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Saturday, June 27, 2009

लो क सं घ र्ष !: छाया पड़ती हो विधु पर...

खुले अधर थे शांत नयन, तर्जनी टिकी थी चिवु पर। ज्यों प्रेम जलधि में चिन्मय, छाया पड़ती हो विधु पर॥ है रीती निराली इनकी , जाने किस पर आ जाए। है उचित , कहाँ अनुचित है? आँखें न भेद कर पाये॥ अधखुले नयन थे ऐसे, प्रात: नीरज हो जैसे। चितवन के पर उड़ते हो, पर भ्रमर बंधा हो जैसे॥ -डॉक्टर यशवीर सिंह चंदेल "राही"

1 comment:

राज भाटिय़ा said...

बहुत सुंदर.
धन्यवाद

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