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Sunday, January 13, 2008

वाह क्या संविधान है ।

लाश बन चुका गरीब,कंधो पे है उसके सलीब, वोट फिर भी दे रहा,वाह क्या संविधान है । हम बदनसीब हैं,नेता बडे अदीब हैं, वो खा रहे इंसान को, वाह क्या संविधान है । फटा चिथा सडा गला,बीमार सा मरा मरा, वो देश मेरा महान है, वाह क्या संविधान है । चमक रहा हिंदोस्तां,संसद में कह रहे सभी, चोर साले सब वहाँ, वाह क्या संविधान है । आओ मिल के बाँट लें,बचा खुचा हिंदोस्ता, बिक चुका मेरा ईमान है, वाह क्या संविधान है । कल हमें पता चला,देश ये आजा़द है, हर जगह सिंगूर है, वाह क्या संविधान है । बच्चियों से कह दो,घर से न निकला करे, हर शख्स यहाँ शैतान है, वाह क्या संविधान है । अनुराग अमिताभ

3 comments:

Keerti Vaidya said...

sunder kavita.....

Smriti Dubey said...

आपकी लिखी ये ग़ज़ल संविधान पर एक ऐसा कटाक्ष है जिसे बदकिस्मती से बदला नहीं जा सकता। ये कैसा संवैधानिक देश है जहां इंसान अपना ईमान खोकर हैवानियत पर उतर आया है।
लेकिन फिर भी हम एक बेसुरा राग आलाप रहे हैं-
मेरा देश महान है
लेकिन क्या वाकेई यही हमारा संविधान है।

Emily Katie said...

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