खुले अधर थे शांत नयन,
तर्जनी टिकी थी चिवु पर।
ज्यों प्रेम जलधि में चिन्मय,
छाया पड़ती हो विधु पर॥
है रीती निराली इनकी ,
जाने किस पर आ जाए।
है उचित , कहाँ अनुचित है?
आँखें न भेद कर पाये॥
अधखुले नयन थे ऐसे,
प्रात: नीरज हो जैसे।
चितवन के पर उड़ते हो,
पर भ्रमर बंधा हो जैसे॥
-डॉक्टर यशवीर सिंह चंदेल "राही"
रंगकर्मी पर प्रकाशित सभी लेख लेखकों की व्यक्तिगत राय या सोच है। प्रत्येक लेख (पोस्ट) से सम्बन्धित लेखक ही उसके लिये पूर्णतया ज़िम्मेदार है। रंगकर्मी पर प्रकाशित किसी भी लेख को लेकर होने वाले विवाद या आपत्ति का रंगकर्मी के संचालक/संपादक से कोई लेना देना नही होगा। सभी लेखकों से अनुरोध है कि वो कोई भी विवादित लेख, तस्वीर या सामग्री रंगकर्मी पर प्रकाशित ना करें। इस तरह के लेख या तस्वीर को बिना किसी सूचना के ब्लॉग से हटा दिया जायेगा। सम्पादक-रंगकर्मी
1 comment:
बहुत सुंदर.
धन्यवाद
Post a Comment