West Bengal), where people refused to give their fertile lands for a special economic zone, the police and private militias owing allegiance to the ruling CPM brutally attacked the people, and indulged in unlawful killings, abductions, sexual assault on women; in open collusion with the attackers, the authorities denied access and information to the media and human rights organizations, harassed human rights defenders and even denied justice to the victims. Just a few months ago, in December 2008, police opened fire on a peaceful protest by 7000 adivasis in Dumka, Jharkhand, murdering at least 3 people. The adivasis were protesting against the setting up of a 1000 MW coal based power plant in their area by CESC, an RPG group company. In Jagatsinghpur, Orissa, the state has deployed thousands of armed police to brutally crush the local people who have been fighting for the last three years to prevent their lands, resources and livelihoods from being taken over for a mega steel plant and port by POSCO, a South Korean giant. Not very far from there, in Kalinganagar, on January 2, 2006 police gunned down 13 people in a bid to terrorise and subjugate tribals protesting against acquisition of their lands for a massive steel plant being set up by the Tatas. Five corpses returned after post-mortem were mutilated; one dead woman’s breast was ripped off, and a young boy (also killed in the firing) had his genitals mutilated. All had their palms chopped off. Since September 2007, government officials and police have virtually unleashed a war on the people of two mandals in East Godavari district of Andhra Pradesh an effort to forcibly acquire 4000 acres of land for the Kakinada SEZ. Nearer home, in 2004-05, the police and local administration brutally demolished homes of more than 4 lakh slum dwellers; probably another million more will have to suffer the same fate; the state government is seeking to acquire their lands for huge infrastructural projects and transform Mumbai into Shanghai. Likewise, most of the city’s 300,000 hawkers are being evicted.(PNN) (This is the first part of a long article ) (Neeraj Jain, an Engineer b y training,is a social activist based in Pune and attached to ‘Lokayat’ He the author of the book Globalization or Recolonization .)

issued by PEOPLE NEWS NETWORK (PNN) - (An alternate media service devoted to promote struggles against corporate colonialism and to establish ‘Poorna Swaraj’ in India) E-mail- peoplenewsnetwork@gmail.com

Tuesday, May 26, 2009

loksangharsha: छद्म पूँजी बनाम वास्तविक पूँजी-1

आज सारे भारत और विश्व में आर्थिक मंदी तथा संकट की चर्चा जोरो पर है । लेख लिखे जा रहे है ,भाषण/व्याख्यान और गोष्ठियाँ आयोजित की जा रही है । विश्व आर्थिक मंदी पिछले वर्ष (२००८) के मध्य में आरम्भ हुई और आज कई वर्षो तक जारी रहने की भविष्यवाणी की जा रही है । यह हमारे दैनन्दिनी के आर्थिक जीवन तथा जीवन-यापन से जुड़ी घटना है , इसलिए इसकी उपेक्षा नही की जा सकती है। यह किताबों और सिद्धानतो तक सीमित नही है। हमारे देश का अर्थतंत्र भी इसकी चपेट में आ रहा है। आख़िर विश्व आर्थिक और संकट है क्या और इससे मुक्ति पाने या इसे कम करने के क्या उपाय है? छद्म पूँजी बनाम वास्तविक पूँजी कुछ समय पहले चीन के राष्ट्रपति ने कहा की वर्तमान विश्व आर्थिक संकट 'छद्म' पूँजी के उत्पादक पूँजी पर हावी होने के कारन पैदा हुआ। उन्होंने इस संकट से निजात पाने के लिए समूचे विश्व के देशो के परस्पर सहयोग का प्रस्ताव रखा है। कुछ इसी तरह के विचार कुछ अन्य नेताओं ने पेश किए है। इनमें भारत के वर्तमान प्रधानमन्त्री मनमोहन सिंह भी है। उनके अनुसार आज 'कैसीनो 'पूँजीवाद उत्पादक का औद्योगिक पूँजीवाद पर हावी हो गया है । कैसीनो का अर्थ होता वह जगह जहाँ सट्टेबाजी होती है । उनके विचार में औद्योगिक पूँजी को एक और दरकिनार करने की कुछ राष्ट्रों द्वारा कोशिश की जा रही है। छद्म पूँजी और मार्क्स - छद्म पूँजी की अवधारणा सबसे पहले मार्क्स ने प्रस्तुत की थी जो उनकी रचना पूँजी के तीसरे खंड में मिलती है। जब हम पूँजी की बात करते है तो वह उत्पादन से जुड़ी होती है ,मुख्यत : औद्योगिक उत्पादन से। इसलिए मुनाफा भी उत्पादन की प्रक्रिया के दौरान पैदा होता है ,उससे बाहर नही ,बाजार में नही ,वितरण में नही । यह सबसे बगैर हम वर्तमान संकट समझ नही सकते है यह सर्वप्रथम कार्ल मार्क्स थे जिन्होंने पूँजी और मुनाफे के स्रोत्र की खोज की थी । उसका स्रोत्र उन्होंने उत्पादन की प्रक्रिया ,विशेषत: श्रमशक्ति में खोज निकला था । -अनिल राजिमवाले

ये कैसा देवबन्द है जनाब

हाल ही में पाकिस्तान से एक वरिष्ठ पत्रकार जनाब वुसतुल्लाह ख़ान भारत की यात्रा पर आये और उन्होने अपनी यात्रा के दो दिन यूपी के (सहारनपुर) कस्बा देवबन्द मे बिताये। उनका अनुभव यहां कैसा रहा उन्होने लौट जाने के बाद उसे शब्दों की शक्ल दी। उनका लेख बीबीसी के पोर्टल पर प्रकाशित हुआ। पढकर अच्छा लगा इसलिये आपके लिये यहां पोस्ट कर रहा हूँ उम्मीद है आपको भी पसन्द आयेगा वुसतुल्लाह ख़ान साहब का ये लेख:-
मैंने पिछले हफ़्ते दो दिन उत्तर प्रदेश के क़स्बे देवबंद में गुज़ारे। वही देवबंद जिसने पिछले डेढ़ सौ वर्षों में हज़ारों बड़े-बड़े सुन्नी उलेमा पैदा किए और जिनके लाखों शागिर्द भारतीय उप-महाद्वीप और दुनिया के कोने-कोने में फैले हुए हैं। आज भी दारुल-उलूम देवबंद से हर साल लगभग चौदह सौ छात्र आलिम बन कर निकलते हैं। देवबंद, जिसकी एक लाख से ज़्यादा जनसंख्या में मुसलमान 60 प्रतिशत हैं। वहाँ पहुँचने से पहले मेरी ये परिकल्पना थी कि ये बड़ा सूखा सा क़स्बा होगा, जहाँ उलेमा की तानाशाही होगी और उनकी ज़ुबान से निकला हुआ एक-एक शब्द इस इलाक़े की मुस्लिम आबादी के लिए अंतिम आदेश का दर्जा रखता होगा, जहाँ संगीत के बारे में गुफ़्तगू तक हराम होगी, हिंदू और मुसलमान एक दूसरे को दूर-दूर से हाथ जोड़ कर गुज़र जाते होंगे, वहाँ किसी की हिम्मत नहीं होगी कि बग़ैर किसी डाँट-फटकार के बिना दाढ़ी या टख़नों से ऊँचे पाजामे के बिना वहाँ बसे रह सकें। देवबंद में मुसलमान मुहल्लों में अज़ान की आवाज़ सुनते ही दुकानों के शटर गिर जाते होंगे और सफ़ेद टोपी, कुर्ता-पाजामा पहने दाढ़ी वाले नौजवान डंडा घुमाते हुए ये सुनिश्चित कर रहे होंगे कि कौन मस्जिद की ओर नहीं जा रहा है। इसीलिए जब मैंने सफ़ेद कपड़ों में दाढ़ी वाले कुछ नौजवानों को देवबंद के मदरसे के पास एक नाई की दुकान पर शांति से अख़बार पढ़ते देखा तो फ़्लैशबैक मुझे उस मलबे के ढेर की ओर ले गया जो कभी हज्जाम की दुकान हुआ करता था। जब मैंने टोपी बेचने वाले एक दुकानदार के बराबर एक म्यूज़िक शॉप को देखा जिसमें बॉलीवुड मसाला और उलेमा के भाषण और उपदेश पर आधारित सीडी और कैसेट साथ साथ बिक रहे थे तो मेरा दिमाग़ उस दृश्य में अटक गया जिसमें सीडीज़ और कैसेटों के ढेर पर पेट्रोल छिड़का जा रहा है। जब मैंने बच्चियों को टेढ़ी-मेढ़ी गलियों और बाज़ार से होकर स्कूल की ओर जाते देखा तो दिल ने पूछा यहां की लड़कियों के साथ स्कूलों में किसी को बम लगाने का विचार अब तक क्यों नहीं आया। जब मैंने बुर्क़ा पहने महिलाओं को साइकिल रिक्शे में जाते देखा तो मन ही मन पूछने लगा यहां मुहर्रम के बग़ैर महिलाएं आख़िर बाज़ार में कैसे घूम फिर सकती हैं। क्या कोई उन्हें सोटा मारने वाला नहीं। जब मैंने बैंड बाजे वाली एक बारात को गुज़रते देखा तो इंतज़ार करता रहा कि देखें कुछ नौजवान बैंड बाजे वालों को इन ख़ुराफ़ात से मना करने के लिए कब आँखें लाल करते हुए आते हैं। जब मुझे एक स्कूल में लंच का निमंत्रण मिला और मेज़बान ने खाने की मेज़ पर परिचय करवाते हुए कहा कि ये फ़लाँ-फ़लाँ मौलाना हैं, ये हैं क़ारी साहब, ये हैं जगदीश भाई और उनके बराबर में हैं मुफ़्ती साहब और वो जो सामने बैठे मुस्कुरा रहे हैं, हम सबके प्यारे लाल मोहन जी हैं..... तो मैंने अपने ही बाज़ू पर चिकोटी काटी कि क्या मैं देवबंद में ही हूँ? अब मैं वापस दिल्ली पहुँच चुका हूँ और मेरे सामने हिंदुस्तान और पाकिस्तान का एक बड़ा सा नक़्शा फैला हुआ है, मैं पिछले एक घंटे से इस नक़्शे में वो वाला देवबंद तलाश करने की कोशिश कर रहा हूँ जो तालेबान, सिपाहे-सहाबा और लश्करे-झंगवी जैसे संगठनों का देवबंद है। (साभार-बीबीसीहिन्दी.कॉम)

Monday, May 25, 2009

इप्टा दिवस की हार्दिक शुभकामनाऐं

ग़र हो सके तो अब कोई शम्मा जलाईये,
इस दौरे सियासत का अन्धेरा मिटाईये।
भरतीय जन् नाट्य संघ "इप्टा" दिवस के मौके
पर सभी साथियों को हार्दिक शुभकामनाऐं
IPTA is the short form for Indian People’s Theatre Association. In the Hindi belt it is called Bhartiya Jan Natya Sangh, in Assam and West Bengal, Bhartiya Gan Natya Sangh and in Andhra Pradesh, Praja Natya Mandali. The mission statement of IPTA is ‘People’s Theatre Stars the People’. The symbol designed by the famous painter Chitta Prasad is a drummer (nagara vadak), which is a reminder of one of the oldest medium of communication. IPTA was established at the national level on May 25, 1943 in Bombay (now Mumbai). The Government of India issued a commemorative stamp in 1993 on the occasion of its Golden Jubilee.

Sunday, May 24, 2009

अधिकारियों का माफिया ग्रुप

राजस्थान में जितने भी भारतीय प्रशासनिक सेवा,पुलिस सेवा और राजस्थान प्रशासनिक सेवा के अधिकारी हैं उनमे से अधिकांश एक बार अपनी पोस्टिंग श्रीगंगानगर जिले में होने की तमन्ना रखते हैं। इसके लिए मैंने ख़ुद अधिकारियों को नेताओं के यहाँ हाजिरी लगाते,मिमियाते देखा है। कितने ही अधिकारी हमारे जिले में सालों से नियुक्त हैं। सरकार किसी की हो,ये कहीं नहीं जाते। वैसे तो ये सरकार की ओर से जनता की सेवा और उनके काम के लिए होतें हैं। अधिकारी की कोई जाति भी नहीं होती, क्योंकि उनको तो सब के साथ एक सा व्यवहार करना होता है। किंतु श्रीगंगानगर में ये सब कुछ नहीं रहता। यहाँ इन अधिकारियों की जितनी मनमर्जी चलती है उतनी राजस्थान में कहीं नहीं चलती। यहाँ एक दर्जन से अधिक दैनिक अख़बार निकलते हैं,इसके बावजूद अधिकारियों में पर किसी का अंकुश नहीं है। किसी अधिकारी के खिलाफ किसी अख़बार में कुछ नहीं छपता। चाहे अधिकारी कितनी भी दादागिरी करे। गत दिवस एक अधिकारी की कार्यवाही का विरोध हुआ। उस अधिकारी ने अपनी जाति के संगठन को आगे कर दिया। उसके बाद अधिकारियों की बैठक हुई। एकजुटता दिखाई गई। ऐसा हुआ तो ये कर देंगे,वैसा हुआ तो वो कर देंगे, स्टाईल में बातें हुईं। जैसे माफिया होते हैं। इसका मतलब सीधा सा कि जनता को जूते के नीचे रखो, नेता जी कुछ करेंगें नहीं क्योंकि वही तो हमें लेकर आयें हैं। अधिकारियों के अन्याय का विरोध करो तो सब अधिकारी जनता के खिलाफ हो जाते हैं। कितनी हैरानी की बात है कि जिन अधिकारियों को जन हित के लिए सरकार ने लगाया,वही अधिकारी दादागिरी करतें हैं। एक परिवार ने एक अधिकारी द्वारा की गई दादागिरी दिखाने, बताने के लिए एक संपादक को फ़ोन किया। संपादक का कहना था कि आप किसी होटल में बुलाओ। पीड़ित ने कहा, सर हम तो मौका दिखाना चाहते हैं। लेकिन ना जी , संपादक ने यह कह कर मौके पर आने,अपना प्रतिनिधि भेजने से इंकार कर दिया कि आप हमें इस्तेमाल करना चाहते हैं। अब जनता किसके पास जाए। नेता के पास जाने से कुछ होगा नहीं। अधिकारी डंडा लिए बैठें हैं। संपादक जी मौके पर आना नहीं चाहते। ऐसी स्तिथि में तो जनता को ख़ुद ही कुछ करना होगा। जब जनता कुछ करेगी तो फ़िर वही होगा जो अक्तूबर २००४ में घड़साना-रावला में हुआ था। तब करोडों रुपयों की सम्पति जला दी गई थी। पुलिस की गोली से कई किसान मारे गए थे। हम ये नहीं कहते कि यह सही है,मगर जब सभी रास्ते बंद हो जायें ,कोई जायज बात सुनने को तैयार ही ना हो, अफसर केवल फ़ैसला सुनाये, न्याय न करे तो आख़िर क्या होगा? बगावत !काफी लोग कहेंगें कि आपने संपादक और अधिकारियों के नाम क्यों नहीं लिखे? इसका जवाब है , हम भी एक आम आदमी हैं, इसलिए इनसे डरते हैं, डरतें हैं।

Saturday, May 23, 2009

बारूद के ढेर पर श्रीगंगानगर

श्रीगंगानगर! भारत पाक सीमा के निकट महाराजा गंगा सिंह द्वारा बसाया गया एक नगर। साम्प्रदायिक सदभाव की मिसाल श्रीगंगानगर। यहाँ के सदभाव को ना तो गुजरात के दंगे तोड़ सके ना पंजाब का आतंकवाद। जबकि श्रीगंगानगर पंजाब से केवल ५ कीमी दूर है। मगर अब कहानी कुछ कुछ बिगड़ने लगी है। एक चिंगारी शोला बन जाती है। गत दिवस ऐसा ही हुआ। नगर में आगजनी हुई,तोड़फोड़ हुई। कई घंटे लोग टेंशन में रहे। लेकिन इस बात की चिंता अधिकारियों को तो होने क्यों लगी। चिंता नगर वालों को होनी चाहिए, उनको भी नहीं है। अगर बॉर्डर वाले नगर में जिसके तीन तरफ़ सैनिक छावनियां और एक तरफ़ पाकिस्तान हो वहां तो अधिक से अधिक सावधानी बरतनी चाहिए, सभी पक्षों की ओर से। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। यह खतरनाक संकेत है इस नगर के लिए। अगर यही हाल रहा तो एक दिन सम्भव है ऐसा आए जब किसी के हाथ में कुछ नहीं होगा। जिसके हाथ में होगा वह बॉर्डर के उस पर बैठा हमारी नासमझी पर ठहाके लगा रहा होगा। बड़ी घटना की शुरुआत इसी प्रकार छोटी छोटी घटनाओं की रिहर्सल से ही तो होती है। अफसरों का क्या है श्रीगंगानगर नहीं तो और कहीं। मगर यहाँ के लोगों का क्या होगा? इसका जवाब किसी के पास नहीं हैं। यह कितना गंभीर मामला है लेकिन टीवी न्यूज़ चैनल्स वालों को इस प्रकार की ख़बर चाहिए ही नहीं। ये तो सब के सब सत्ता के आस पास रहे। । दिल्ली जयपुर के अख़बारों के लिए भी शायद यह कोई ख़बर नहीं थी। कितनी अचरज की बात है कि बॉर्डर पर बसे राजस्थान के इस श्रीगंगानगर के चिंता किसी को नहीं है। नारदमुनि तो केवल अपने प्रभु से प्रार्थना ही कर सकता है। पता नहीं प्रभु को भी समय है कि नहीं।

Friday, May 22, 2009

हम कैसे पत्रकार बनते जा रहे हैं?

पत्रकारिता के पेशे मे हम और हमारे साथी किस दौर से गुज़र रहे हैं उसका अन्दाज़ा लगाना अब ज़्यादा मुश्किल नही है। टेलीविज़न हो या अखबार सभी जगह पत्रकारों को इस्तेमाल किया जा रहा है या फिर वो इस्तेमाल हो रहे हैं। लेकिन ये सारी कवायद पत्रकारिता के मकसद के लिये नही बल्कि सनसनीखेज़ ख़बरों के लिये है। इस दौरान कुछ इस तरह के काम या ख़बरें भी पत्रकारों को करनी पड़ रही हैं जो वो नही करना चाहते। इसे परिवार और अपना पेट भरने की मजबूरी कहा जा सकता है। भले ही हम खुद को पत्रकार कहते हों लेकिन असलियत मे हम क्या हो गये हैं ये एक लम्बी बहस का मुद्दा है बहरहाल एक न्यूज़ चैनल मे काम करने वाले एक पत्रकार साथी ने मेल भेजकर अपना दर्द कुछ शब्दों की शक्ल मे बयां करने की कोशिश की है जिसके साथ नाम गुप्त रखे जाने की गुज़ारिश भी है। इस दर्द को आपके लिये यहां पोस्ट कर रहा हूँ क्योंकि ये सिर्फ एक की नही बल्कि कईयों की कहानी है। :- "मैं भी एक पत्रकार हूं'', यह अहसास दिल में एक जज्बा पैदा किये रहता था। कुछ दिन पहले एक रेड लाइट एरिया की खबर कवर करने गया तो खुद में और वहां खड़ी मिली पथराई-सी आंखों वाली कांता में कुछ भी फर्क नहीं पाया. अब तो कहीं खुद को पत्रकार बताते हुए परिचय देता हूं तो कांता की वही तस्वीर आंखों के सामने आ जाती है जिसमें उसकी आंखों से दर्द तो झांकता है मगर अपने धंधे की मजबूरी चेहरे पर मुस्कराहट बनाये रखने को मजबूर करती रहती है. हम भी तो कुछ ऐसा ही कर रहे हैं. हमे पता है की हमारी खबरों को संसथान अपने व्यावसायिक हितों के हिसाब से चलाता/छापता है, फिर भी खबरों के मैनेजर हमारे "सर" हैं। "हमें माफिया, चरित्रहीन और सड़क छाप से करोड़पति बने नेताओं की खबर उन्हें महिमा मंडित करके बनानी पड़ रही है क्योंकि ऐसा नहीं करेंगे तो नौकरी कौन देगा ? माफिया से पैसे लेकर और चार सौ बीसी करने वाले, धोखाधड़ी से अकूत पैसा पैदा करने वाले धंधेबाज लोग पत्रकारिता समूहों के मालिक बन बैठे हैं। वो हमारे "सर" हैं क्योंकि वो हमारा पेट पाल रहे हैं, भले ही आधी रोटी खुद ही रख लेते हों। न्यूज डेस्कों पर बैठी वो कमसिन कन्याएं भी हमारी बॉस हैं जिन्हें ये नहीं पता कि एसपी थाने में बैठता है या फिर वो कोई बड़ा अफसर होता है ? तनख्वाह पांच महीने न मिले तो कोई बात नहीं। तनख्वाह मांगने का हमें अधिकार नहीं है। तनख्वाह मालिक काट कर आधी कर दे तो भी हमें पूछने का अधिकार नहीं "क्योंकि हम कांता के दुःख-दर्द की बात तो उठा सकते हैं मगर अपनी नहीं"। "उस मजदूर की आवाज बुलंद कर सकते हैं जिसकी मजदूरी ग्राम प्रधान फर्जी मास्टर रोल बनाकर हड़प कर जाता है" मगर अपनी नहीं जिसके हजारों रूपये मालिक हड़प कर जाता है। "कांता को तो अपनी मजदूरी का पैसा रोज मिल ही जाता है, भले ही पुलिस, दलाल और कोठे की मालकिन अपना हिस्सा उससे रोज हड़प लते हों मगर मुझे तो ये भी पता नहीं होता की अपनी मजदूरी कब मिलेगी? अपना ईमान धर्म और जज्बा बेचने की मजदूरी? फिर मै अपनी तुलना कांता से क्यों करूँ? शायद और कोई और होगी. कांता के जैसी ....बस इसी तलाश में हूं। (मै एक न्यूज चैनल में वरिष्ट पत्रकार हूं। कृपया मेरी पहचान गुप्त रखी जाये।)

Sunday, May 17, 2009

इंग्लिश फॉण्ट

आपका बहुत बहुत शुक्रिया jo आपने अपने ब्लॉग पर लिखने की इजाज़त दी । बड़ी मुश्किल है परवेज़ भाई आप ज़रा इसका हल बताइए कुछ चीज़ें मैं इंग्लिश में लिखना चाहता हूँ पर एक शब्द लिखने के बाद जैसे ही स्पेस बार दबाता हूँ वो हिन्दी में कनवर्ट हो जाता है क्या करुँ ? फॉण्ट लिस्ट में हिन्दी, कन्नड़ ,तमिल, तेलगु और मलयालम है लेकिन इंग्लिश नहीं है रास्ता बतायिए एक बार फिर शुक्रिया आपके उत्तर का इंतज़ार रहेगा मेरे ब्लॉग का नाम है yayawargeeयायावारगी.ब्लागस्पाट.com

आडवानी जी राम राम

---- चुटकी----
उम्र हो गई ज्यादा
अब आप करो आराम,
हमारा तो स्वीकार करो
जय जय जय सिया राम।

Saturday, May 16, 2009

आज प्रार्थना का दिन है

आज प्रार्थना का दिन है। कहते हैं कि प्रार्थना में बहुत अधिक शक्ति होती है। प्रार्थना की जरुरत इसलिए है क्योंकि आज यह तय होने वाला है कि अब भारत की जनता को कौन हांकेगा। चूँकि हमने परिवार सहित ईश्वर के सामने प्रार्थना करनी थी इसलिए जल्दी उठ गया। हालाँकि बच्चों , बीबी ने काफी शोर मचाया, सोने दो, हमें क्या पड़ी है,पड़ोसियों के यहाँ से भी खर्राटों की आवाज आ रहा है। सारा देश ही सो रहा है इसलिए तुम भी मुह पर कपड़ा ढक कर सो जाओ। लेकिन हमारे पर तो देशभक्ति के भूत सवार हो गया। इसलिए न सोये न सोने दिया।स्नान करके सब के सब लग गए ईश्वर से प्रार्थना करने। हे! ईश्वर तुम अगर हो तो इतना ध्यान रखना कि हमारा देश वह चलाये जिसको घर चलाना आता हो। अब हमारे हाथ में तो कुछ है नही। हमने तो हमारे हाथ कटवा लिए। अब तो हम यही चाहते हैं कि हमें किसी मुर्ख के हाथों मार ना खानी पड़े। हमने मार तो खानी है लेकिन कोई समझदार मारेगा तो लगेगा कि हमारी शान बन रही है। हे ! ईश्वर कोई ऐसा ना आ जाए जो मारे भी और रोने भी ना दे। रोने से मन हल्का हो जाता है बस, दर्द थोड़े ना जाता है। ईश्वर जी आप तो जानी जान हो, सबका भूत,वर्तमान और भविष्य जानते हो। यह भी निश्चित रूप से जानते होंगें कि वह कौन होगा जो देश को एक बंदी की भांति चलाएगा। जो केवल अपनी गद्दी बचाने के साम,दाम,दंड और भेद सबका इस्तेमाल करना जानता होगा। किंतु उसको यह नहीं पता होगा कि देश और देशवासियों का भला कैसे होता है। खैर,ईश्वर जी जो आपने सोच रखा है उसको बदलने की ताकत तो किसी में नहीं है। लेकिन इतनी प्रार्थना करने का हक़ तो है कि कोई ऐसा हमारी छाती पर बिठाना जो हमें कम से कम तकलीफ दे। आप जानते हैं कि आज देश भर में वोटों की गिनती होनी है। और कोई काम तो आज,कल,परसों होगा नहीं। यह गिनती तय करेगी कि देश में किसकी सरकार होगी। अरे! मैं भी किसको बताने लगा। आप ही तो करने वाले हैं यह आप की ही तो लीला है। हे! कृपानिधान आपके कलयुगी नारदमुनि और उसके परिवार की प्रार्थना पर समय मिले तो गौर करना। क्योंकि आज आपके यहाँ तो बड़े बड़े नेताओं की भीड़ लगी होगी। इस भीड़ के पीछे देख लेना आपका नारदमुनि कहीं दुबका खड़ा होगा। मन में यही प्रार्थना लिए कि हे नारायण इस देश पर दया करना। इस पर कोई आंच ना आए। इस देश के लोग हमेशा मुस्कुराते रहें, हर हाल में हर वक्त। बाकी आपकी मर्जी। बड़े बड़े लोगों के बीच में पता नहीं मेरी प्रार्थना आप तक पहुँचेगी भी या नहीं। हम तो कहते हैं सब के सब देश वासी आज प्रार्थना करें अपने अपने ईश्वर से।

सभी ब्लाग सदस्यो से एक अपील!

अंकित माथुर:
ब्लाग के सभी सदस्यों से सहायता हेतु एक अपील
परवेज़ भाई, एवं समस्त ब्लाग सदस्य गण। आप सभी से एक अपील है, मेरे परिचय में एक परिवार के साथ दुर्भाग्यवश एक अप्रत्याशित घटना घटित हो गई है। मामला कुछ यूं है। मेरे परिचित और उनके परिवार के कुछ सदस्य दिनांक ६ मई २००९ को मरुधर एक्स्प्रेस में एस ७ कोच संख्या में यात्रा कर रहे थे। अचानक ट्रेन टूंडला स्टेशन के आउटर पर कुछ समय के लिए रुकी व मेरे परिचित परिवार की पुत्र वधू श्रीमति कोमल तोतलानी परिवार के सदस्यों को बताकर टायलेट गईं। इसी दौरान ट्रेन चल दी, टूंडला के बाद २०-२५ मिनट तक भी जब वे वापस नहीं आईं तो परिवारीजनों द्वारा इनकी खोज की गई, पूरी ट्रेन में इन्हे खोजा गया लेकिन इनका कोई पता नहीं चल पाया। टूंडला थाने के पर इनकी गुमशुदगी की प्राथमिकी दर्ज कराई गई। पूरे मामले में स्थानीय एव जी आर पी पुलिस के हाथ कोई भी सूत्र नहीं लग पाया है।  किसी भी व्यक्ति ने ना तो परिवार के साथ कोई संपर्क स्थापित किया है न ही किसी प्रकार की सूचना प्रेषित की है। इस मामले में जी आर पी के पुलिस अधिकारी उपेंद्र कुमार अग्रवाल का कहना है कि अभी तक इस प्रकरण में कोई खास कारण सामने नही आया है। अपहरण के मामले को उन्होने स्पष्ट रूप से खारिज कर दिया है। मेरा इस ब्लाग से जुड़े सभी पत्रकार एवं गैर पत्रकार बंधुओं से नम्र निवेदन है कि यदि किसी भी प्रकार से इनसे जुडी़ कोई जानकारी मिले तो कृपया नीचे दिये गये नम्बरों पर सूचना देने का कष्ट करें। आपकी जानकारी के लिए दर्ज कराई गई प्राथमिकी की कापी एवं गुमशुदा की तस्वीरें मैं नीचे पोस्ट कर रहा हूं। मुझे यकीन है कि पहले की तरह सभी सदस्य सक्रिय रूप से इस विषय को ध्यान में रख कर पीड़ित परिवार की अवश्य सहायता करेंगे। 
0141- 2785444 आवास
09413280700 मोबाईल
09785297911 मोबाईल
05612- 285014 कण्ट्रोल रूम फ़िरोज़ाबाद
09454404422 एस ए़च ओ टूण्डला
एफ़ आई आर की कापी 
अखबार में छपी खबर

Thursday, May 14, 2009

रंगलीला की दस दिवसीय कार्यशाला का आगाज़

आगरा। शहर की अग्रणी नाट्य संस्था रंगलीला दस दिवसीय रंगमंच कार्यशाला का आयोजन करने जा रही है। इस कार्यशाला का विधिवत शुभारम्भ आज उत्तर मध्य रेलवे संस्थान, आगरा कैन्ट मे किया गया। संस्था के अध्यक्ष एंव जाने माने पत्रकार अनिल शुक्ल के मुताबिक कार्यशाला के दौरान प्रतिभागियों को रंगमच के विषय में बेसिक जानकारियां दी जायेंगी, जो एक अच्छा कलाकार बनने मे सहायक हो सकती हैं। उनके मुताबिक रंगमंच किसी भी इन्सान को बेहतर तरीके से जीवन जीने की कला भी सिखाता है। रंगमंच कार्यशाला के संयोजक योगेन्द्र दुबे के अनुसार अभी तक रंगमंच प्रशिक्षण के लिये चालीस से ज़्यादा रजिस्ट्रेशन हो चुकें हैं। और अगले दो दिनों मे ये संख्या बढ भी सकती है। कार्यशाला का उदघाटन रेलवे के डीसीएम राजेश कुमार ने किया जबकि अध्यक्षता वरिष्ठ रंगकर्मी एस एम गोगिया ने की। इस मौके पर केन्द्रीय हिन्दी संस्थान के निदेशक रामवीर सिहं, सामाजिक संस्था थिरकन की अध्यक्षा श्रीमती स्नेहलता सिंह, राजेश्वर प्रसाद सक्सेना, कवि सोम ठाकुर, केशव प्रसाद सिंह, जेपी शर्मा, मनमोहन भारद्वाज, गोकुल चन्द, डा. मधुरिमा शर्मा, सीपी रॉय, श्रवणलाल अग्रवाल, मनोज सिंह, अशोक कुमार, सोनम वर्मा, आदि मौजूद थे। संस्थान के सचिव दिनेश चन्द शर्मा ने सभी का धन्यवाद जताया।

आठ हज़ार किमी से भी लम्बी है चाईना वॉल

चीन। एक विस्तृत सर्वेक्षण से पता चला है कि दीवार अब तक की अनुमानित लंबाई से भी ज़्यादा लंबी है। दो साल तक चले इस सर्वेक्षण में पता चला है कि दीवार की लंबाई 8,850 किलोमीटर है। अब तक आम तौर पर इस दीवार की लंबाई लगभग पाँच हज़ार किलोमीटर मानी जाती थी। अब तक के अनुमान मुख्य रूप से ऐतिहासिक आँकड़ों पर ही निर्भर रहे हैं। चीनी मीडिया के अनुसार इंफ़्रा-रेड और जीपीएस तकनीक के ज़रिए कुछ ऐसे हिस्से भी खोज निकाले गए हैं जो समय के साथ धूल मिट्टी में दब गए थे। इसके ज़रिए पता चला कि 6,259 किलोमीटर लंबे दीवार के हिस्से थे, 359 किलोमीटर की सुरंगें मिलीं और 2,232 किलोमीटर के पहाड़ या नदी जैसे प्राकृतिक अवरोध थे। ये अध्ययन सांस्कृतिक सभ्यता और सर्वेक्षण के सरकारी संगठन ने किया है। विशेषज्ञों का कहना है कि दीवार के जो नए हिस्से मिले हैं वे मिंग राजवंश के दौरान बनाए गए थे और वे उत्तरी लिओनिंग प्रांत की हू पहाड़ियों से पश्चिमी गांसू प्रान्त के जिआयू दर्रे तक फैले हैं। ये परियोजना अभी अगले लगभग डेढ़ साल तक और चलेगी जिससे क़िन और हान राजवंशों के दौरान बनाई गई दीवार की लंबाई मापी जा सकेगी। ये दीवार चीनी साम्राज्य की उत्तरी सीमा को बचाने के लिए बनवाई गई थी। भूगर्भ वैज्ञानिक काफ़ी समय से इस तरह का सर्वेक्षण कराने की माँग कर रहे थे जिससे इस दीवार को और बेहतर ढंग से समझा जा सके। यूनेस्को ने 1987 में इसे विश्व की धरोहरों की सूची में शामिल किया था। दुनियाभर से पर्यटक इस दिवार को देखने के लिये चीन आते हैं।

सबसे गायक मंडली का विश्व रिकॉर्ड

हैदराबाद में एक लाख 60 हज़ार लोगों ने एकसाथ गीत गाकर दुनिया में सबसे बड़ी गायक मंडली का 72 साल पुराना विश्व रिकॉर्ड तोड़ दिया है। इस मंडली के सदस्यों ने रविवार को एक कार्यक्रम में तेलुगू संत अन्नामाचार्य के भजन गाए। गिनीज़ वर्ल्ड रिकॉर्ड्स के निर्णायक सदस्य ने कहा कि श्रोता अपने इस रिकॉर्ड बनाने पर ख़ासे ख़ुश थे। इससे पहले वर्ष 1937 में आज के पोलेंड के रोक्लॉ में हुई एक प्रतियोगिता में 60 हज़ार लोगों ने ऐसा रिकॉर्ड बनाया था। इस कार्यक्रम में गिनीज़ वर्ल्ड रिकॉर्ड के निर्णायक सदस्य रेमंड मार्शन इस कीर्तिमान का प्रमाणपत्र देने के लिए मौजूद थे। उन्होंने इस कार्यक्रम को दुनिया भर में इस साल रिक़ॉर्ड तोड़ने की घटनाओं में प्रमुख बताया। हैदराबाद में आयोजित इस कार्यक्रम में हिस्सा लेने वाले लोगों ने विश्व रिकॉर्ड तोड़ने के प्रयास के तहत अन्नामाचार्य के सात भजन गाए। यह कार्यक्रम आंध्र प्रदेश राज्य सांस्कृतिक परिषद और एक ग़ैर सरकारी संगठन सिलिकॉन आंध्रा ने अन्नामाचार्य के 601वें जन्मदिवस को मनाने के लिए आयोजित किया था। अन्नामाचार्य दक्षिण भारत के सबसे प्रभावशाली संत कवियों में से एक हैं जिन्होंने भगवान वेंकटेश्वर की स्तुति में क़रीब 14 हज़ार भजन लिखे थे। (साभार-BBCHINDI.COM)

Tuesday, May 12, 2009

भारतीय मीड़िया की कहानी एक विदेशी की ज़ुबानी

मशहूर यूरोपीयन अखबार वाल स्ट्रीट जरनल ने लोकसभा चुनाव के दौरान भारतीय मीड़िया और कुछ पत्रकारों की भूमिका को उजागार किया है। अखबार के दिल्ली ब्यूरो चीफ ने अपने एक लेख मे एक निर्दलीय प्रत्याक्षी के साथ बातचीत पर आधारित तथ्यों मे स्थानीय पत्रकारों के कारनामें को बखूबी शब्दों का जामा पहनाया है। लेकिन इसे पढकर तकलीफ भी हुई और शर्मिन्दगी भी। उस आर्टिकल को आपके लिये यहां डाल रहा हूँ।.... आपकी प्रतिक्रिया का इन्तज़ार रहेगा।:- Want Press Coverage? Give Me Some Money By PAUL BECKETT Ajay Goyal is a serious, independent candidate contesting for a Lok Sabha seat in Chandigarh. Never heard of him? Neither, probably, have a lot of people in Chandigarh because when it came to getting press coverage for his campaign he was faced with a simple message: If you want press, you have to pay. So far, he says, he's been approached by about 10 people – some brokers and public relations managers acting on behalf of newspaper owners, some reporters and editors – with the message that he'll only get written about in the news pages for a fee. We're not talking advertising; we're talking news. One broker offered three weeks of coverage in four newspapers for 10 lakh rupees ($20,000). A reporter and a photographer from a Chandigarh newspaper told him that for 1.5 lakh rupees ($3,000) for them and a further 3 lakh rupees ($6,000) for other reporters, they could guarantee coverage in up to five newspapers for two weeks. "We would do good coverage for you," he says they told him. All of those who approached him either were from national Hindi language papers or regional papers, Mr. Goyal says. In one case, he went along to see what would happen: a press release he submitted full of falsehoods – claiming he had campaigned in places he had never been, for instance – ran verbatim. One thing he has never seen on his real campaign: a reporter there to cover the story. "It's disappointing," Mr. Goyal says. "What good is literacy and education if people have no access to real news, investigation, skepticism or a questioning reporter." At the nexus of corruption in India, the nation's newspapers usually play either vigilante cop exposing wrongdoing in the public interest (on a good day, at a few publications) or spineless patsy killing stories on the orders of powerful advertisers. Many papers also engage in practices that cross the ethical line between advertising and editorial in a way that is opaque, if not downright obscure, to readers. But it is of another order of magnitude to see reporters, editors and newspaper owners holding the democratic process to ransom. A free (in every sense) press is an integral part of a vibrant democracy. A corrupt press is both symptom and perpetrator of a rotten democracy. "I'm not saying all media is biased but there is a growing sense in people's minds that a lot of the media is biased," says Anil Bairwal, national coordinator of National Election Watch. "Some do it in a sublime manner and some do it openly." So why are we surprised when the voter turnout is so low, despite the much-touted surge of political awareness among the young and post-Mumbai? It's all part and parcel of the public disgust with the political system and the pillars of the Establishment that support that system as well. For every newly-minted reform-minded, politically aware voter, there are probably hundreds of jaded citizens who just decide the heck with it. How widespread is the practice of pay per say? The best-known English-language dailies typically don't do it so blatantly, candidates and others involved in the elections say. Rather, those papers are more likely to hue closely to one major party or the other, making it tough for candidates who don't fit the papers' view of the world to be heard. But in the Hindi, Urdu and Gujarati media, to name a few, the practice is widespread, candidates say. N. Gopalaswami, retired Chief Election Commissioner, says in an interview, "This is not something that can be ignored. It is not just a few apparent cases, it is much more than that." He has heard of newspapers proferring a rate card - one price for positive coverage, another for not negative coverage. The commission heard complaints in both 2007 and 2008 about candidates being charged for coverage. Among them, the national Communist parties who don't have the deep coffers to spend on campaigns. In Mumbai, a city appropriately geared to commerce, politicians are faced with multiple payment options. Consider these phrases from newspaper editors and brokers, which I culled from campaigners: "You want a front page photo for free? This is something people pay for." "If you want a picture in there or if you want a story, we have to be paid." "We're going to publish the interview, but you need to buy 5,000 copies of our paper." "1.2 lakhs ($2,400) for the next two weeks and I will take care of all that coverage." —Paul Beckett is the WSJ's bureau chief in New Delhi

फ्रैंडली फाइट समाप्त, रिझाने का समय

राजनीति की फ्रैंडली फाइट अब एक बार तो समाप्त हो गई। अब तो पोलाइट होने का वक्त है। यह समय की मांग भी है। जैसे--आप तो बड़े सुंदर लग रहे हो...... । आप कौनसे कम हो...... । आपकी चाल बहुत जानदार है.... । आप बोलते बहुत अच्छा हैं..... । आपकी साड़ी का जवाब नहीं। अरे साहब आप पर तो कुरता पायजामा बहुत ही फबता है.... । अरे यार तूने मेरे खिलाफ बहुत कुछ कहा.... । तो तूने भी कौनसी कसर रखी..... । अरे भाई तू तो मेरा स्वभाव जानता है....फ़िर जनता को संदेश भी तो देना था..... । लेकिन इन सब से वोटर तेरे खिलाफ हो गया.... । क्या हुआ , तेरे को तो फायदा हो गया.... । तेरा फायदा अपना ही तो है। हाँ यह बात तो है ही। आख़िर घी खिचड़ी में ही तो जाएगा। यही हम चाहते भी हैं। हम सब यही तो देख और पढ़ रहें हैं आजकल। जो कल तक एक दूसरे को फूटी आँख नहीं सुहाते थे वही इनदिनों एक दूसरे की प्रशंसा करने में लगे हैं।अब तो सब के सब नेता अभिनेता बन कर एक दूसरे को रिझाने की कोशिश में लगे हैं। एक दूसरे के निकट आने के बहाने तलाश किए जा रहें हैं। प्रेमियों की तरह मिलने और बात करने के अवसर खोजे या खुजवाये जा रहें हैं। मीडिया भी इस काम में इनकी मदद करता दिखता है। पहला दूसरे से दूरी बनाये था, दूसरा तीसरे से । चौथा अकेला चलने के गीत गा रहा था। देखो वोटर का खेल खत्म हो गया। शुरू हो चुका है असली खेल। सत्ता को अपनी रखैल बनने का खेल, अपनी दासी,बांदी बनाने का खेल,कुर्सी को अपने या अपने परिवार में रखने का खेल। इन सबका एक ही नारा होगा, वही नारा जो शायद बचपन में सभी ने कहा या सुना होगा " हमें भी खिलाओ,वरना खेल भी मिटाओ"। सम्भव है कुछ लोग एक बार किसी के साथ सत्ता के खेल में शामिल हो जायें और बाद में अपना बल्ला और गेंद लेकर चलते बनें। खेल चल रहा है, देखना है कौन किसको खिलायेगा। हाँ इस खेल में देश की जनता का कोई रोल नहीं है। इस खेल से सबसे अधिक कोई प्रभावित होगा तो वह जनता ही है,किंतु विडम्बना देखो अब इस खेल में उसकी कोई भागीदारी नही है।

Monday, May 11, 2009

कुछ बेवा आवाज़ें....

कुछ बेवा आवाजें अक्सर,

मस्जिद के पिछवाडे आकर...

ईटों की दीवार से लगकर,

पथराए कानो पे,

अपने होठ लगाकर,

इक बूढे अल्लाह का मातम करती हैं,

जो अपने आदम की सारी नस्लें उनकी कोख में रखकर,

खामोशी की कब्र में जा कर लेट गया है।

(गुलज़ार, हिंदीनेस्ट.com)

ज़िन्दगी को मौत के पहलू मे पाता हूँ.....

ऐ काश देखें वो मेरी पुरसोज़ रातों को,

मैं जब तारों पर नज़रें गड़ाकर आंसू बहाता हूं

तसव्वुर बन के भूली बातें याद आती हैं,

तो सोज़-ओ-दर्द की शिद्‍दत से पहरों तिलमिलाता हूं

कोई ख़्वाबों में ख़्वाबिदा उमंगों को जगाती है,

तो अपनी ज़िन्दगी को मौत के पहलू में पाता हूं

Sunday, May 10, 2009

माँ का आशीर्वाद सागर जैसा

जैसे ही माँ को चरण स्पर्श किए माँ ने आशीर्वाद के साथ एक जिल्द वाली किताब हाथ में दे दी और बोली, ले इसे इसको रख ले, अब मैंने क्या करनी है। "भक्ति सागर" नामक यह पुस्तक माँ के पास तब से देख रहांहूँ जब से मैंने होश संभाला है। यह पुस्तक भी की तरह काफी वृद्ध हो चुकी है। इसमे भी ज्ञान भरा हुआ है जैसे माँ के अन्दर में। किताब के पन्ने अब थोड़े बहुत टूटने फटने लगे है। मगर उसके अन्दर समाहित ज्ञान में किसी प्रकार की कमी नहीं आई है। सालों पहले जब कभी माँ इसको पढ़ती नजर आती तो मैं भी उसको कभी कभार पढ़ लिया करता था। अब अरसे बाद यह भक्ति सागर मुझे माँ के हाथ में दिखाई दिया। माँ अब पढ़ नही सकती इसलिए यह उनकी किसी पेटी या अलमारी में रखा हुआ था। जब से माँ ने इस पुस्तक को मुझे दिया है,तब से मन विचलित रहने लगा। क्योंकि माँ ने इस भक्ति सागर को कभी अपने से अलग नहीं किया था। अब उन्होंने अचानक अपने इस सागर को मेरी झोली में डाल दिया। मन डरा डरा सा है। क्योंकि माँ से पहले और बाद में कुछ भी नहीं है। माँ धरती की तरह अटल है और आकाश की भांति अनंत। चन्द्रमा की भांति शीतल है और सूरज की तरह ख़ुद जल कर संतान के अन्दर मन में उजाला करने वाली। माँ के मन की गहराई तो कई समुद्र की गहराई से भी अधिक होगी। एक माँ ही तो है जिसको कोई स्वार्थ नहीं होता। अपना पूरा जीवन इस बात के लिए समर्पित कर देती है कि उसकी सन्तान सुखी रहें। किताब को तो पढ़तें रहेंगे,माँ को आज तक नहीं पढ़ पाए। कोई पढ़ पाया है जो हम ऐसा कर सकें। जितना और जब जब पढ़ने की कोशिश की उतना ही डूबते चले गए प्रेम,त्याग,स्नेह,ममत्व की गहराइयों में। माँ ने आज तक कुछ नहीं माँगा। सुबह से शाम तक दिया ही दिया है। उनके पास देने के लिए ढेरों आशीर्वाद है। हमारा परिवार बड़ा धनवान है । हम हर रोज़ उनसे जरा से चरण स्पर्श कर खूब सारे आशीर्वाद ले लेतें हैं सुखी जीवन के। मेरा तो व्यक्तिगत अनुभव है कि अगर आपके पास माँ के आशीर्वाद का कवच है तो फ़िर आपके पथ सुगम है। कोई भी बाधा,संकट,परेशानी आपकी देहरी पर अधिक समय तक रहने की हिम्मत नहीं कर सकती। माँ का आशीर्वाद हर प्रकार की अल बला से बचने की क्षमता रखता है। एक बार दिन की शुरुआत उनके चरण स्पर्श करके करो तो सही, फर्क पता चल जाएगा।

Friday, May 8, 2009

सिसकते अरमान फीकी मुस्कान

नारी क्या है...... जो जन्म लेते ही घर परिवार की इज्जत और आबरूह हो जाती है..... जिसके कदम चलना भी नहीं सिखते............... और पांव में मर्यादा की बेड़िया डाल जाती है............. खुद की पहचान खोजती वो हर शख्स से यही सवाल करती है................ मैं कौन हूं................. जवाब तो मिला जरूर मिला.............. लेकिन उसमें भी उसका अस्तित्व................. किसी की परछाई के तले जबी हुई नजर आती है........... वो खुद की तलाश करती हुई परिवार की मर्यादा का बोझ ढोती हुयी॥ यौवन में प्रवेश कर जाती है.............. उसके ख्वाब आसमान की ऊचाइयों को छूने लगते है............ उसके अंदर भी प्यार के अंकुर फूटने लगते है॥ लेकिन वो अहसास कड़वी हकिकत के सामने छोटी नजर आती है............. हर पल दिल में सिर्फ यही ख्याल........... उसके कमजोर कंधो पर है................ किसी के परिवार की लाज................... वो दिल ही दिल में कसमसा जाती है................ उसका दिल उससे लाखों सवाल पूछता है............. लेकिन जवाब फिर से वहीं होता है……........... वो कौन है................... वो क्यों अपने अरमानों को पंख दे............ वो किसके लिए जिए................ इन्हीं सवालों के साथ वो अपनी उम्र की उस दहलीज पर आ जाती है॥ जहां उसे भी किसी की जरूरत होती है .......... जीवन साथी तो मिलता है........... साथ चलने की कसमें भी खाता है............. लेकिन ये क्या............. यहां भी नारी इच्छाओं का बोझ ढोती नजर आती है........... हर कदम के साथ टूटते है वो हसीन सपने.............. जिनको दिल में सजोएं वो ऊम्र की इस दहलीज पर आती है............. फीकी मुस्कान के पीछे सिसकते वो सपने हर पल करते है यहीं सवाल............... क्यों नहीं है तेरी जिंदगी का कोई अरमान................. क्यों दिल में धधकती आग पर फैला रखा है फिकी मुस्कान................ सोचती हूं खोजूं इन सब सवालों के जवाब................... दूर कहीं चली जाऊं इन रिश्तों के बोझ से.............. लेकिन ऐसा हो न सका................... बंध गए है मेरी पांव में ऐसी बेड़िया................. जो बन गए है मेरी पहचान..................... जिनके बिना एक कदम भी चलना हो जाएगा नाकाम............... कुछ ऐसे सिसकते सवालों के साथ नारी दुनियां से दूर चली जाती है................. और मर्यादाओं की बेडि़या किसी और को सौंप जाती है.................... लेकिन ये सवाल आज अपनी सिसकियों से बहुतों को रात भर जगाती है................ कभी कहीं तो इनके मिलेंगे जवाब..हम ना सही कोई औऱ सही.. जिएगा अपनी जिंदगी अपने शर्तों पर...वो अपने पंख फैला उड़ जाएगी आसमान की उस ऊचाई पर जहां सूरज भी अपनी गर्मी से तपता हुआ पानी की तलाश करता है... बहुत कुछ लिखना चाहती हूं अपने दिल के हर सवाल को खोजना चाहती हूं पर ऐसा हो नहीं पाता ना मालूम कब दिल में उठने वाले लाखों सवालों के जवाब मिलेंगे.. ना जाने कब दिल के अहसास महसूस होंगे... ना जाने कब???????????????????????

पर लग गये रुसवाईयों के..........

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खैर बदनाम तो पहले भी बहुत थे लेकिन,
तुम से मिलना था कि पर लग ऱुसवाईयों के।
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खतावार समझेगी दुनिया तुझे...........

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ख़ुदा हम को ऐसी ख़ुदाई न दे
कि अपने सिवा कुछ दिखाई न दे,
ख़तावार समझेगी दुनिया तुझे
अब इतनी भी ज़्यादा सफ़ाई न दे।
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तो बेहतर था......

सूखे सुखन के फेर में तुम जो न पड़ते तो बेहतर था,

गालिबन इतनी सुथरी ग़ज़लें न गढ़ते तो बेहतर था;

फाकामस्ती रंग तो लायी, अंदाज़-ए-बयां और हुआ,

तुम ने जो शेर पढ़े अच्छा लगा, साइंस पढ़ते तो बेहतर था!!

Thursday, May 7, 2009

अपनी प्रीत

नीला आकाश, नीला सागर, कितना गहन । हवा सा बहता, पारे सा फिसलता, चंचल मन । फूलों की खुशबू सी, छुपाये न छुपे ये अपनी प्रीत । ये ना माने, ना पहचाने, दुनिया की रीत । पर तन मन को दे जाती है कितनी उजास । मानना ही पडेगा तुमको भी कि ये है खास ।

वोट नहीं दिया टिप्पणी लिखवाई

"अगर आप वोट नहीं करते तो आप सो रहें हैं"। पप्पू ना बनो वोट डालो। हमने श्रीगंगानगर लोक सभा क्षेत्र के किसी उम्मीदवार को वोट नहीं डाला। लेकिन हमने बाकायदा अपने लेफ्ट हाथ की अंगुली पर स्याही का निशान लगवाया और राइट हाथ से हस्ताक्षर किए। किन्तू मशीन पर किसी का बटन नहीं दबाया। बात हुई ये कि काफीमगजमारी के बाद मेरे पोलिंग बूथ के पीठासीन अधिकारी इस बात से सहमत हो गए कि आप किसी को वोट न देना चाहो तो न दो,हम रजिस्टर पर यह लिख देंगें कि आपने इन उम्मीदवारों में से किसी भी उम्मीदवार के पक्ष में वोट डालने से इंकार कर दिया। उन्होंने अपने सहयोगी से यह टिप्पणी रजिस्टर पर लिखवाई" इनमे से किसी भी उम्मीदवार को वोट देने से इंकार कर दिया"। उसके बाद उन्होंने मेरे हस्ताक्षर करवाए और अपने ख़ुद के किए।ऐसा केवल मैंने नहीं किया। ऐसे वोटर कई हैं जिन्होंने इस प्रकार से अपनी नापसंदगी जाहिर की। एक बूथ पर तो एक वकील के ऐसा करने पर कई और ऐसा की करने को अपने आप राजी हो गए। बेशक इस प्रकार से उम्मीदवारों को नापसंद करने वालों की संख्या दर्जन भर ही हो, मगर कहीं से शुरुआत तो है। शुरुआत होने के बाद ही कोई बात दूर तक जा पाती है।

Saturday, May 2, 2009

आर है,तो आगे आओ प्लीज़

लंबे समय से प्रधानमंत्री की कुर्सी के लिए जबरदस्त मारा मारी मची है। जितनी पार्टी है उस से अधिक प्रधानमंत्री पड़ के दावेदार। आज बहुत से लोगों का तो किस्सा ही ख़तम कर देते हैं। तो सुनो! इस देश का प्रधानमंत्री वही बन सकता है जिसके नाम में कहीं ना कहीं "र" [ आर] अक्षर आता हो। आज तक जितने भी प्रधानमंत्री इस देश में हुए उनके नाम में कहीं ना कहीं र जरुर आया। अब संजय गाँधी नहीं बन सके। ऐसे ही देवी लाल ने १९८९ में अपना ताज वीपी सिंह को पहना दिया था। बहाना कोई भी रहा हो मगर उनके नाम में र नहीं था तो नहीं बने प्रधानमंत्री। अब यह चर्चा है कि सोनिया गाँधी आहत थी इसलिए प्रधानमंत्री नहीं बनीं। लेकिन असल बात ये कि उनके नाम में "र" नहीं है। अब मायावती हो या मुलायम सिंह अपने आप को प्रधानमंत्री का दावेदार बताते हैं मगर लगता तो नहीं कि वे सफल हो जायेंगें। अरे भाई इनके नाम में भी "र" नहीं है। हाँ, राहुल गाँधी हैं, प्रियंका गाँधी हैं, वरुण गाँधी है, शरद पवार भी खुश हो सकते है। नरेंद्र मोदी भी सपने ले सकते है। नारदमुनि के नाम से तो मैं भी ख्वाब देख सकता हूँ। गोविन्द गोयल के नाम से नहीं।हमारा तो यही कहना है कि जिन नेताओं के नाम में "र"[ आर] नहीं आता वे इस पद के लिए अपना समय ना ख़राब करें। ऐसे नेता किसी दूसरे मंत्रालय के लिए अपने आप को तैयार करें। ऐसे नेताओं को आगे आने दिया जाए जिनके नाम में कहीं ना कहीं "र" [ आर] अक्षर बैठा हुआ है। ये बात आज की नहीं है। १९८३ या १९८४ में मैंने एक लेख लोकल अखबार "सीमा संदेश" में लिखा था। जिसमे आर की बात कही थी। देखो कब तक चलता है ये "र" का चमत्कार। इसको संयोग कहें या टोटका, लेकिन अभी तक तो फिट है। अगर प्रधानमंत्री बनना है तो अपने नाम में कहीं ना कहीं "र"[आर] फिट करना ही पड़ेगा।

सुरक्षा अस्त्र

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