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Monday, June 8, 2009

लो क सं घ र्ष !: आडम्बर की चितवन से....

तुम गंध में न बसते हो तुम रूप में न मिलते हो। साधना समर्पित मेरी , पाषाण न तुम हिलते हो॥ मेरे सपनो की छाया अब मुझे जलाती रहती । कुछ गरल छलक जाता है, आशा है गाती रहती॥ मानस की स्नेहलता को सींचा हमने सिसकन से । पर वह टूटी मुरझाकर आडम्बर की चितवन से॥ -डॉक्टर यशवीर सिंह चंदेल 'राही'

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