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Sunday, June 14, 2009

लो क सं घ र्ष !: कुछ डूबी सी उतराए...

जो है अप्राप्य इस जग में , वह अभिलाषा है मन की। मन-मख,विरहाग्नि जलाकर आहुति दे रहा स्वयं की॥ अपने से स्वयं पराजित , होकर भी मैं जीता हूँ । अभिशाप समझ कर के भी मैं स्मृति - मदिरा पीता हूँ ॥ दुर्दिन की घाटी भी अब विश्वाश भरी लहराए। उस संधि -पत्र की नौका कुछ डूबी सी उतराए॥ -डॉक्टर यशवीर सिंह चंदेल ''राही'

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