Thursday, June 4, 2009
लोकसंघर्ष !: दीप शिखा सी जलती जाँऊ...
जीवन से तुम ,या तुमसे जीवन ये मैं समझ न पाँऊ।
केवल तुमसे लगन लगी है फिर भी मिल न पाँऊ ।
दीप शिखा सी जलती जाऊ ॥
शबनम तेरे प्यार की हरदम बिखरी रहती है।
तन को छुकर पवन संदेशा तेरा कहती है।
व्याकुल मिलने को मन मेरा फिर भी मिल न पाँऊ -
दीप शिखा सी जलती जाँऊ ।
कभी लगे श्रृंगार अधूरा पर मैला सा ।
कभी लगे विश्वाश अधूरा मन मैला सा है ।
ऊहापोह में बीती कितनी घडिया गिन न पाँऊ-
दीप शिखा सी जलती जाँऊ।
हर मंजिल की कोई न कोई राह हुआ करती है ।
बहते बहते नदिया हरदम सिन्धु मिलन करती है।
पल पल घटती साँसों का व्यापार समझ न पाँऊ-
दीप शिखा सी जलती जाँऊ।
-डॉक्टर यशवीर सिंह चंदेल ''राही ''
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1 comment:
सुंदर कविता । पर श्रृंगार मैला सा कैसे ?
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