Thursday, January 17, 2008
जो ना अपना....
क्यों आस्मा को छूती है वो तरंगे
जो सिमटी है मेरी हथलियो में...
क्यों नेनो के सागर में तेरते सपने
जो कैद है मेरे दिल में...
क्यों भागता है मन तुम्हारे पीछे
जो बस जुड़ा ख्याल बन मेरे स...े
क्यों चुगती हूँ सपने तुमसे जुडे
जो कभी नहीं तेरे-मेरे...
क्यों सजाती हूँ रेत के घरोंदे
जो ना बनेगा अपना बेसेरा.....
कीर्ती वैद्य
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4 comments:
कहते हैं उम्मीद पर दुनिया कायम है...... इसलिये इन्सान को कभी उम्मीद नही छोड़नी चाहिये... अपने शब्दों को पर लगाईये कहिये उनसे कि उम्मीद का आसमान बहुत बड़ा है। और आगे बढकर पा लिजिये उसे जिसे आप पाना चाहते हैं............ अच्छी कविता है लेकिन इसमे मुझे निराशा झलकती नज़र आ रही है.....
मुझको शायर न कहो मीर की साहब मैनें,
दर्दोगम कितनें किये जमा तो दीवान बना।
आपकी कविता आपके दर्द का, इश्क में चोट खाने का अंदाजा लगाने का अवसर देतीं हैं।
मित्र निराशा के दर को छोड खुले आसमान की उँचाईयों को देखें जमाना और आपकी हर तमन्ना आपके साथ होगी।
।
कीर्ती जी बहुत सुंदर भाव पूर्ण रचना ।
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