सियाशी पार्टियों द्वारा वोट बटोरने के लिए की गई हवाई तलवारबाजी के दौर के पूरा हो जाने के बाद अब सूबा मध्यप्रदेश अलग तरह की समरभूमि बना हुआ किया , जिसके केन्द्र में आम जन है और यह संघर्ष पानी की भारी कमी के चलते पनपा है । भोपाल के नजदीक के गांव कंसया में सरपंच गोकुल सिंह एवं उसके सहयोगियों के हमले में हुई एक युवक की मौत इसका ताजा उदाहरण बनी है । अकेले भोपाल जिले में लोगो के बीच ऐसे हिंसक झड़पों में चार लोग मारे गए है । और अगर पूरे सूबे के आंकडो को देखें तो विभिन्न पुलिस थानों में दर्ज मामलो की संख्या जहाँ 45 है वहीं पूरे सूबे में सात लोगो की जान जा चुकी है और कई लोग घायल है।
भोपाल के शाहजहानाबाद इलाके का सात साल का ब्रजेश पानी के लिए मचे इस हाहाकार का एक प्रतीक बन कर उभरा है जिसने ऐसे ही एक संघर्ष में अपने माता-पिता एवं बड़े भाई को खोया है। हँसता -खेलता उसका परिवार ,जहाँ सबसे छोटा होने के नाते वह सबका दुलारा था ,इस तरह अचानक उज़ड़ गया, जब 13 मई को पड़ोसियों द्वारा किए गए हमले में तीनो मारे गए, जब वह गली में अपने दोस्तों के साथ खेल रहे था ।
पानी के साथ संकट का आलम यह है की भोपाल से महज 40 किलोमीटर दूर सिहोरे शहर में चार दिन में एक बार पानी पहुँचता है तो बाकी अस्सी नगरो में दो दिन में एक बार पहुँचता है । पानी की इस सीमित आपूर्ति पर दबंगों का कब्जा न हो इसलिए मध्यप्रदेश सरकार ने पानी कार्ड की भी योजना बनाई है ताकि पानी की राशनिंग की जा सके एवं उसके समान बंटवारे को सुनिश्चित किया जा सके । इतना ही नही भोपाल से सागर ड़िवीज़न जा रही 122 किलोमीटर लम्बी पानी की पाइपलाइन के इर्दगिर्द सरकार ने अपराध दंड सहिंता के अर्न्तगत धारा 144 लगा रखी है ताकि कोई उसे नुकसान न पहुँचा सके ।
मध्यप्रदेश के इस ताजा सूरतेहाल में हम भविष्य की दुनिया की तस्वीर देख सकते है ।
संयुक्त राष्ट्र संघ का आकलन है की पानी की कमी विभिन्न देशो या समुदायों के अन्दर नए विवादो का सबब बनेगी और जिसके लिए नई रक्षा रणनीतियाँ बनाने की आवश्यकता होगी। संयुक्त राष्ट संघ की चौबिस एजेंसियो द्वारा संग्रहित आंकडो के आधार पर तैयार रिपोर्ट को देखें तो पानी के घटते श्रोत्रो , तथा प्रदूषण , आबोहवा में बदलाव और तेजी से बढती आबादी के चलते समूची दुनिया का भविष्य अंधकारमय दिख रहा है । पानी की कमी का असर आर्थिक विकास पर भी पड़ता दिख रहा है। संयुक्त राष्ट्र संघ के मुताबिक दुनियाभर में शहरीकरण की प्रक्रिया में जो तेजी आई है और जिस तरह आबादी में बढोतरी दिखती है वह पानी की कमी को और प्रभावित करेगा। स्थूल अनुमान के हिसाब से देखें तो हर साल दुनिया की आबादी आठ करोड़ से बढती है जिसका बहुलांश शहरो में ही दिखता है । इसका अर्थ यही होगा की आनेवाले समय में शहरो में ऐसे लोगो की तादाद बढेगी जिन्हें पहले से कम हो रहे जल संस्थानों पर गुजरा करना पड़ेगा।
एक तरफ़ जहाँ पानी के स्त्रोतों पर खतरा उत्पन्न होता दिख रहा है, वहीं बढ़ते औधयोगीकरण , लगातार बढती जीवन का स्तर और बदलते आहारो ने भी पानी की मांग बढती दिखती है । यह सिलसिला इसी तरह चलता रहा तो रिपोर्ट के मुताबिक आनेवाले बीस सालो के अन्दर अर्थात 2030 तक दुनिया के लगभग आधे हिस्से की आबादी गंभीर पानी संकट से गुजरती दिखाई देगी ।
मार्च महीने में तुर्की की राजधानी इस्तांबुल में हुए अन्तार्राष्टीय सम्मलेन में दुनिया के पीनेयोग्य पानी के बारे में अब तक पेश समग्र आकलन में यही तस्वीर पेश की गई थी । रिपोर्ट के मुताबिक आज की तारीख में पानी प्रबंधन संकटों के चलते दुनिया के अधिकतर हिस्सों में संकट पैदा होता दिख रहा है। नवम्बर 2006 की एक तारीख का उस रिपोर्ट में विशेष उल्लेख है जब 14 अलग देशो से-जिनमें कनाडा, सन्युक्त राज्य अमेरिका या आस्ट्रलिया के कुछ हिस्से भी शामिल थे - पानी की कमी से जुड़े समाचार प्रकाशित हुए थे।
कृषि का मौजूदा स्वरूप भी पानी के संकट में बढोतरी करेगा। मोटा- मोटा आकलन यही है की लोगो द्वारा इस्तेमाल किए जाने वाले ताजे पानी का 70 फीसदी हिस्सा फसलो को उ़गाने और अपने जानवरों के रख रखरखाव पर खर्च होता है । ग्लोबल वार्मिंग के चलते आनेवाले 30-40 सालो में जितने बड़े पैमाने पर आबादी का विस्थापन होगा ऐसे शरणार्थियो के पुनर्वास के लिए भी नए पानी और सैनिटेशन का इंतजाम करना पडेगा ।
पानी के इस संकट का दूसरा पहलु विदर्भ के आत्महत्या से पीड़ित जिलो में सामने आ रहा है जहाँ लगातार दोहन से जलस्तर काफ़ी नीचे चला गया है। कई इलाको में न यह पीनेलायक रहा है और न ही सिंचाई योग्य । विदर्भ के इन जिलो में पानी में नाइटेट के साथ फ्लोराइड़ , कैल्शियम ,मैग्नेसियम जैसे घातक रसायनों की अधिकता पायी गई है । जानकार बताते है की पानी में नाइटेट की मात्रा अधिक हो जाए तो यह शरीर में आक्सीजन ग्रहण करने की क्षमता को प्रभावित करता है जिससे सांस से जुड़ी बीमारियाँ पैदा होती है तथा पानी में फ्लोराइड़ बढ़ना भी शरीर के लिए घातक साबित होता है।
भले ही यह सच्चाई हो की पृथ्वी के दो तिहाई से अधिक हिस्से पर पानी है, मगर इसका केवल ढाई फीसदी का 75 फीसदी ग्लेसियरो में बर्फ में ढंका है। पानी के इस अत्यधिक दोहन की कड़वी वास्तविकता जानना हो तो असम के चेरापूंजी जा सकते है जो कभी विश्व में सबसे ज्यादा बारिश के लिए जाना जाता है अब औसत बारिश के लिए भी तरसता दिखता है ।
अपने मुल्क के अन्दर भी हम तमिलनाडु , कर्नाटक जैसे सूबों के बीच कावेरी नदी के जल के बंटवारे को लेकर समय - समय पर होने वाले विवादो में उसकी झलक देख देख सकते है । संयुक्त राष्ट्र संघ का आकलन है की इस्राइल -फिलिस्तीन , श्रीलंका ,हैती, कोलंबिया , बांग्लादेश जैसे कई मुल्क जो पहले से ही विभिन्न आतंरिक कारणों से अस्थिरता के दौर से गुजर रहे है , वहां पानी से पैदा ऐसे विवाद अधिक जटिलता भी पैदा करेंगे । क्या आनेवाली पीढियां इक्किशवीं सदी को पानी के लिए होने वाले युद्धों के लिए याद करेंगी या हमारा सचेत एवं संगठित हस्तक्षेप इस सम्भावना को खारिज करेगा, यह मसला भविष्य के गर्भ में छिपा दिखता है।
सुभाष गाताडे
लेखक सुप्रसिद्ध पत्रकार है
H-4 Pusha Apartments ,
Rohini ,Sector 15
Delhi-110085
mobile - 01127876523
Friday, June 5, 2009
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
No comments:
Post a Comment