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Saturday, June 27, 2009

लो क सं घ र्ष !: मुंद जाते पहुनाई से

परिवर्तन नियम समर्पित , झुककर मिलना फिर जाना। आंखों की बोली मिलती , तो संधि उलझते जाना॥ संध्या तो अपने रंग में, अम्बर को ही रंग देती। ब्रीङा की तेरी लाली, निज में संचित कर लेती॥ अनगिनत प्रश्न करता हूँ, अंतस की परछाई से। निर्लिप्त नयन हंस-हंस कर, मुंद जाते पहुनाई से ॥ -डॉक्टर यशवीर सिंह चंदेल 'राही'

लो क सं घ र्ष !: संघी कारसेवको से कांग्रेस को बचाएँ राहुल -2

वास्तव में कांग्रेस में अपना आशियाना बनाकर आगे अपनी पार्टी को शक्ति एवं उर्जा देने की भाजपा की परम्परा रही है। वर्ष 1980 में जब उस ज़माने के कांग्रेसी युवराज संजय गाँधी के अनुभवहीन कंधो की सवारी करके कांग्रेस अपनी वापसी कर रही थी और दोहरी सदाशयता का दंश झेल रहे भाज्पैयो को अपनी डूबती नैय्या के उबरने का कोई रास्ता नही सूझ रहा था तो संजय गाँधी द्वारा बने जा रही युवक कांग्रेस में अपने कार्यकर्ताओ को गुप्त निर्देश भाजपा के थिंक टैंक आर.एस.एस के दिग्गजों द्वारा देकर उन्हें कांग्रेस में दाखिल होने की हरी झंडी दी गई। परिणाम स्वरूप आर.एस.एस के नवयुवक काली टोपी उतार कर सफ़ेद टोपी धारण कर लाखो की संख्या में दाखिल हो गए। कांग्रेस तो अपने पतन से उदय की ओर चल पड़ी , मगर कांग्रेस के अन्दर छुपे आर.एस.एस के कारसेवक अपना काम करते रहे और इन्हे निर्देश इनके आकाओं से बराबर मिलता रहा । यह काम आर.एस.एस ने इतनी चतुराई से किया की राजनीती चतुर खिलाडी और राजनितिक दुदार्शिता की अचूक सुझबुझ रखने वाली तथा अपने शत्रुवो पर सदैव आक्रामक प्रहार करने वाली इंदिरा गाँधी भी अपने घर के अन्दर छुपे इन भितार्घतियो को पहचान न सकी। इसका एक मुख्य कारण उनका पुत्रमोह भी था परन्तु संजय गाँधी के एक हवाई हादसे में मृत्यु के पश्चात इंदिरा गाँधी ने जब युवक कांग्रेस की सुधि ली और उसके क्रिया कलापों की पर गहरी नजर डाली तो उन्हें इस बात का अनुमान लगा की कही दाल में काला जरूर है । बताते है की इंदिरा गाँधी युवक कांग्रेस की स्क्रीनिंग करने की योजना बनाकर उस पर अमल करने ही वाली थी की उनकी हत्या १९८४ में उन्ही के सुरक्षागार्ङों द्वारा करा दी गई । उसके बाद हिंसा का जो तांडव दिल्ली से लेकर कानपूर व उत्तर प्रदेश के कई नगरो में सिक्ख समुदाय के विरूद्व हुआ उसमें यह साफ़ साबित हो गया की आर.एस.एस अपने मंसुबू पर कितनी कामयाबी के साथ काम कर रही है। राजीव गाँधी ,जो अपने भाई संजय की अकश्मित मौत के पश्चात बेमन से राजनीती में अपनी मान की इच्छा का पालन करने आए थे, जब तक कुछ समझ पाते हजारो सिक्खों की लाशें बिछ चुकी थी करोङो की उनकी संपत्ति या तो स्वाहा की जा चुकी थी या लूटी जा चुकी थी । लोगो ने अपनी आंखों से हिन्दुत्ववादी शक्तियों को कांग्रेसियों के भेष में हिंसा करते देखा , जिन्हें बाकायदा दिशा निर्देश देकर उनके आका संचालित कर रहे थे । सिखों को अपने ही देश में अपने ही उन देशवासियों द्वारा इस प्रकार के सुलुक की उम्मीद कभी न थी क्योंकि सिख समुदाय के बारे में टू इतिहास यह बताता है की उन्होंने हिंदू धर्म की रक्षा के लिए ही शास्त्र धारण किए थे और विदेशी हमलावरों से लोहा लिया था । देश में जब कभी मुसलमानों के विरूद्व आर.एस.एस द्वारा सांप्रदायिक मानसिकता से उनका नरसंहार किया गया तो सिख समुदाय को मार्शल फोर्स के तौर पर प्रयुक्त भी किया गया । राजीव गाँधी ने अपने शांतिपूर्ण एवं शालीन स्वभाव से हिंसा पर नियंत्रण तो कर लिया परन्तु एक समुदाय को लंबे समय के लिए कांग्रेस से दूर करने के अपने मंसूबो को बड़ी ही कामयाबी के साथ आर.एस.एस अंजाम दे चुकी थी । देश में अराजकता का माहौल बनने में अहम् भूमिका निभाने वाले आर.एस.एस के लोगो ने अब अवसर को उचित जान कर उत्तर प्रदेश, गुजरात, मध्य प्रदेश व राजस्थान को अपना लक्ष्य बना कर वहां साम्प्रदायिकता का विष घोलना शुरू किया और धीरे-धीरे इन प्रदेशो में मौजूद कांग्रेसी हुकुमतो को धराशाई करना भी शुरू कर दिया। फिर राजीव गाँधी से एक भूल हो गई वह यह की 1989 में नारायण दत्त तिवारी ने उन्हें यह सलाह दी की हिंदू भावनाओ को ध्यान में रखते हुए अयोध्या से ही लोकसभा चुनाव की मुहीम का गाज किया जाए और भाजपा व विश्व हिंदू परिषद् के हाथ से राम मन्दिर की बागडोर छीन कर मन्दिर का शिलान्याश विवादित परिषर के बहार करा दिया जाए। यह सलाह आर.एस.एस ने अपनी सोची समझी राद्निती के तहत कांग्रेस के अन्दर बैठे अपने कारसेवको के जरिये ही राजीव गाँधी के दिमाग में ङलवाई थी । नतीजा इसका उल्टा हुआ , 1989 के आम लोकसभा चुनाव में कांग्रेस न केवल उत्तर प्रदेश में चारो खाने चित्त हुई बल्कि पूरे उत्तर भारत, मध्य भारत, राजस्थान व गुजरात में उसकी सत्ता डोल गई और भाजपा के हिंदुत्व का शंखनाद पूरे देश में होने लगा । अपने पक्ष में बने माहौल से उत्साहित होकर लाल कृष्ण अडवानी जी सोमनाथ से एक रथ पर सवार होकर हिंदुत्व की अलख पूरे देश में जगाने निकल पड़े। अयोध्या तक तो वह न पहुँच पाये, इससे पहले ही बिहार में उनको गिरफ्तार कर लालू, जो उस समय बिहार के मुख्यमंत्री थे, ने उन्हें एक गेस्ट हाउस में नजरबन्द कर दिया । उधर अडवानी जी की गिरफ्तारी से उत्तेजित हिन्दुत्ववादी शक्तियों ने पूरे देश में महौल गर्म कर साम्प्रदायिकता का जहर खूब बढ़-चढ़ कर घोल डाला , इस कार्य में उन्हें भरपूर समर्थन उत्तर प्रदेश में बाबरी मस्जिद एक्शन कमेटी के सहाबुद्दीन , इलियाश अहमद आजमी व मौलाना अब्दुल्ला बुखारी जैसे कट्टरपंथी मुस्लिम नेताओं के आग उगलते हुए भासनो से मिला। क्रमश: -तारीक खान

लो क सं घ र्ष !: छाया पड़ती हो विधु पर...

खुले अधर थे शांत नयन, तर्जनी टिकी थी चिवु पर। ज्यों प्रेम जलधि में चिन्मय, छाया पड़ती हो विधु पर॥ है रीती निराली इनकी , जाने किस पर आ जाए। है उचित , कहाँ अनुचित है? आँखें न भेद कर पाये॥ अधखुले नयन थे ऐसे, प्रात: नीरज हो जैसे। चितवन के पर उड़ते हो, पर भ्रमर बंधा हो जैसे॥ -डॉक्टर यशवीर सिंह चंदेल "राही"

Friday, June 26, 2009

लो क सं घ र्ष !: संघी कारसेवको से कांग्रेस को बचाएँ राहुल

दो दशक पश्चात उत्तर प्रदेश में कांग्रेस का बनवास समाप्ति की पि अल पुनिया को मिली ऐतेहासिक जीता । में भाजपा वोट बैंक-मुस्लिम, दलित व ब्राहमण को कदम एक बार फिर उसकी और मुड रहे है । कांग्रेसी अपनी इस सफलता पर फूले नही समां रहे है ,परन्तु साथ ही आर.एस.एस नाम का एक घटक वायरस दबे पाँव कांग्रेस को स्वस्थ होते शरीर में दोबारा पेवस्त हो रहा है , यदि कांग्रेस हाईकमान समय से न जागा और केवल सत्ता प्राप्ति को नशे में चूर आँखें बंद करके ऐसे तत्वों को पार्टी में दाखिले पर रोक न लगे तो कांग्रेस का हश्र वाही होगा जैसा की नब्बे को दशक में हुआ था की न राम मिला न रहीम और अंत में ब्याज को रूप में दरिद्र नारायण भी उससे रूठ गए। 15 वी लोकसभा चुनाव में जहाँ कांग्रेस को पूरे देश में अद्वितीय सफलता हाथ लगी है , तो वही देश की राजनीति का makka कहे जाने वाले prant उत्तर प्रदेश में कांग्रेस ने दो दशक उपरांत अपने अच्छे दिनों की वापसी को संकेत भी दे दिए है। उसने 21 सीटें प्राप्त करके समाजवादी पार्टी को बाद दूसरी सबसे बड़ी पार्टी को रूप में अपना स्थान बनाया है । जबकि प्रधानमन्त्री का सपना अपनी आँखों में संजोये सुश्री मायावती को २० सीटो को साथ तीसरे स्थान पर संतोष करना पड़ा और पी.एम इन वेटिंग की पार्टी भाजपा को चौथा स्थान उस प्रान्त में प्राप्त हुआ जहाँ उन्हें नब्बे को दशक को प्रारम्भ में सत्ता प्राप्ति की चाभी मिली थी। कांग्रेस की इस जीत का सेहरा यद्यपि कांग्रेसी अपने युवा कमांडर राहुल गाँधी के सर बाँध रहे है । परन्तु क्या अकेले राहुल गाँधी के करिश्माती व्यक्तित्व के चलते कांग्रेस पार्टी की लोकप्रियता में यह उछाल आया है ? इस प्रश्न पर विचार करना अति महत्वपूर्ण है। कांग्रेस को जो सफलता इस बार के संसदीय चुनाव में मिली है उसका यदि गंभीरता से विश्लेषण किया जाए टू हम पाते है की जहाँ-जहाँ भाजपा हाशिये पर सिमट गई है वहीं कांग्रेस को सफलता अधिक प्राप्त हुई है । सुल्तानपुर की सीट पर बाष्प के मुस्लिम उम्मीदवार ताहिर खान के जितने की प्रबल आशा थी परन्तु ज्यों - ज्यों चुनाव आगे बढ़ा कांग्रेसी उम्मीदवार संजय सिंह की स्तिथि मजबूत होती गई । इसका मुख्य कारण है भाजपा का सिमट जाना। इसी प्रकार बाराबंकी सीट पर पी.एल पुनिया को मिली ऐतिहशिक जीत में भाजपा के वोटो का उनकी और स्विंग होना मुख्य कारण रहा , कांग्रेस को २५ वर्ष बाद यह सीट दिलाने में ,तो वहीं भाजपा के लिए सदैव प्रतिष्ठा की रह मानी जाने वाली फैजाबाद सीट पर भी भाजपा का दुर्गत बन गई और लल्लू सिंह को तीसरा स्थान मिला कांग्रेस का निर्मल खत्री ने जमाने का बाद यहाँ कांग्रेस का तिरंगा लहराया उनकी जीत यहाँ और दरियाबाद रुदौली विधान सभाओ का मुस्लिम वोटो का समर्थन उनके पास था तो वहीं अयोध्या समेत अन्य भाजपा का गढ़ वाले क्षेत्रो से भी निर्मल खत्री को अपार समर्थन मिला इसी तरह, श्रावस्ती बहराइच की सीटें जो कांग्रेस जीती तो उसमें भी मुख्य भूमिका आर.एस.एस वोटो की थी यहाँ तक की गोंडा की सीट बेनी बाबू ने यहाँ तेज़ कर दिया होता और उसके जवाब में हिंदू वोटो का ध्रुवीकरण बेनी बाबू की और हुआ होता टू कांग्रेस को यह सीट कदापि मिलतीसपा से या बसपा से सीधी लडाई में कांग्रेस थी और भाजपा का उम्मीदवार कमजोर था भाजपा का वोट कांग्रेस के पक्ष में स्विंग हुआ, चाहे वह कुशीनगर की सीट रही हो या डुमरियागंज की, चाहे वह झाँसी की सीट रही हो या प्रतापगढ़ कीकेवल रामपुर एक ऐसे सीट थी जहाँ सपा के पक्ष में भाजपा का वोट स्विंग हो गया और जो जयाप्रदा पूरे चुनाव भर आंसुओं से रोती रही वह अन्त्तोगोत्वा विजयी होकर अब मुस्कुरा रही हैयहाँ गौरतलब बात है की भाजपा के राष्ट्रिय महासचिव मुख्तार अब्बास नकवी की जमानत तक जब्त हो गईउन्हें शर्मनाक शिकस्त का का सामना करना पड़ावह पार्टी जिसको भाजपा अपना शत्रु नम्बर 1 मानती रही और उसके पक्ष में अपना वोट स्थानांतरित करना एक बड़ी योजना का हिस्सा थाबताते है की आजम खान के हौसलों को पस्त करने के लिए अमर सिंह ने संघ से मदद यह कह कर मांगी की यह उनके मान-सम्मान की बात है , तुम हमारी मदद करो हम केन्द्र में तुम्हारी सरकार बनाए में तुम्हे मदद करेंगेयह बात समझ में भी आती हैवरना इतनी आसानी से भाजपा अपने चहेते वफादार मुस्लिम नेट की दुर्गत यू बनवातीयह बात और है कि भाजपा का सौदा अधूरा रह गया और पि.ऍम इन वेटिंग वेटिंग रूम में बैठकर वेटिंग ही करते रह गए और कांग्रेस कि गाड़ी दिल्ली पहुँच गईऐसी नौबत आई कि राजग को सत्ता में अमर सिंह कि सेवाएँ लेनी पड़तीक्रमश: - मो. तारीख खान

लो क सं घ र्ष !: जलते है स्वप्न हमारे...

वक्र - पंक्ति में कुंद कलि किसलय के अवगुण्ठन में। तृष्णा में शुक है आकुल, ज्यों राधा नन्दन वन में॥ उज्जवल जलकुम्भी की शुचि, पंखुडियां श्वेत निराली। हो अधर विचुम्बित आभा, जल अरुण समाहित लाली॥ विम्बित नीरज गरिमा से मंडित कपोल तुम्हारे। नीख ज्वाला में उनकी , जलते है स्वप्न हमारे॥ -डॉक्टर यशवीर सिंह चंदेल 'राही'

Thursday, June 25, 2009

लो क सं घ र्ष !: बढती महंगाई और घटी दर ,यह देखो सरकारों का खेल

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लो क सं घ र्ष !: अब चेतन सी लहराए...

शशि मुख लहराती लट भी, कुछ ऐसा दृश्य दिखाए। माद्क सुगन्धि भर रजनी, अब चेतन सी लहराए॥ मन को उव्देलित करता, तेरे माथे का चन्दन। तिल-तिल जलना बतलाता तेरे अधरों का कम्पन ॥ पूनम चंदा मुख मंडल, अम्बर गंगा सी चुनर। विद्रुम अधरों पर अलकें, रजनी में चपला चादर॥ -डॉक्टर यशवीर सिंह चंदेल 'राही'

यस,कमेंट्स प्लीज़

आज के ही दिन १९७५ में हिंदुस्तान में आपातकाल तत्कालीन सरकार ने लगा दिया था। तब से लेकर आज तक देश की एक पीढी जवान हो गई। इनमे से करोड़ों तो जानते भी नहीं होंगें कि आपातकाल किस चिड़िया का नाम है। आपातकाल को निकट से तो हम भी नहीं जानते,हाँ ये जरुर है कि इसके बारे में पढ़ा और सुना बहुत है। तब इंदिरा गाँधी ने एक नारा भी दिया था, दूर दृष्टी,पक्का इरादा,कड़ा अनुशासन....आदि। आपातकाल के कई साल बाद यह कहा जाने लगा कि हिंदुस्तान तो आपातकाल के लायक ही है। आपातकाल में सरकारी कामकाज का ढर्रा एकदम से बदल गया था। कोई भी ट्रेन एक मिनट भी लेट नहीं हुआ करती। बतातें हैं कि ट्रेन के आने जाने के समय को देख कर लोग अपनी घड़ी मिलाया करते थे। सरकारी कामकाज में समय की पाबन्दी इस कद्र हुई कि क्या कहने। इसमे कोई शक नहीं कि कहीं ना कहीं जयादती भी हुई,मगर ये भी सच है कि तब आम आदमी की सुनवाई तो होती थी। सरकारी मशीनरी को कुछ डर तो था। आज क्या है? आम आदमी की किसी भी प्रकार की कोई सुनवाई नहीं होती। केवल और केवल उसी की पूछ होती है जिसके पास या तो दाम हों, पैर में जूता हो या फ़िर कोई मोटी तगड़ी अप्रोच। पूरे देश में यही सिस्टम अपने आप से लागू हो गया। पता नहीं लोकतंत्र का यह कैसा रूप है? लोकतंत्र का असली मजा तो सरकार में रह कर देश-प्रदेश चलाने वाले राजनीतिक घराने ले रहें हैं। तब हर किसी को कानून का डर होता था। आज कानून से वही डरता है जिसको स्टुपिड कोमन मैन कहा जाता है। इसके अलावा तो हर कोई कानून को अपनी बांदी बना कर रखे हुए है। भाई, ऐसे लोकतंत्र का क्या मतलब जिससे कोई राहत आम जन को ना मिले। आज भी लोग कहते हुए सुने जा सकते हैं कि इस से तो अंग्रेजों का राज ही अच्छा था। तब तो हम पराधीन थे।कोई ये ना समझ ले कि हम गुलामी या आपातकाल के पक्षधर हैं। किंतु यह तो सोचना ही पड़ेगा कि बीमार को कौनसी दवा की जरुरत है। कौन सोचेगा? क्या लोकतंत्र इसी प्रकार से विकृत होता रहेगा? कोमन मैन को हमेशा हमेशा के लिए स्टुपिड ही रखा जाएगा ताकि वह कोई सवाल किसी से ना कर सके। सुनते हैं,पढ़तें हैं कि एक राज धर्म होता है जिसके लिए व्यक्तिगत धर्म की बलि दे दी जाती है। यहाँ तो बस एक ही धर्म है और वह है साम, दाम,दंड,भेद से सत्ता अपने परिवार में रखना। क्या ऐसा तो नहीं कि सालों साल बाद देश में आजादी के लिए एक और आन्दोलन हो।

Wednesday, June 24, 2009

लो क सं घ र्ष !: राष्ट्रिय हितों के सौदागर है ये निक्कर वाले....तो यह हाल तलवार भाजने वाले लौहपुरुष और योद्धाओ का है ।

क्या कांग्रेस फैसले में शामिल थी? देखो ,ख़ुद अडवानी ने 24 मार्च 2008 को शेखर गुप्ता को दिए गए इन्टरव्यू में क्या कहा था। अडवानी , "मुझे ठीक तरह से याद नही है की सर्वदलीय बैठक में कौन-कौन था। लेकिन मोटे तौर पर सरकार को सलाह दी गई थी की संकट ख़त्म करने के लिए सरकार फ़ैसला करे। यह भी कहा गया था की यात्रियों की रिहाई को सबसे ज्यादा तरजीह दी जानी चाहिए। " इस पर शेखर ने पुछा ,"क्या कांग्रेस ने भी ऐसा कहा था?" अडवानी का जवाब था, "मुझे वह याद नही, लेकिन आमतौर से यह बात कही गई थी।" अडवानी के इस साफ़ बयान से कांग्रेस को संदेह का लाभ मिलता है । कांग्रेस प्रवक्ताओ के इस सवाल में बड़ा दम है और आखिर अडवानी किस तरह के "लौहपुरुष " है की उन्हें बहुत ही संवेदनशील फैसलों से दूर रखा गया और क्या प्रधानमन्त्री वाज़पेई उन पर भरोषा नही करते थे ? अगर अडवानी इतना ही अप्रसन्न थे तो पद त्याग करने का सहाश क्यों नही कर पाये । लाल बहादुर शास्त्री ने एक रेल दुर्घटना के बाद इस्तीफा दे दिया था । विश्वनाथ प्रताप सिंह ने डाकुवो के मुद्दे पर उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री का पद छोड़ दिया था । जवाहरलाल नेहरू ने पुरुषोत्तम दास टंडन और डॉक्टर राजेन्द्र प्रसाद जैसे नेताओं से नीतिगत विवादो पर इस्तीफे की पेशकश कर डाली थी। यहाँ तो अभूतपूर्व राष्ट्रिय सुरक्षा और स्वाभिमान का संकट था। ख़ुद अडवानी की किताब "मई कंट्री मई लाइफ" से निष्कर्ष निकलता है की वह और उनके सहयोगी सकते में आ गए थे, जो कुछ हुआ वह राजनितिक फैसला था और प्रशासकीय सलाहकारों से जरूरी मशविरा नही किया गया। अडवानी लिखते है (पेज 623) : "विमान यात्रियों को छुडाने के लिए एक विकल्प सरकार के पास यह था की विमान से कमांङो और सैनिक कंधार भेज दिए जाएँ । लेकिन हमें सूचना मिली की तालिबान अधिकारियो ने इस्लामाबाद के निर्देश पर हवाई अड्डे को तनको से घेर लिया है। हमारे कमांडर विमान के अन्दर अपर्ताओ को निहता कर सकते थे। लेकिन विमान के बहार तालिबानी सैनिको से साशस्त्र संघर्ष होता और जिनकी जान बचाने के लिए यह सब किया जाता,वे खतरे में पड़ जाते ।" (अडवानी के इस कदम का पोस्त्मर्तम करें । किस सुरक्षा विशेषज्ञ ने सलाह दी थी की कंधार में कमांडो कार्यवाही सम्भव है? अगर तालिबान टंक न लगाते टू क्या कमांडो कार्यवाही हो जाती? कमांडर!(please do not change it to commando. advaani has issued the term commandor) विमान के अन्दर अपर्ताहो को निहत्था करने के लिए पहुँचते कैसे? कंधार तक जाते किस रास्ते ?पकिस्तान अपने वायु मार्ग के इस्तेमाल की इजाजत देता नही । मध्य एशिया के रास्ते आज तो कंधार पहुचना सम्भव है । तब यह सम्भव नही था। कल्पना करें की कंधार तक हमारे कमांडो सुगमतापूर्वक पहुँच भी जाते ,तब वे किसे रिहा कराते ? क्योंकि इस बीच आइ .एस.आइ यात्रियों और अपर्थाओ को कहीं और पहुंचवा देती । १९६२ में चीन के हाथो हार के बाद कंधार दूसरा मौका था जब भारत की नाक कटी । उस त्रासद नाटक के मुख्य पात्र अडवानी इस घटना के बारे में कितना गंभीर है है इसका अंदाजा यूँ लगाइए की घटना के कई साल बाद किताब लिखी और उसमें पूरे मामले का सरलीकरण कर दिया। पर तो परदा पड़ा ही हुआ है । नाटक के एक बड़े पात्र जसवंत सिंह ने अपनी किताब "A call to owner: in service of imergent India" में कोई खुलाशा नही किया । बल्कि बड़े गर्व से कह रहे है की भविष्य में कंधार जैसा फिर कोई हादसा हुआ तो वह वाही करेंगे, जो पिछली बार किया था । तो यह हाल तलवार भाजने वाले लौहपुरुष और योद्धाओ का है । सी॰टी॰बी॰टी : परमाणु परीक्षणों पर रोक लगाने वाली इस संधि पर बीजेपी के रुख की कहानी बहुत दिलचस्प है। कांग्रेस सरकारों ने बम बनाये। लेकिन पोखरण -२ के जरिये बीजेपी ने अपने महान राष्ट्रवाद का परिचय देने की कोशिश की। मनमोहन सिंह की सरकार जब अमेरिका से परमाणु समझौता कर रही थी,तब बीजेपी के विरोध की सबसे बड़ी वजह यह थी की भारत परमाणु विश्फोतो के अधिकार से वंचित हो जाएगा। सच यह है की भारत को निहता करने में वाजपेई सरकार ने कोई कसार नही छोडी थी और इस त्रासद की कहानी के खलनायक थे विदेशमंत्री जसवंत सिंह। एन डी ए शाशन के दौरान अमेरिका में विदेशी उपमंत्री स्ट्राब टैलबॉट ने अपनी किताब "एनगेजिंग इंडिया :डिप्लोमेसी ,डेमोक्रेसी एंड द बोम्ब " में वाजपेयी सरकार की कायरता पूर्ण और धोखेबाज हरकतों का खुलासा किया है। टैलबॉट ने पेज १२१ पर लिखा है, "जसवंत क्लिंटन के नाम वाजपेयी का पत्र लेकर वाशिंगटन पहुंचे , जो उन्होंने मेरे कक्ष में मुझे दिखाया । इस पर नजर डालते हुए सबसे महत्वपूर्ण वाक्य पर मेरी निगाह रुकी । यह था, "भारत सितम्बर 1999 तक सी॰टी॰बी॰टी पर स्वीकृति का निर्णय लेने के लिए महत्वपूर्ण वार्ताकारों से रचनात्मक वार्ता करता रहेगा।" बाद में विदेश मंत्रालय के अधिकारी सैंङी बर्गर से बातचीत के दौरान जसवंत ने कहा की वाजपेयी सी॰टी॰बी॰टी पर हस्ताक्षर करने का अन्पलत निर्णय कर चुके है । यह बस वक्त की बात है की इस निर्णय को कब और कैसे सार्वजानिक किया जाए। " पेज 208 पर टैलबॉट बताते है की सरकार से उनके हटने के पहले जसवंत से आखिरी मुलाकात में एन डी ए सरकार के इस वरिष्ठ मंत्री ने सी॰टी॰बी॰टीपर दस्तखत का वादा पूरा न करने पर किस तरह माफ़ी मांगी। "जसवंत ने मुझसे अकेले मुलाकात का अनुरोध किया,जिसमें सी॰टी॰बी॰टी पर संदेश देना था। जसवंत ने वादा पूरा न करने पर माफ़ी मांगी। मैंने कहा की मालूम है कि आपने कोशिश की, मगर परिस्तिथियों ने साथ नही दिया। " तो यह है संघ परिवार के सूर्माओ का असली चरित्र । कश्मीर,कंधार और सी॰टी॰बी॰टी पर अपने काले कारनामो का उन्हें पश्चाताप नही है। यह सब सुविचारित नीतियों का स्वाभाविक परिणाम है। इन तीन घटनाओ से यह नतीजा भी निकलता है कि बीजेपी को अगर कभी पूर्ण बहुमत मिला तो हम जिसे भारत राष्ट्र के रूप में जानते है, उसे चिन्न-भिन्न कर डालेगी । प्रदीप कुमार मोबाइल :09810994447

Tuesday, June 23, 2009

Khwaja Gharib Nawaz- SYMBOL OF LOVE, HARMONY AND PEACE

The 797th urs (Death Anniversary) of Hazrat Khwaja Moinuddin Hasan Chishty (R.A) known as Gharib Nawaz (R.A) will be held from 1st to 6th RAZAB corresponding to :- 25th to 30th of june 2009 (depending upon the visibility of Moon). Inspired by the spiritual command of the PROPHET MOHAMMAD (S.A.W), Huzoor Khwaja Gharib Nawaz (R.A) became the harbinger of peace and prosperity not only in India but in the whole world and people use to attend the shrine of Gharib Nawaz (R.A) with their heartfelt desire and cherished wishes and return used to go brimful with fruition of their inner aspiration.
SYMBOL OF LOVE, HARMONY AND PEACE Hazrat Khwaja Moinuddin Hasan Chishty(R.A) occupies a prominent place among the spiritual Healers of the world. Hazrat Khwaja Moinuddin Hasan Chishty (R.A.) popularly know as Khwaja Gharib Nawaz (R.A.) was born in 1142 A.D. in Sanjar (Iran). His paternal genealogy is related to Hazrat lmam Hussain (A.S.) and that of his matemal to Hazrat Imam Hassan (A. S.) and thus he is a direct descendant of Prophet Hazrat Mohammad (S.A.W.) In his temperament as in the circumstance of his life Khwaja Sahib was destined for an extra ordinary career.Into a tottering civilization, fraught with material acquisition, which guaranteed no safety to human life and which conferred no spiritual freedom on human beings he burst forth all the masterful force of his personality, There is a complete blending of greatness and grace, mediation and action precept, practice, indifference of the mystic and idealism of a Saint. He is a SYMBOL OF LOVE, HARMONY AND PEACE. The sources of this power may be traced to his own exceptional endowments.Throughout his life, he exhibited the noble traits of character so peculiar to the house of Prophet Mohammed (S.A.W) to which he belonged.His Shrine in Ajmer sharif is an important religious institution which for centuries has been attracting pilgrims from all over the world, irrespective of caste and creed. It is a symbol of humanity, national and emotional integration in the whole world. He interpreted the true Islamic message of love for mankind and through that the love for the Almighty Allah. He preached the Message of Islam, the message of the unity of religion and worked out its potentialities for the whole humanity.He laid the foundation of the liberal Chishtya order of sufis in India, and inspired millions of souls to be his followers and thus enlightened the masses of the Indian Sub-continent with the divine knowledge.

लो क सं घ र्ष !: प्रात : दुल्हन सी किरणें ...

प्रात : दुल्हन सी किरणें है नीरज को छू लेती । अलि समझे इससे पहले परिरम्य-मुक्त कर देती ॥ चम्पक पुष्पों की रेखा, मन को आडोलित करती। नित नूतन ही उसकी, सन्दर्भ विवर्तित करती॥ अलकें कपोल पर आकर, चंच; हो जाती ऐसे। विधु -रूप-सुधा भरने को दौडे धन शावक जैसे॥ -डॉक्टर यशवीर सिंह चंदेल ''राही''

लो क सं घ र्ष !: राष्ट्रिय हितों के सौदागर है ये निक्कर वाले

बीज़ेपी और संघ परिवार के अन्य सदस्यो के सन्दर्भ में कल्पना करें की भारत जैसे विविधतापूर्ण और बहुलवादी देश में देश भक्त होने के लिए सेकुलर होने और विख्नण्ङनकारी राजनीति के त्याग की शर्त कोई जरूरी नही है क्योंकि सावरकर से लेकर गोलवलकर तक ,हिंदुत्व के सभी विचारको को हिटलर ने सदैव प्रेरित किया है । इसलिए , सिर्फ़ तर्क की खातिर , देखते है की संघ परिवार जिन हिन्दुत्ववादी ताकतों का प्रतिनिधित्व करता है, वे हिटलरी नजरिये से राष्ट्रवादी है या नही। सिर्फ़ तीन मुद्दों कश्मीर, कंधार और सीटीबीटी - पर हम विचार करेंगे । इस विचार का निष्कर्ष यह है की सबको, खासतौर से मुसलमानों को, राष्ट्रभक्ति का सर्टिफिकेट देने वाली ये ताकतें वास्तव में राष्ट्रिय हितों की सौदागर है और भारतीय जनता ने 15 वी लोकसभा के चुनाव में अडवानी एंड कंपनी को शिकस्त देकर ऐतिहासिक कार्य किया है । पहले कश्मीर। यह सर्विदित है, फिर भी संछेप में दोहराने की जरूरत है की जम्मू - कश्मीर का हिंदू महाराजा अंत तक अपनी रियासत की संप्रभुता के लिए कोशिश करता रहा, पाकिस्तानी हमले के बाद महाराजा रातोरात श्रीनगर से भागकर जम्मू पहुँचा और उस दौरान शेख अब्दुल्ला श्रीनगर में जनता के साथ खड़े रहे, शेख अब्दुल्ला की बदौलत कश्मीर का भारत में विलय हुआ और अगर महात्मा गाँधी एवं जवाहरलाल नेहरू न होते टू कश्मीर भारत में न होता । उस दौर में ''एक देश में दो विधान , दो निशान , दो प्रधान नही चलेंगे, नही चलेंगे '' का नारा लगाकर भारतीय जनसंघ ने विखंडन का बीजरोपण कर राष्ट्रिय सर्वानुमति को कमजोर किया। अब देखिये 21 वी शताब्दी में क्या हो रहा है । पकिस्तान चाहता है की कश्मीर घाटी उसे मिल जाए और भारत जम्मू-लद्दाख के इलाके ले ले । सामरिक महत्त्व के अलावा कश्मीर घाटी की अहमियत यह है की वह मुस्लिम बहुल है। अमेरिका में सक्रीय 'कश्मीर ग्रुप' के अमेरिकी नेट कठियारी का फार्मूला भी इसी समाधान से मिलता -जुलता है। आर.एस.एस के फोर्मुले से पकिस्तान के मनसूबे पूरे हो रहे है । जम्मू - कश्मीर के ऐसे विभाजन की मांग टू अभी तक अलगाववादी संगठन हुर्रियत कांफ्रेंस ने भी नही की है । सहज बुद्धि से समझा जा सकता है की भारत के अन्दर बने स्वायत्त मुस्लिम कश्मीर राज्य के पकिस्तान के विलय में ज्यादा वक्त नही लगेगा । निष्कर्ष यह है की भारत की अखंडता के बजाय करीब 60 लाख मुसलमानों से छुटकारा आर.एस.एस के लिए ज्यादा महत्वपूर्ण है। कंधार :24 दिसम्बर 1999 को इंडियन एयरलाइन्स की फलीते आईसी 814 के साथ हुआ हादसा एक सबूत है की संघ परिवार के लौह पुरूष वास्तव में मोम के होते है और अपनी सरकार बचाने के लिए उन्हें राष्ट्रिय हितों को ठुकराने में संकोच नही होता। यह भी की वे अपनी बुज़दिली को छुपाने के लिए बेलगाम झूठ-फरेब का सहारा लेते है। गौरतलब है की तीन कुख्यात आतंकवादियो की रिहाई के बदले बाजपेई सरकार ने विमान यात्रियों की आजादी कंधार से हासिल की थी । इन ती३न आतंकवादियो को अपने साथ विशेष विमान में बिठाकर विदेश मंत्री जसवंत सिंह कंधार ले गए थे। अडवानी के लौह पुरूष की छवि को बनाये रखने के लिए लगातार कोई न कोई झूठ बोला जाता रहा है। नवीनतम बयान अरुण शोरी का है , जो उन्होंने लोकसभा चुनाव का दौरान दिया । बिजपी के प्रधानमंत्री पड़ के उम्मीदवार (!) की वीरोचित छवि की रक्षा के लिए शोरी ने कहा की कैबिनेट की बैठक में अडवानी ने आतंकवादियो की रिहाई का विरोध किया था। लेकिन ख़ुद अडवानी अभी तक कहते रहे है की जसवंत सिंह को कंधार भेजे जाने के बारे में उन्हें अंत तक जानकारी नही थी। वह इस आशय का बयान भी दे चुके है की आतंकवादियों को रिहा करने के फैसले से भी वह नही जुड़े थे। वह यह भी कह चुके है और सुघिन्द्र कुलकर्णी इन दिनों बार-बार इसे कह रहे है की विमान यात्रियों के बदले आतंकवादियों को रिहा करने का फैसले पर कांग्रेस समेत सभी पार्टियां सहमत थी । तत्कालीन रक्षामंत्री जार्ज़ फर्नाङिस के बयान का दो टूक खंडन कर चुके है । जार्ज़ का कहना है की जिस मीटिंग में फ़ैसला लिया गया, उसमें अडवानी मौजूद थे। कश्मीर के तत्कालीन मुख्यमंत्री फारुख अब्दुल्ला का कहना है की अडवानी ने फोनकर कश्मीर की जिलो में बंद आतंकवादियो -मसूद अजहर और मुश्ताक जरगर को रिहा करने की बात कही तो उन्होंने इसका विरोध किया । क्रमश : प्रदीप कुमार लेखक सुप्रसिद्ध पत्रकार है॥ मोबाइल:09810994447

Monday, June 22, 2009

लो क सं घ र्ष !: सुंदर सी, सुन्दरता

है राग भरा उपवन में, मधुपों की तान निराली। सर्वश्व समर्पण देखूं फूलो का चुम्बन डाली॥ स्निग्ध हंसी पर जगती की, पड़ती कुदृष्टि है ऐसी। आवृत पूनम शशि करती, राहू की आँखें जैसी॥ उपमानों की सुषमा सी, सौन्दर्य मूर्त काया सी। प्रतिमा है अब मन में सुंदर सी,सुन्दरता सी॥ -डॉक्टर यशवीर सिंह चंदेल ''राही''

लो क सं घ र्ष !: फिर स्वप्न सुंदरी बनना...

वह मूर्तिमान छवि ऐसी, ज्यों कवि की प्रथम व्यथा हो। था प्रथम काव्य की कविता प्रभु की अनकही व्यथा हो॥ निज स्वर की सुरा पिलाकर हो मूक ,पुकारा दृग ने। चंचल मन बेसुध आहात ज्यों बीन सुनी हो मृग ने॥ मुस्का कर स्वप्न जगाना, फिर स्वप्न सुंदरी बनना। हाथो से दीप जलना अव्यक्त रूप गुनना॥ -डॉक्टर यशवीर सिंह चंदेल 'राही'

Sunday, June 21, 2009

लो क सं घ र्ष !: प्रहरी मुझको कर डाला...

लघु स्मृति की प्राचीरों ने, कारा निर्मित कर डाला । बिठला छवि रम्य अलौकिक प्रहरी मुझको कर डाला ॥ पाटल-सुगंधी उपवन में, ज्यों चपला चमके घन में। वह चपल चंचला मूरत विस्थापित है अब मन में॥ परिधान बीच सुषमा सी, संध्या अम्बर के टुकड़े । छुटपुट तारों की रेखा हो लाल-नील में जकडे॥ -डॉक्टर यशवीर सिंह चंदेल 'राही'

लो क सं घ र्ष !: तब भटकती प्रत्याशा...

ले प्रेम लेखनी कर में मन मानस के पृष्ठों में। अनुबंध लिखा था तुमने उच्छवासो की भाषा में॥ अनुबंध ह्रदय से छवि का है लहर तटों की भाषा। जब दृश्य देख लेती है तब भटकती प्रत्याशा॥ उन्मीलित नयनो में अब छवि घूम रही है ऐसे। भू मंडल के संग घूमे, रवि,दिवस,प्रात तम जैसे॥ -डॉक्टर यशवीर सिंह चंदेल ''राही''

लो क सं घ र्ष !: अवधी भाषा में सवैये

श्रम के बलु ते भरी जाँय जहाँ गगरी -गागर ,बखरी बखरा । खरिहान के बीच म ऐसु लगे जस स्वर्ग जमीन प है उतरा । ढेबरी के उजेरे मा पंडित जी जहँ बांची रहे पतरी पन्तर। पहिचानौ हमार है गांव उहै जहाँ द्वारे धरे छ्परी - छपरा॥ निमिया के तरे बड़वार कुआँ दरवज्जे पे बैल मुंडेरी पे लौकी। रस गन्ना म डारा जमावा मिलै तरकारी मिली कडू तेल मा छौंकी । पटवारी के हाथ म खेतु बंधे परधान के हाथ म थाना व चौकी । बुढऊ कै मजाल कि नाही करैं जब ज्यावें का आवे बुलावे क नौकी॥ अउर पंचो! हमरे गाव के प्रेम सदभाव कै पाक झलक दे्खयो- अजिया केरे नाम लिखाये गए संस्कार के गीत व किस्सा कहानी । हिलिकई मिलिकै सब साथ रहैं बस मुखिया एक पचास परानी। हियाँ दंगा -फसाद न दयाखा कबो समुहै सुकुल समुहै किरमानी। अठिलाये कई पाँव हुवें ठिठुकई जहाँ खैंचत गौरी गडारी से पानी॥ हियाँ दूध मा पानी परे न कबो सब खाय-मोटे बने धमधूसर । भुइयां है पसीना से सिंची परी अब ढूंढें न पैहो कहूं तुम उसर। नजरें कहूँ और निशाना कहूँ मुल गाली से जात न मुसर। मुखडा भवजाई क ऐसा लगे जस चाँद जमीन पै दुसर ॥ -अम्बरीष चन्द्र वर्मा ''अम्बर''

Saturday, June 20, 2009

लो क सं घ र्ष !: आदित्य बिरला के बाद रतन टाटा की ब्लैकमेलिंग#links#links#links#links

लोकसंघर्ष ब्लॉग का इन्टरनेट कनेक्शन टाटा इंडिकॉम कंपनी का प्लग टू सर्फ़ से चलाया जा रहा था । समय से बिल का भुगतान भी किया जा रहा था । अचानक एक हफ्ते पूर्व बाराबंकी जनपद में समस्त टाटा उपभोक्ताओ के इन्टरनेट कनेक्शन ब्लाक कर दिए है और टाटा के एजेंट उपभोक्ताओ को फ़ोन करके यह कह रहे है की भुगतान किए बिल को पुन : जमा करा दो और कनेक्शन चालू हो जाएगा दुबारा भुगतान किए गए रुपयों का आगे समायोजन कर लिया जाएगा इससे ऐसा प्रतीत होता है की टाटा इंडिकॉम कंपनी दिवालिया हो गई है और जिन उपभोक्ताओ को अपना काम टाटा के मध्यम से करना है तो उसकी अनिवार्यिता देखते हुए टाटा इंडिकॉम कंपनी ब्लैक मेल कर रही है ॥

Friday, June 19, 2009

पी,पी,पी और एक और पी

पब्लिक,पुलिस,प्रेस और पॉलिटिकल लोग। मतलब चार पी। आम तौर पर ये कहा,सुना जाता है कि इनमे आपस में खूब ताल मेल होता है। एक दूसरे के पूरक और एक दूसरे की जरुरत हैं,सभी पी। हाँ, ये जरुर हो सकता है कि कहीं कोई दो पी में अधिक घुटती हैं,कहीं किसी दो पी में। ऐसा तीन पी के साथ भी हो सकता है,चार पी के साथ भी। श्रीगंगानगर के बारे में थोड़ा बहुत हम समझने लगे हैं। सम्भव है हमारी सोच किसी और से ना मिलती हो। हमें तो ये लगता है कि हमारे यहाँ पुलिस और प्रेस का मेल मिलाप बहुत बहुत अधिक है। यूँ कहें कि इनमे चोली दामन का साथ है,दोनों में जानदार,शानदार,दमदार समन्वय,सामंजस्य है। यह सब लगातार देखने को भी मिलता रहता है।श्रीगंगानगर की पुलिस कहीं भी कोई कार्यवाही करे,केवल जाँच के लिए जाए,छापा मारी करे, प्रेस भी उनके साथ होती है। कई बार तो ऐसा होता है कि पुलिस कम और प्रेस से जुड़े आदमी अधिक होते हैं। कभी पुलिस आगे तो कभी प्रेस। कई बार तो ये भ्रम होता है कि पुलिस के कारण प्रेस वाले आयें हैं या प्रेस के कारण पुलिस। अब जहाँ भी ये दोनों जायेंगें,वहां के लोगों में घबराहट होना तो लाजिमी है। इन दो पी में ऐसा प्रेम बहुत कम देखने को मिलता है। प्रेस का तो काम है,एक्सक्लूसिव से एक्सक्लूसिव फोटो और ख़बर लाना,उसको अख़बार में छापना। काम तो पुलिस भी अपना ही करती है,लेकिन प्रेस के कारण उसको इतनी अधिक मदद मिलती है कि क्या कहने। एक तो अख़बारों में फोटो छप जाती हैं। दूसरा, प्रेस पर अहसान रहता है कि उनको मौके की तस्वीर पुलिस के कारण मिल गई। तीसरा,पुलिस अपराधी पर दवाब जबरदस्त तरीके से बना पाती है। सबसे खास ये कि पुलिस किसी नेता या अफसर का फोन सिफारिश के लिए आए तो उसे ये कह कर टरका सकती है-सर,आप जैसा कहो कर लेंगें मगर यह सब अख़बारों में आ गया। सर, अख़बारों में फोटो भी छप गई,पता नहीं प्रेस को कैसे पता लगा गया कार्यवाही का। सर....सर....सर..... । इसके अलावा अन्दर की बात भी होती है। जैसे,पुलिस जिनके यहाँ गई उनको ये कह सकती है कि भाई, प्रेस साथ में हैं हम कुछ नहीं कर सकते। अब कार्यवाही के समय कौनसी फोटो लेनी है, कौनसी नहीं। कौनसी व्यक्तिगत है,कौनसी नहीं, ये या तो पुलिस बताये[ कई बार संबंधों के आधार पर पुलिस ऐसा बताती भी है। तब प्रेस को फोटो की इजाजत नहीं होती] या फ़िर प्रेस ख़ुद अपने विवेक से निर्णय ले। पब्लिक को तो पता ही नहीं होता कि प्रेस कौनसी फोटो छाप सकता है कौनसी नहीं। इन सब बातों को छोड़कर इसी मुद्दे पर आतें हैं कि श्रीगंगानगर में प्रेस-पुलिस का आपसी प्रेम [ एक और पी] बना रहे। अन्य स्थानों के पी भी इनसे कुछ सीखें। इन पी को हमारा सलाम।

Wednesday, June 17, 2009

ये टेंशन तो समाप्त हुई

सुबह सुबह एक क्रिकेट प्रेमी मित्र मिल गए। मिलते ही बोले,चलो एक टेंशन तो मिटी। सोचा, रात को मिले तो ठीक थे। अचानक ऐसा रात को क्या हुआ और जो ठीक भी हो गया। मैंने पूछा,कौनसी टेंशन? वह बोला, भारत की क्रिकेट टीम टी-२० से बाहर हो गई। करोडों देशवासियों को चिंता रहती,क्या होगा? जीतेंगें, हारेंगें! अब ये चिंता तो समाप्त हुई। इतना कह कर वे चले गए। लेकिन मैं सोच रहा था कि उनकी एक ही टेंशन समाप्त हुई है। इसका मतलब उनको और भी टेंशन है। सचमुच और बहुत सी टेंशन हैं घर घर में। जैसे बालिका वधु में सुगना का क्या होगा? माँ सा का व्यवहार बदलेगा या नहीं? महलों वाली रानी कुंदन के घर चली गई! हाय अब क्या होगा?रानी उसको सुधार कर कब घर आयेगी?वैसे एक सड़क दुर्घटना के कारण ऐसा होता है यह पहली बार देखा।घर घर में इस बात की टेंशन भी है कि क्या ज्योति की जिंदगी में खुशियाँ फ़िर से आएँगी?क्या होगा जब अक्षरा और ऋतुराज आमने सामने होंगें? हमको ये टेंशन नहीं कि बुजुर्ग मम्मी-पापा को डॉक्टर के पास लेकर जाना है। उनके लिए आँख की दावा या चश्मा लाना है।हमारे मुहं में रोटी का निवाला होता है,आँख टीवी पर,एक हाथ रिमोट पर,दिमाग बाजार के किसी काम या दफ्तर में और कान वो सुन रहे होते हैं जो बीबी,मां या बच्चे कुछ बोल रहे हैं। फ़िर हम कहते हैं कि आजकल भोजन में स्वाद नहीं आता। स्वाद , स्वाद तो जब आएगा जब तुम भोजन करोगे। रिमोट हाथ में लेकर बार बार चैनल बदल रहें हैं। पता नहीं आपके अन्दर का आदमी कौनसा चैनल देखना चाहता है। जीरो से लेकर सौ तक देखा,फ़िर जीरो पर आ गए। उसके बाद वही एक,दो,तीन लगातार सौ तक। इसका कारण है कि हमारा दिमाग टीवी में नहीं कहीं ओर है।कल एक जैन मुनि श्री प्रशांत कुमार से मिलने का अवसर मिला। उन्होंने एक पुस्तक"सफलता का सूत्र" दी। इस किताब में एक जगह लिखा है-शिक्षित सा दिखने वाला एक युवक दौड़ता हुआ आया और टैक्सी ड्राईवर से बोला-"चलो,जरा जल्दी मुझे ले चलो। " हाथ का बैग उसने टैक्सी में रखा और बैठ गया। ड्राईवर ने टैक्सी स्टार्ट कर पूछा ,साहब कहाँ जाना है?युवक बोला,सवाल कहाँ -वहां का नहीं है,सवाल जल्दी पहुँचने का है। बस हम जल्दी पहुंचना चाहते हैं, लेकिन लक्ष्य तय नहीं किया।

तुम क्या आये

तुम क्या आये ये बहारें आईं, तुम चले आये तो, अब छंट ही गई तनहाई । हम इतने दिन तुम्हारी राह देखते ही रहे, ओर आज देखो अचानक बजी है शहनाई । हम अपने आप से क्यूं यूं शरमाते हैं, इन आँखों में बसी है तुम्हारी परछाई । अब तलक जो चुपचाप सी थी ये ऋत, आज मुस्कुराती सी लेने लगी है अंगडाई । फूल खिलते हैं, देखो, पंछी चहके जाते हैं किसकी खातिर महकती है यहाँ अंगनाई । अब न जाने की बात करना, न दूर जाना कभी, वरना हम ही नही जमाना कहेगा हरजाई ।

Sunday, June 14, 2009

लो क सं घ र्ष !: अपना कह दूँ मैं किसको ...

मिलकर भी मिल सका जो , मन खोज रहा है उसको। सव विश्व खलित धाराएं अपना कह दूँ मैं किसको याचक नयनो का पानी अवगुण्ठन में मुसकाता ''कल्याण -रूप , चिर-सुंदर- तुम सत्य'' यही कह जाता॥ पृथ्वी का आँचल भीगा तरुनी -लहर ममता में। निर्दयता की गाथायें अम्बर -पट की समता में॥ -डॉक्टर यशवीर सिंह चंदेल 'राही'

लो क सं घ र्ष !: कुछ डूबी सी उतराए...

जो है अप्राप्य इस जग में , वह अभिलाषा है मन की। मन-मख,विरहाग्नि जलाकर आहुति दे रहा स्वयं की॥ अपने से स्वयं पराजित , होकर भी मैं जीता हूँ । अभिशाप समझ कर के भी मैं स्मृति - मदिरा पीता हूँ ॥ दुर्दिन की घाटी भी अब विश्वाश भरी लहराए। उस संधि -पत्र की नौका कुछ डूबी सी उतराए॥ -डॉक्टर यशवीर सिंह चंदेल ''राही'

Saturday, June 13, 2009

लो क सं घ र्ष !: लज्जित हो मेरी लघुता

निराधार सपने टूटे, क्रंदन शेष रहा मन का । भ्रमता जीव ,नियति रूठी, परिचय पाषाण ह्रदय का॥ लज्जित हो मेरी लघुता , कोई नरेश बन जाए। अधखुली पलक पंकज में, जगती का भेद छिपाए॥ आशा की ज्योति सजाये , है दीप शिखा जलने को। लौ में आकर्षण संचित है शलभ मौन जलने को॥ -डॉक्टर यशवीर सिंह चंदेल 'राही'

Friday, June 12, 2009

लो क सं घ र्ष !: क्रय कर ली अभिलाषाएं...

मधु के ग्राहक बहुत मिले , क्रय कर ली अभिलाषाएं। अब मोल चुका कर रोती कुचली अतृप्त आशाएं ॥ अव्यक्त कथा कुछ ऐसी, आँचल में सोई रहती। हसने की अभिलाषा में, आंसू में भीगी रहती ॥ मेरे दृगमबू सुमनों पर, तुहिन कणों से बिखरे है स्नेहिल सपनो के रंग में, पोषित होकर संवरे है ॥ -डॉक्टर यशवीर सिंह चंदेल ''राही''

Wednesday, June 10, 2009

पिता होने की सजा

एक घटना,जिसका मेरे,हमारे परिवार,हमारे खानदान से किसी प्रकार का प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष कोई सम्बन्ध नहीं है। इसके बावजूद इस घटना ने मुझे विचलित कर दिया। बात को थोड़ा पीछे ले जाना होगा। एक मां-बाप ने एक घर में अपने बेटे -बेटियों को पाला, उनके विवाह कर उनको समाज में गृहस्थी चलाने के लिए स्वतन्त्र किया। मां-बाप एक बड़े मकान में रहते थे। ऊपर वाली मंजिल में उनका बेटा अपने परिवार के साथ। बाप रिटायर्ड सरकारी कर्मचारी,जिसको अच्छी पेंशन मिलती है। घर में बाप-बेटे,सास-बहु में थोडी बहुत खटपट होती होगी, जैसी लगभग हर घर में होती रहती है। मकान बाप का। यह सब कुछ बाप ने अपनी मेहनत से बनाया। बेटों का इसमे कोई योगदान नहीं। एक दिन देखा कि उनके घर के आगे एक वाहन में घर का सामान लदान किया जा रहा था। सोचा, बेटा अपने परिवार को लेकर जा रहा होगा। लेकिन बाद में मालूम हुआ कि बेटा नहीं बाप अपना सामान लेकर कहीं ओर चला गया। छोड़ गया वह घर जो उसने सालों की मेहनत से बनाया था। इसी घर में उसने अपने बच्चों को खेलते,प्यार करते लड़ते देखा था। त्यागना पड़ा उस घर को, जिसके ईंट गारे में, उसकी ना जाने कितनी मधुर स्मृतियाँ रची-बसी थीं। वही घर उनके लिए अब पराया हो गया था।बाप होने का यह मतलब है कि वह सब कुछ खोता ही चला जाए! एक पिता होने कि इतनी बड़ी सजा कि उसको वह दर छोड़ के जाना पड़े जहाँ उसने अपनी पत्नी के साथ अपना परिवार बनाया,घर को उम्मीदों,सपनों से सजाया संवारा। फ़िर बाप भी ऐसा जो किसी बच्चे पर बोझ नहीं। उसकी पेंशन है। वैसे भी वह अपनी पत्नी के साथ अलग ही तो रहता था। क्या विडम्बना है कि आदमी को अपने ही घर से यूँ रुसवा होना पड़ता है। क्या मां-बाप इसलिए पुत्र की कामना करते हैं?केवल यह उनके घर का मामला है,यह सोचकर हम चुप नहीं रह सकते। क्योंकि यह हमारे समाज का मामला भी तो है। ठीक है हम कुछ कर नहीं सकते ,परन्तु चिंतन मनन तो कर सकते हैं,ताकि ऐसा हमारे घर में ना हो।सम्भव है कसूर मां-बाप का भी हो। हो सकता है उन्होंने संतान को सब कुछ दिया मगर संस्कार देना भूल गए हों।

लो क सं घ र्ष !: रसधार नही जीवन में...

रसधार नही जीवन में , है निर्बल वाणी कहती। अनुरक्ति यहाँ छलना है मन आहात करती रहती॥ मृदुला में कटुता भर दी, कटुता में भर दी ज्वाला। वेदना विहंस बाहों की दे डाल गले में माला॥ है बीच भंवर में चक्रित, नैया कातर मांझी है। काल अन्त निर्मम वियोग वेदना विकल आंधी है॥ डॉक्टर यशवीर सिंह चंदेल 'राही'

Tuesday, June 9, 2009

लो क सं घ र्ष !: अब अश्रु जलधि में दुःख के....

आंसू की इस नगरी में,
दुःख हर क्षण पहरा देता।
साम्राज्य एक है मेरा ,
साँसों से कहला देता॥
मधुमय बसंत पतझड़ है,
मैं जीवन काट रहा हूँ ।
अब अश्रु जलधि में दुःख के,
मैं मोती छांट रहा हूँ॥
आंसू की जलधारा में,
युग तपन मृदुल है शेष ।
माधुरी समाहित होकर,
उज्जवल सत् और विशेष ॥
-डॉक्टर यशवीर सिंह 'राही'

व्यंग्यलोकतंत्रम् अभ्युत्थानम् - विनोद विप्लव

मतदाताओं की चिरपरिचित मूर्खता और अपरिपक्वता के कारण पिछले कई चुनावों की तरह इस चुनाव में भी लोकतांत्रिक भावना का धक्का पहुंचा है। हालांकि पिछले दो तीन चुनावों के बाद से जो नतीजे आ रहे थे उसे देखते हुये इस बार उम्मीद बनी थी कि इस बार पहले से और बेहतर नतीजे आयेंगे हमारे देश में लोकतंत्र और मजबूत होगा, लेकिन दुर्भाग्य से मतदाताओं ने वह गलती दोहरा दी जिसे लोकतंत्र प्रेमी कभी माफ नहीं करेंगे। इस चुनाव के नतीजों ने यह साबित कर दिया है कि लोग खुद नहीं चाहते कि उनका भला हो। दुनिया के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश में लोकतंत्र का ऐसा हश्र और वह भी लोक के हाथों - विश्वास नहीं होता। पिछले कुछ चुनाव के बाद कितना अच्छा लोकतांत्रिक वातावरण उत्पन्न हुआ था। यह सोचते ही मन अह्लादित हो जाता है, लेकिन इस चुनाव नतीजों ने लोकतंत्र की स्थापना के लिये किये गये सभी प्रयासों पर पानी फेर दिया। प्रधानमंत्री बनने की आस केवल लाल कृष्ण आडवाणी, मायावती या शरद पवार ही नहीं लगाये बैठे कई और लोग लगाये बैठे थे लेकिन लोगों की मूर्खता के कारण सबकी उम्मीदों पर पानी फिर गया। सोचिये अगर कांग्रेस एवं उनकी सहयोगी दलों को सरकार बनाने लायक पर्याप्त बहुमत मिलने के बजाय सभी पाटियों को केवल पांच-पांच, दस-दस सीटें ही मिलती तो देश में लोकतंत्र का कितना विकास हो सकता था। अगर ऐसा होता तो सबको फायदा होता - समाज के सबसे निचले स्तर के आदमी तक को फायदा होता। अखबार और चैनलवालों को तो मनचाही मुराद मिल जाती। आप खुद सोचिये कि तब कितना मजेदार दृश्य होता जब पांच-पांच, दस-दस सीटें जीतने वाली पचास पार्टियों के नेता रात-रात भर बैठकें करते। कई कई दिनों ही नहीं कई-कई सप्ताह तक बैठकें चलतीं। बैठकों में लत्तम-जुत्तम से लेकर को वे सब चीजें चलती जो लोकतांत्रिक मानी जाती हैं। प्रधानमंत्री को लेकर महीनों तक सस्पेंस बना रहता। चैनलों पर दिन रात ‘‘कौन बनेगा प्रधानमंत्री’’, ‘‘7 रेस कोर्स की रेस’’, ‘‘कुर्सी का विश्व युद्ध’’ जैसे शीर्शकों से कार्यक्रम पेश करके महीनों तक अपनी कमाई और लोगों का मनोरंजन करते। चैनलों की टीआरपी और अखबारों का सर्कुलेशन हिमालय की चोटी को भी मात देता। हलवाइयों से लेकर नाइयों की दुकानों तक लोग राजनीति और लोकतंत्र के विभिन्न पहलुओं पर चलने वाले राष्ट्रीय बहस में हिस्सा लेते और इस तरह देश में लोकतंत्र में जनता की भागीदारी बढ़ती। सबसे दिमाग में यही सवाल होता कौन बनेगा प्रधानमंत्री। अचानक एक दिन रात तीन बजे मेराथन बैठक के बाद मीडियाकर्मियों के भारी हुजूम के बीच घोषणा होती कि प्रधानमंत्री पद के संसद भवन के गेट से 20 फर्लांग की दूरी पर बैठने वाले चायवाले को चुना गया है क्योंकि सभी नेताओं के बीच केवल उसी के नाम पर सहमति बन पायी है। आप सोच सकते हैं कि अगर ऐसा हुआ होता तो हमारे देष का लोकतंत्र किस उंचाई पर पहुंच जाता। इस घोषणा के बाद जब तमाम चैनलों के रिपोर्टर और कैमरामैन अपने कैमरे और घुटने तुडवाते हुये वहां पहुंचते तबतक चायवाले की दुकान के आगे एक तरफ नगदी से भरे ब्रीफकेस लिये हुये सांसदों की लंबी लाइन होती तो दूसरे तरफ उद्योगपतियों की। एक दूसरी लाइन उनसे बाइट लेने वाले चैनल मालिकों और संपादकों की होती। एक - दो घंटे के भीतर जब वह चायवाल अरबपति बन चुका होता तभी अखबार या चैनल का कोई रिपोर्टर या कैमरामैन बदहवाश दौड़ता हुआ वहां पहुंचता और जब बताता कि असल में सुनने में गलती हुयी है। दरअसल प्रधानमंत्री के लिये दरअसल जिसके नाम पर सहमति हुयी है वह चायवाला नहीं बल्कि पानवाला है। इसके बाद मीडियाकर्मियों के बीच एक और मैराथन दौड़ होती और अगले घंटे के भीतर एक और व्यक्ति अरबपतियों की सूची में शुमार हो जाता। इस बीच घोषणा होती कि बैठक में पानवाले के नाम पर असमति कायम हो गयी और अब किसी और के नाम पर चर्चा हो रही है। देश में एक बार फिर संस्पेंस का माहौल कायम होता और क्या पता कि बैठक के बाद जिस नाम की घोषणा होती वह नाम इस खाकसार का होता। महीनों तक कई बैठकों का दौर चलने और तमाम उठापटक के बाद प्रधानमंत्री के रूप में किसी का चयन होता है और फिर मंत्रियों के चयन पर सिर फुटौव्वल का दौर चलता और अंत में पता चलता कि मंत्रियों के लिये भी सांसदों के नामों पर सहमति नहीं बन पायी बल्कि किसी मोची, किसी पनवाडी, किसी पंसारी, किसी जुआड़ी और किसी अनाड़ी के नाम पर सहमति बनी है। सोचिये कितने आम लोगों एवं उनके नाते-रिश्तेदारों का भला होता और तब सही अर्थों में लोकतंत्र की स्थापना होती क्योंकि लोकतंत्र वह तंत्र होता है जो जनता का, जनता के लिये और जनता के द्वारा हो। - विनोद विप्लव

इस व्यंग्य का संक्षिप्त रूप 09 जून, 2009 को दैनिक हिन्दुस्तान के ‘‘नक्कारखाना’’ काॅलम में ‘‘लोकतंत्रम् अभ्युत्थानम्’’ शीर्षक से प्रकाशित हुआ है।

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लो क सं घ र्ष !: डॉक्टर यशवीर सिंह चंदेल ''राही'' की कविता

लो क सं घ र्ष !: मेरे मानस की पीडा,, है मधुर स्वरों में गाती...

चेतनते व्याधि बनी तू नीख विवेक के तल में। लेकर अतीत का संबल, अवसाद घेर ले पल में॥ मेरे मानस की पीडा, है मधुर स्वरों में गाती। आंसू में कंचन बनकर पीड़ा से होड़ लगाती॥ मन की असीम व्याकुलता कब त्राण पा सकी जग में । विश्वाश सुमन कुचले है, हंस-हंस कर चलते मग में ॥ डॉक्टर यशवीर सिंह चंदेल ''राही''

Monday, June 8, 2009

हबीब तनवीर साहब के निधन से रंगकर्मीयों को शोक

सहारनपुर/आगरा। प्रख्यात नाटककार और रंगकर्मी हबीब तनवीर साहब के निधन पर पूरे देश के रंगकर्मियों मे दुख लहर दौड़ गयी है। हबीब तनवीर साहब ने अपनी ज़िन्दगी का बड़ा हिस्सा रंगमंच की सेवा मे गुज़ार दिया। और वो खुद ही रंगमंच का दूसरा नाम बन गये। उन्होने तमाम देशों मे जाकर हिन्दी नाटक किये और रंगमंच को व्यवसायिक बनाने की पहल भी की। इसके अलावा सड़क दुर्घटना मे काल का ग्रास बने वरिष्ठ कवि ओमप्रकाश आदित्य, नीरज पुरी और उनके साथियों की आत्मा की शान्ति के लिये प्रार्थना की गयी। श्री हबीब के अकास्मिक निधन पर सहारनपुर भारतीय जन नाट्य संघ 'इप्टा' के अध्यक्ष सरदार अनवर, महासचिव वी.के. डोभाल, कोषाध्यक्ष निमिष भटनागर, मून पैट्रीक, अम्बर सलीम, शाहिद, शिब्ली, उर्फी, इनामुलहक (एनएसड़ी), नासिर जमाल, विजयपाल सिंह, अनिल शर्मा, शमीम अख्तर, आशीष, रुमी, इम्तियाज़, इश्तियाक, सोनू, प्रणव लूथरा, पिंकी सनावर, उर्मिला सनावर, मुकेश शर्मा आदि ने शोक व्यक्त किया है। जनाब हबीब तनवीर साहब को श्रृद्धा सुमन अर्पित करने के लिये आगरा मे संजय पलैस स्थित शहीद स्मारक पर एक सभा का आयोजन किया गया। जिसमें शहर के रंगकर्मीयों के साथ-साथ कई गणमान्य नागरिकों ने भी शिरकत की। इस मौके पर श्रृद्धासुमन अर्पण करने वालों मे रंगलीला के अध्यक्ष और वरिष्ठ पत्रकार अनिल शुक्ला, इप्टा के राष्ट्रीय महासचिव जीतेन्द्र रघुवंशी, मनमोहन भारद्वाज, अनिल जैन, केशव तलेगांवकर, कमलदीप, प्रदीप, तलत उमरी, मनोज, गिरिजा शंकर शर्मा, मीतेन रघुवंशी और सोम ठाकुर आदि के नाम प्रमुख हैं। सभा का संचालन वरिष्ठ रंगकर्मी एंव पत्रकार योगेन्द्र दुबे ने किया।

लो क सं घ र्ष !: मेरा यह सागर मंथन...

सुधियों की अमराई में , है शांत तृषित अभिलाषा। कतिपय अतृप्त इच्छाएं व्याकुल पाने को भाषा॥ मेरा यह सागर मंथन, अमृत का शोध नही है। सर्वश्व समर्पण है ये आहों का बोध नही है॥ सुस्मृति आसव से चालक पड़ता ,जीवन का प्याला। कालिमा समेट ले मन में, ज्यों तय आसवृ उजाला डॉक्टर यशवीर सिंह चंदेल 'राही'

लो क सं घ र्ष !: अजमेर शरीफ के बम धमाके -1

अभिनव भारत , मालेगाव बम धमाके में शामिल इस हिंदू आतंकवादी संगठन ने ही शायद अजमेर शरीफ बम धमाके को अंजाम दिया है। राजस्थान के आतंकवाद निरोधी दस्ते का कहना है की अजमेर दरगाह में वर्ष 2007 में हुए धमाके की जांच सूत्र अभिनव भारत के सदस्यो तक पहुँचते दिख रहे है एनड़ीटीवी को दिए गए एक विशेष साक्षात्कार में राजस्थान एटीएस के प्रमुख कपिल गर्ग ने इस बात को स्वीकारा है की अभिनव भारत अब हमारे निशाने पर है पिछले दिनों राजस्थान पुलिस की एक विशेष टीम ने मुंबई जाकर मालेगाव धमाके कि मास्टरमाइंङ लेफ्टिनेंट कर्नल एस पी पुरोहित अन्य अभियुक्तों का नार्को परीक्षण और ब्रेन मैपिंग टेस्ट से जुड़े बयानों और एवं रिपोर्टो को एकत्रित किया। पुलिस सूत्रों का कहना है कि लेफ्टिनेंट कर्नल पुरोहित पर किए गए नार्को टेस्ट तथा ब्रेन मैपिंग टेस्ट ने इस बात को उजागर किया कि एक अन्य सदस्य दयानंद पाण्डेय , जो मालेगाव का आरोपी है ,उसने अजमेर धमाके की योजना बनाई थी जिसमें दो लोग मारे गए और लगभग 20 लोग अक्टूबर 2007 में घायल हुए (एनड़ीटीवी , 'अभिनव भारत अंडर स्कान्नेर फॉर 07 अजमेर ब्लास्ट' राजन महान , मंगलवार ,14 अप्रैल 2009 ,जयपुर ) डेढ़ साल से अधिक वक़्त गुजर गया जब अजमेर शरीफ के बम धमाको में 42 वर्षीय सैयद सलीम का इंतकाल हुआ था महान सूफी संत ख्वाजा मोईनुद्दीन चिस्ती की इस दरगाह पर 11 अक्टूबर 2007 को बम विस्फोट में जो दो लोग मारे गए थे उनमें वह भी शामिल था हालात बता सकते है की सैयद सलीम की मौत बहुत दर्दनाक ढंग से हुई जैसा की बताया जा चुका है इस धमाके में तमाम लोग बुरी तरह घायल भी हुए जब वह प्रार्थना करने की मुद्रा में थे सैयद सलीम की पत्नी ही उनके दो बच्चे और ही भाई बहनों का उसका लंबा -चौडा कुनबा, किसी ने भी इस बात की कल्पना नही की होगी की इतने मृदुभाषी शख्स की मौत इतनी पीड़ा दायक स्तिथि में होगी उसके दोस्तों को आज भी याद है ख्वाजा मोईनुद्दीन चिस्ती -जिन्हें गरीब नवाज भी कहा जाता है - उनके प्रति अपने अगाध सम्मान के चलते ही सलीम ने अजमेर में रहने का फ़ैसला किया था, और वहां पर सौन्दर्य प्रसाधन का बिज़नेस शुरू किया था इतनी लम्बी -चौडी कमाई नही थी की बार-बार अजमेर से हैदराबाद आना मुमकिन होता, लिहाजा साल में एक दफा वह जरूर आते गौरतलब है की सैयद सलीम के आत्मीय जानो के लिए उसकी इस असामयिक मौत से उपजे शोक के साथ-साथ एक और सदमे से गुजरना पड़ा जिसकी वजह थी पुलिस एवं जांच एज़ेंसियों का रूख जिन्हें यह लग रहा था कि सैयद सलीम ख़ुद इस हमले के पीछे थे मक्का मस्जिद बम धमाके और अजमेर के बम धमाके के बीच की समरूपता को देखते हुए राजस्थान की पुलिस टीम ने आकर इस बात की छानबीन की कहीं सैयद सलीम ख़ुद आतंकवादी तो नही था ऐसे घटनाओ को सनसनीखेज अंदाज में पेश करने वाले मीडिया के एक हिस्से ने भी यह ख़बर उछाल दी कि मृत व्यक्ति के जेब से कुछ '' संदेहस्पद वस्तु '' बरामद हुई (डीएनए,13 अक्टूबर 2007 )

अपने इस दावे- कि इस घटना को हुजी से जुड़े आतंकवादियो ने ही अंजाम दिया है - को बिल्कुल हकीकत मान रही राजस्थान पुलिस ने इस सिलसिले में छः लोगो को भी हिरासत में ले लिया था जिसमें दो बांग्लादेशी भी शामिल थे। पुलिस के मुताबिक सिम कार्ड लगाये एक मोबाइल टेलीफोन के जरिये विस्फोट को अंजाम दिया गया। तत्कालिन गृहमंत्री शिवराज पाटिल ने यह भी कहा की बम धमाके 'सरहद पार दुश्मनों के इशारे पर हुए है'।

हम अंदाजा लगा सकते है की मामले की तहकीकात कर रही राजस्थान पुलिस की टीम ने सैयद सलीम के परिवारजनों के साथ क्या व्यवहार किया होगा। माता-पिता , भाई बहिन ,पत्नी सभी को खाकी के डर से रूबरू होना पड़ा होगा । ऐसे अनुभवों को देखते हुए हम सहज ही अंदाजा लगा सकते है की समूचे परिवार को 'आतंकवादी' के परिवार के तौर पर लोगो के ताने सुनने पड़े होंगे।

अब जबकि सच्चाई से परदा हटने को है और ख़ुद पुलिस यह कह रही है की अभिनव भारत के आतंकवादियो ने अजमेर बम धमाके को अंजाम दिया है, ऐसे में यह पूछना क्या ज्यादती होगा की पुलिस को चाहिए की वह सैयद सलीम के परिवारवालों के नाम एक ख़त लिखे और जो कुछ हुआ उसके लिए माफ़ी मांगे ।

-सुभाष गाताडे

लेखक सुप्रसिद्ध पत्रकार है

लोकसंघर्ष पत्रिका के जून अंक में प्रकाशित

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