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Friday, January 4, 2008

ज़िन्दगी के पन्ने....

ज़िन्दगी के पन्ने बिन पूछे भरे मिलते है बस अपना अपना किरदार निभाना होता है उसके अनुसार अपने को ढालना पड़ता है कभी मस्त- कभी बेकार लगे रोज़ का नाटक क्यों नहीं कोई फाड़ देता इन पन्नों को या मेरा किरदार अब ख़तम हो यंहा पर कीर्ती वैदया

4 comments:

Anonymous said...

sach kha kirti ji,kabhi lagta hai kyun nahi koi padh deta in panno ko,zindagi kabhi mast kabhi yun hi alag lagti hai.apki kavitayen hume bahut acchi lagti hai.apki own site par ki lagbhag sari hamne padhi hai.shayad tariff ke liye lafz nahi mil rahe the hume.zindagi ki sachai kam shabdhon mein kehna apko bakhubi aata hai.marvolous.

राजीव तनेजा said...

सही कहा कीर्ति जी आपने...
कभी मस्त तो कभी बेकार सी...नीरस सी ये ज़िन्दगी लगती है...
तब यही ख्याल दिल में उमडता है कि काश सबकुछ यहीं खत्म हो जाए ....लेकिन फिर उम्मीद की एक किरण जागती है और हम फिर नई ऊर्जा लिए आगे अपनी मंज़िल की तरफ बढ चलते हैँ ...शायद इसी का नाम ज़िन्दगी है

Asha Joglekar said...

नही नही इतनी मायूसी अच्छी नही । कविता सुंदर है अपने आप में. पर यह सोच.... आप बदल ही डालें ।

Emily Katie said...

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