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Wednesday, January 16, 2008

हमसफर अब गाँव चल

हवाऐं तल्ख हो चुकीं,फिजां में कुछ घुटन सी है, ये शहर अब मेरा नहीं ,हमसफर अब गाँव चल । कत्ल रिश्तों का हर पल यहाँ,दहशत हर साँस में, इंसानियत को दफना के, हमसफर अब गाँव चल । दोस्ती गुम है यहाँ,वफा भी है कुछ अजनबी, हर शख्स तन्हा है यहां, हमसफर अब गाँव चल । रोशनी यहाँ कैद है,उजाले बदिंशो मैं है, सूरज दिखेगा खेत से, हमसफर अब गाँव चल । एक रंग के खून को, कई नाम देते हैं यहां, मंदिर औ मस्जिद मैं अब खुदा नहीं, हमसफर अब गाँव चल । दूध का कर्ज था गाँव में माँ का मेरी, वो माँ अब मर गई, हमसफर अब गाँव चल । स्कूल में सुना था ये,वतन अब आजा़द है, गिरवी रखी ज़मीं लेने, हमसफर अब गाँव चल । अनुराग अमिताभ

8 comments:

Anonymous said...

ha aab shahar eise hi ho gaye hai,gaon ki mitti ki yaad aayi,bahut sundar likha hai.

rajnish said...

jai hind nana peshva ji,
tohda real life me aa jao.
acha likto pr ye bata de bhai kaha se mara hai.................................................... kidding


jai hind
jai bhopal

satyandra yadav said...

jai hind sir... hame lagata hai ki aapke nazar me shahar ab apne charam par aa chuka hai... tabhi aap gaon ki taraf rukh karne ke liye apni kabita me likhe hain.... aaj vishv ke developed countries me yahi ho raha hai sabhi log gaon ki taraf rukh kar rahe hai....
shahar itna sankramit ho chuka hai ki ab gaon swarg jaisa lag raha hai ......
..... sir aap bahut achha likhate hain..... app real life ki samvedna ko ukerne ki koshish ki hai ..... aaj har dil aziz yahi bat kah raha hai ... chalo dildar chalo gaon ke pass chalo.....

Smriti Dubey said...

इस ग़ज़ल से गाँव की सोंधी माटी की ख़ुशबू आ रही है और व़तन के इंकलाबी जब इसे कह दें तो समझ लेना चाहिए कि रणभेरी बज गई है।

Asha Joglekar said...

गाँव तो चलें पर गाँव भी कहाँ वही रह गये हैं । उन पर भी तो ये नया रंग चढ चुका है ।

गाँव तो चले मगर
खो गई है वह डगर
जहाँ हरे से खेत में
मिट्टी में या रेत में
उकेरे थे जो सपन
हो गए वे सब हवन
अब किधर को जायेंगे
कहाँ जहाँ बसायेंगे ?

anil yadav said...

जवाब नही सर आपकी पंक्तियाँ दिल की गहराई में उतर गयीँ ये बातें कोई धरती पुत्र ही कर सकता है महानगरों में रहकर खोखली जिन्दगी जीने वालों की बस की बात नही ये,,,..........
अनिल यादव

Amit said...

बेहतरीन....अति उत्तम। पढ़कर मुझे भी लगने लगा है कि कुछ दिन की छुट्टियां लेकर गांव चला जाऊं। सच ही लिखा है सर आपने...शहर में रोशनी कहीं खो सी गयी है।

अमित

Emily Katie said...

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