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Sunday, April 27, 2008

कभी देखो किसी से दिल बदल के ...

दरो - दीवार की हद से निकल के अकेले हर कदम रक्खो सँभल के बदल डालो मआनी ज़िंदगी के कभी देखो किसी से दिल बदल के सँभालो आईना ये काग़ज़ी है गुरूर-ऐ- हुस्न का प्याला न छलके मसाइल हल न होंगे खंजरों से कटेगा हर सफ़र इक साथ चलके जलाओगे हमें ' तनहा ' जलोगे मिटोगे शमा की मानिंद जल के --- प्रमोद कुमार कुश ' तनहा '

Friday, April 25, 2008

ओह ...लड़की हुई है

महिला जिनके साथ ३२ साल जुड़ी रही, एक खुशमिजाज़ महिला जो घर के हर काम में निपुण थी अपनी बहु की लाडली सास जब भी उनकी कोई भी बहु गरभती होती तों उसके हजारो नखरे सर आंखो पर उठाती कभी उनके सर तेल डालती कभी उनकी रूचि का खट्टा - मीठा पकवान बनाती बच्चे के जनम के समय हमेशा सब से आगे हॉस्पिटल में खड़ी रहती ..कोई समस्या तों नही ....सब ठीक तों हैना डॉक्टर जी तभी एक नर्स लेबर रूम से चिल्लाती आती है "माता जी लड़की हुई है" ......और माता जी का पीला चेहरा और वो शब्द " ओह ...लड़की हुई है " जाने क्यों यह शब्द मुझे हमेशा उनसे बहुत दूर खींच ले जाते, ऐसा लगता की उन्होने मुझे और अपने को भी गाली दी है क्या सच में लड़की का होना अपराध है ? क्या एक औरत को दूसरी औरत का नव स्वागत ऐसे करना चाहिए ? क्यों लड़कियों और लड़को की परवरिश में भी फर्क रखा जाता है जबकि दोनों एक ही घर के बच्चे है , लड़का होता है तों ढोल पीते जाते है पूरे शहर का मुँह मीठा किया जाता है और अपनी ही बेटी के जन्म पर अपना ही मुँह खट्टा हो जाता है देश प्रगति की रहा पर है, शिकषित लोगो की संख्या बढ़ रही है पर हमारी सबकी सोच अब भी वंही के वंही थकी और बीमार पड़ी है कीर्ती वैद्य .....

Thursday, April 24, 2008

हमने ज़िन्दगी को...



आज मीठी धूप को अंगना से
नज़र झुकाए गुजरते देखा..
अलसाये मौसम की आँखों में
बेशुमार इश्क उमडते देखा
पीले फूलों की क्यारियों को
प्रेम गीत, गुनगुनाते सुना
भंवरा बेचारा भर रहा
आहे...शायद वो अकेला पड़ा
उदासी के आलम में भि
हमने ज़िन्दगी को, आज
नए रंग में पसरते देखा......

कीर्ती वैद्य २२ अप्रैल 2008

Thursday, April 17, 2008

तिब्बतीयों को आजादी कब मिलेगी.............

तकरीबन २ महीने से हमारे पड़ोसी देश तिब्बत के हालात काफी नाजुक दौर से गुजर रहे है। चीन की अति दमनकारी नीति से वहां के सारे नागरिक परेशान है। तिब्बत अब आजादी चाहता है..... और भारत में उसी विद्रोह की झलक हम हर दिन देख रहे है..... लेकिन कल पहली बार मैं तिब्बतियों का विरोध प्रदर्शन कवर करने गई थी..... पर वहां पर जो देखा वो शायद मैने अपनी जिंदगी में कभी नहीं देखा था .... जंतर मंतर पर चल रहा विरोध प्रदर्शन था तो शांतिपूर्ण.... लेकिन वहां पर लगे हर पोस्टर में छिपे थे उनकी दर्द की वो कहानी जो बिना बोले सब कुछ बयां कर रही थी...... किसी का सर नहीं था तो किसी का हाथ नहीं कोई फटे कपड़ो में था तो कोई पूरी तरह से नग्न...छोटा बच्चा खून से लथपथ अपनी मां के पेट पर रो रहा था.... आकिर उस छोटे बच्चें से क्या दुशमनी थी.......क्या दुनिया एक मानव समाज है उस तिब्बती महिला की दास्ता सुनकर तो अब ऐसा नहीं लगता है..... यहीं पर एक महिला ने मुझे बताया कि ये जो आप देख रही है वो तो कुछ नहीं है चीन में तो दुध मुहें बच्चों का तंदुर में पका कर चिकन की तरह खा जाते है। इंसान और जानवर में कोई फर्क न रहा। ये संघर्ष कब खत्म होगा..... तिब्बत को आजादी कब मिलेगी.... तिब्बत को आजादी न मिलने का मतलब भारत के लिए भी मुश्किले बढ़ना है....... । मैं खुले तौर पर तिब्बतियों का समर्थन करती हूं आप क्या सोचते है इस बारे में जरूर लिखे । तूलिका सिंह

Monday, April 14, 2008


कल थी १३ अप्रैल और हम सब एक बार फिर कुछ भूल गए ..... कल के ही दिन १९१९ में जलियांवाला बाग़ में कातिल डायर के हाथों सैकडो निर्दोषों की जान गई थी कुछ याद पडा ? खैर कोई बड़ी बात नहीं हैं क्यूंकि अब यह आम बात हैं दरअसल फ़िल्म अभिनेताओ के जन्मदिन याद रखते रखते अब हम ये सब छोटी मोटी बातें भूलने लगे हैं ...


पर माफ़ी चाहूँगा कि मैंने जुर्रत की याद दिलाने की पर अब याद आ ही गई हैं तो भगत सिंह की डायरी से कुछ , यह कविता भगत सिंह ने जतीन दा की मृत्यु पर पढी थी, जिसके लेखक यू एन फिग्नर थे,


जो तेजस्वी था वह धराशायी हो गया
वे दफ़न किए गए किसी सूने में
कोई नहीं रोया उनके लिए
अजनबी हाथ उन्हें ले गए कब्र तक
कोई क्रोस नही
कोई शिलालेख नहीं बताता उनका गौरवशाली नाम
उनके ऊपर उग आई है घास ,
जिसकी झुकी पत्ती सहेजे है रहस्य
किनारे से बेतहाशा टकराती लहरों के सिवा
कोई इसका साक्षी नहीं
मगर वे शक्तिशाली लहरें
दूरवर्ती गृह तक विदा संदेश नहीं ले जा सकती ........


कुल मिला हम आगे भी शायद इनका बलिदान याद नहीं रखने वाले हैं जब तक कि याद न दिलाया जाए ! खैर कुछ लोग हमेशा इस याद दिलाने के काम में लगे रहेंगे .....


धन्यवाद महान नेताओं को
जागरूक मीडिया को
सेवक समाज सेवियो को
साम्यवादी कलाकारों को
देशभक्तों को परदे पर उतारते फ़िल्म कलाकारों को
बुद्धिजीविओं को
विद्वानों को
हम सबको
जो आज का दिन भूल गए
ठीक ही है .....
जब सामने मरता आदमी नहीं दिखता
तो वो तो बहुत पहले मर चुके !!
जलियावाला बाग़ में आज के दिन १९१९ में रोलेट एक्ट का विरोध करने एक आम सभा में करीब २० हज़ार लोग इकट्ठा हुए थे ........ दिन था फसलों के त्यौहार बैसाखी का ...... बाग़ से निकलने के इकलौते रास्ते को बंद करवा कर पंजाब के लेफ्टिनेंट माइकल ओ डायार ने १६५० राउंड फायर करवाए ....निर्दोष औरत, बच्चे , बूढे, और पुरूष क़त्ल...............१५०० घायल !!!
भूल गए
हो गई गलती .....
आख़िर कहाँ तक याद रखें ....!
मार्च १९४० में उधम सिंह ने डायर की लंदन में हत्या की ..... मकसद था जलियावाला का बदला लेना फांसी दिए जाने पर उधम सिंह ने कहा,
" मुझे अपनी मौत का कोई अफ़सोस नहीं है। मैंने जो कुछ भी किया उसके पीछे एक मकसद था जो पूरा हुआ ! "


पर हम भूल गए क्या कोई मकसद है हमारे पास ?????
सोचना शुरू करिये ....... आख़िर आप सब पत्रकार हैं !

सुनहरे भविष्य की शुभकामनाएं !!!

मयंक सक्सेना
mailmayanksaxena@जीमेल.com

Monday, April 7, 2008

मैं कौन ...


आज भि यही सवाल मेरे ज़हन
ढूँढ रही ना जाने कब से, मैं कौन?

शायद वो...
जो गुडयिया से घर-घर खेले
नाक -चश्मा, काँधे बस्ता
कच्ची सड़क नाप, सकूल पहुँच जाये
रोज़, ढूध इक सांस में गटक
घंटो साईकल लिए फिरे

शायद वो....
गीतों के धुन पे मोरनी बन नाचे
कटी पतंगो,कभी तितलियों के पीछे भागे
रोज़ घुटने कभी कोहनी चोट खाये
माँ की डांट पर कोने बैठ मुँह फुलाये
बहना से लड़ उसकी टोफ्फी चुरा खाये

शायद वो...
चोरी से सिगरेट के छल्ले बनाना सीखे
कभी बियर के बोतलों में ज़िन्दगी ढूंढे
कभी इक सांस में मंदिर की सीढिया चढ़े
कभी सालो इश्वर को अपने में ही ढूंढे

शायद वो...
बिन परवाह किये बिन सब बंधन तोड़ दे
अपनी हथेली सजी मेहंदी को ही रोंद दे
कभी बन पहाड़ घर-परिवार संभाले
कभी शोला बन दुनिया फूंक डाले ..

शायद वो...
इंसानी रिश्तो को बारीकी से समझे
कभी उन्ही रिश्तो में छली जाये
आधी अधूरी ज़िन्दगी को हाथो में समेटे
कभी दुनिया को अलविदा कह जाये

फिर भि अब तलक ना पता
मैं कौन ... ?

कीर्ती वैद्य ....०५ अप्रैल २००८

Tuesday, April 1, 2008

तुक्तक

कल आज परसों क्यूं है गिनना यह क्षण अपना है, इसी को पकडना सारा का सारा आनंद लेना, और धीरे से अगले क्षण में है जाना । बहती सरिता सा जीवन फूलों सा खिलता जीवन पंछी सा उडता जीवन हंसता मुस्काता जीवन मेरा तुम्हारा इसका उसका कुछ भी नही है, जो है वो सबका मुश्किल है लेकिन असंभव नही है मानना और आज़माना भी इसका आदमी का सिर्फ मन ही हो शरीर हो ही नही कितना स्वतंत्र हो जायेगा तब वह जब बंधन हो ही नही कहीं भी जाना, कुछ भी करना मोक्ष जिसे कहते है वो यही हो कुछ और हो ही नही

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