Monday, December 3, 2007
एक अजनबी से मुलाकात
आज तक मैं जानती थी , जय को विजय को।
जो मुझे हंसाता था ,दिल में दिए जलाता था ।
उम्मीदों की, आशाओ की।
यहां मेरा लक्ष्य निर्धारित था।
बार बार इसे पाकर मैं फूले नहीं समाती थी।
मुझे विश्वास हो गया था ,कोई शक्ति नहीं रोक सकती।
मुझे मनचाही मंजिल पाने से ।
अचानक मुझ पर कुठाराघात हुआ ,
और मेरी मुलाकात हुई पराजय से ।
इसने मेरे प्राणों का रस सोख लिया ,
चलते फिरते नर कंकाल में मुझे परिवर्तित किया।
मेरे सपने चूर चूर हो गये ,
मैं बदहवास हो भूमि पर गिर पड़ी ।
अचानक मेरी निद्रा टूटी,
पराजय रूपी विशाल दैत्य के अट्टाहस से।
मैने देखा,
वो मुझ पर हंस रहा था
उसकी बेहुदी हंसी मुझे तनिक भी नहीं भा रही थी ।
मैं तिलमिला उठी ,उसकी दुसरी क्रूर हंसी से।
कहकहे लगाते हुआ वह कहने लगा
वाह रे ईश्वर की सर्वश्रेष्ठ संतान ,
तेरी समझ पर मुझे दया आती है
फिर उसने मुझे बेटी शब्द से संबोधित किया ।
गंभीर और शांत मुद्रा में , प्यार से देखते हुए वह मुझसे बोला ।
मैं तुम्हारा कठोर पिता हूं ,
जय विजय ने तुम्हें कितना आदमी बनाया है।
इसकी परिक्षा लेने आया हूं ।
पर खेद होता है देखकर,
कम मनुष्य ही मेरा सामना कर पाते है ।
अधिकतर मानव मेरे एक ही झटके से ढेर हो जाते है ।
मनुष्य जीवन और संर्घष की कहानी है ।
जो मानव मुझ पर,
अर्थात पराजय पर विजय प्राप्त कर ले वहीं मनुष्य हैं।
उसकी बाते कुछ कुछ मुझे समझ आने लगी है,
सच इस अजनबी से मुलाकात मुझे हमेशा याद रहेगी।
तुलिका सिंह , सीएनईबी.
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4 comments:
पराजय पर विजय प्राप्त कर ले वहीं मनुष्य हैं।
बहुत बढिया लिखा है।
bhut umda likha hai apney
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