हो गयी फिर पर्बत सी पिघलनी चाहिये
इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिये
आज ये दीवार पर्दों की तरह हिलने लगी
शर्त लेकिन थी कि ये बुनियाद हिलनी चाहिये
हर सड़क पर हर गली में हर नगर हर गांव में
हाथ लहराते हुये एक लाश चलनी चाहिये
सिर्फ़ हंगामा खड़ा करना मेरा मक़सद नहीं
मेरी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिये
मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही
हो कहीं भी आग लेकिन आग जलनी चाहिये
लाल सलाम
गौरव
4 comments:
sunder abhivaykti
ज़बरदस्त गौरव लगता है दुष्यंत की आग अभी भी जिंदा है,
मेरा सौभाग्य है की मैं उस शहर से हूँ ज़हां दुष्यंत की शायरी ज़वां हुई ।
मेरा सौभाग्य है की मुझे उनकी धर्म पत्नी श्रीमती राजेश्वरी देवी से पढनें का अवसर प्राप्त हुआ ।
लेकिन फिर वही बात दुष्यंत के शब्दों में
पक गईं हैं आदतें,बातों से सर होंगी नहीं,
कोई हंगामा करो,ऐसे गुज़र होगी नहीं ।
आज मेरा साथ दो,वैसे मुझे मालूम है,
पत्थरों में चीख हरगिज कारगर होगी नहीं ।
सिर्फ शाय़र देखता है कहकहों की असलियत,
हर किसी के पास तो ऐसी नज़र होगी नहीं ।
शुक्रिया अनुराग, आग तो ज़िन्दा है और ज़िन्दा रहेगी. आप वाक़ई ख़ुशक़िस्मत हैं कि आपको दुश्यंत को इतने क़रीब से जानने का मौक़ा मिला. बहुत ख़ूब.
गौरव ने वाकई एक क्रांतिकारी अंदाज़ में
अपना योगदान देना शुरु किया है।
मै सोचता रहता था कि इतनी विलक्षण प्रतिभाओं
के स्वामी गौरव द्वारा रंगकर्मी पर अभी तक
योगदान देना क्यों नही शुरु किया है, लेकिन
अब मालूम हुआ कि क्रांति होती तो ज़रूर है
लेकिन इतनी आसानी से नही।
शाबास गौरव
ऐसे ही अपने विचारों से रंगकर्मी की शान
बनो।
अंकित माथुर...
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