Wednesday, January 9, 2008
ग़ुमशुदा
अभी कुछ दिनों पहले
मैंनें देखा था
एक लाश
चिथङ़ों में लिपटी
सङ़क के किनारे
बदबू फ़ेकती हुई
एक लाश
करीब गई
देखा गौर से
तो पाँव तले ज़मीन ख़िसक गई
वो और कोई नहीं
मेरे जैसी ही कोई थी
उसमें मेरा ही अक्स था
या कि था
पूरे समाज का
आधुनिकता का
एकान्तता का
पूरे हिन्दुस्तान का अक्स
करोङ़ों की इस भीङ़ में
हर कोई तन्हा,
गुमशुदा
ख़ुद को ढ़ूढ़ता
हर कोई
मानस की गहराई में
लेकिन फ़िर भी
क्यों है वो तत्पर
समा जाने को
उन अतल गहराईयों में
शायद
यही उसकी नियति है
यही प्रारब्ध।
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4 comments:
shayad niyati,deep thoughts nice.
ये रचना हर उस इन्सान के स्मृतिपटल पर अंकित हो सकती है जो ज़रा भी मानवीय संवेदनाओं को समझता है... रचना काल्पनिक हो सकती है लेकिन इसका सार उतना ही सच है जितनी सच्ची होती है श्रृद्धा... ये रचना पढते वक्त मुझे ऐसा लगा कि सब मेरी आंखों के सामने हो.... यही तुम्हारी सफलता है स्मृति... आगे बढती रहो.. शुभकामनाऐं।
मित्र आधुनिकता की दौड का असर है कि आज हिंदी की आत्मा हमारी आत्मा की तरह मि.इडिया हो चुकी है.हमारी भावनाऐ भाड में जा चुकी हैं और संवेदनाऐं स्वर्ग जा रही है हमारी आत्मा बिकाउ हो चुकी है तभी तो आप और मैं ज़मीर बेचकर नये ज़माने की पतितकारिता बखुशी कर रहें है और हर मुर्दा हमें अपना अक्स दिखा रहा है ।
बहरहाल आपको आत्मा का आत्म दर्शन करानें के लिए साधूवाद ।
लिखें लिखें पर निराश न हो और सिर्फ लिखें ।
मित्र आधुनिकता की दौड का असर है कि आज हिंदी की आत्मा हमारी आत्मा की तरह मि.इडिया हो चुकी है.हमारी भावनाऐ भाड में जा चुकी हैं और संवेदनाऐं स्वर्ग जा रही है हमारी आत्मा बिकाउ हो चुकी है तभी तो आप और मैं ज़मीर बेचकर नये ज़माने की पतितकारिता बखुशी कर रहें है और हर मुर्दा हमें अपना अक्स दिखा रहा है ।
बहरहाल आपको आत्मा का आत्म दर्शन करानें के लिए साधूवाद ।
लिखें लिखें पर निराश न हो और सिर्फ लिखें ।
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