Friday, January 11, 2008
ताश के पत्ते
हम आदमी थे ही कहाँ
बस फ़क़त ताश के पत्ते थे
कभी कुर्सियों की जंग में लड़ने के लिये
कभी कुर्सियों की तक़सीम की खातिर
कभी किसी के अहम की तस्कीन की खातिर,
औरकभी किसी की दिल्लगी और दिलजोई की खातिर
हम तो बसताश के पत्तों की तरह फेंटे गये
कभी काटे गये, कभी बाँटे गयेकभी पलट कर रखे गये
कभी उलट कर देखे गये
कभी हम मुस्तकिल गड्डी सेअलग करके रखे गये
कभी हम बोली पर चढ़ेकभी हम दाँव पर खेले गये
जब जहाँ मौक़ा लगाहमको आज़माया गया
अगर बेकाम निकले तोहिक़ारत से ठुकराये गये
हम तो बस ताश के पत्ते थे
कभी पपलू के खिताब से नवाज़े गये
कभी जोकर कभी टिटलू बनाये गये
कभी हम किसी के ट्रम्प थे,तो कभी सिर्फ जोकर की मानिन्द उछाले गये
अगर फिर भी न रास आये तोगड्डी में फिर से फेंटे गये।
हम तो आदमी थे ही कहाँबस फ़क़त ताश के पत्ते थे।
.....कविता एक बड़े कवि अहसन साहब की है जो कई पुरस्कारों से भी नवाज़े गए हैं।
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1 comment:
amitji itni acchi kavita padhwane ke liye shukran,sach hum admi kaha hai,zindagi ke tash ke patte hi to hai.sundar.
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