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Friday, June 26, 2009

लो क सं घ र्ष !: जलते है स्वप्न हमारे...

वक्र - पंक्ति में कुंद कलि किसलय के अवगुण्ठन में। तृष्णा में शुक है आकुल, ज्यों राधा नन्दन वन में॥ उज्जवल जलकुम्भी की शुचि, पंखुडियां श्वेत निराली। हो अधर विचुम्बित आभा, जल अरुण समाहित लाली॥ विम्बित नीरज गरिमा से मंडित कपोल तुम्हारे। नीख ज्वाला में उनकी , जलते है स्वप्न हमारे॥ -डॉक्टर यशवीर सिंह चंदेल 'राही'

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