न आया करो मेरे पास मैं क्यों और कौन क्या रखा मेरे पास चले जाओ यंहा से बस छाया घुप अँधेरा न कोई बस्ती न हस्ती न कोई किनारा यंहा मत आया करो, भर नैनो का कटोरा नहीं मिलती प्रेम भीख मुझे बहलाने से भी चले जाओ वर्ना टूट न जाये मेरे आँखों का बाँध कीर्ती वैद्य
Tuesday, December 11, 2007
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4 comments:
बहुत सुन्दर कीर्ति जी....
कम शब्दों में सब कुछ कह डाला आपने...
आने के बाद चले जाना और फिर जाकर देर से आना, एक लम्बा इन्तज़ार। शायद ऐसी ही अभिव्यक्ति है इस रचना मे। जो बेहद सलीके से शब्दों मे ढाली गयी है। अति उत्तम.........
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