सड़क पर पडा
बादलों से झांकती
धूप का एक टुकडा
जिसे बिछा कर
बैठ गया वो
उसी सड़क के
मोड़ पर
घर पर अल सुबह
माँ के पीटे जाने के
अलार्म से जागा
बाप की शराब के
जुगाड़ को
घर से खाली पेट भागा
बहन के फटे कपड़ो से
टपकती आबरू
ढांकने को
रिसती छत पर
नयी पालीथीन
बाँधने को
बिन कपड़े बदले
बिन नहाए
पीठ पर थैला लटकाए
स्कूल जाते
तैयार
प्यारे मासूम
अपने हम उम्रो
को निहारता
बिखरे सपनो को
झोली में
समेटता
ढीली पतलून
फिर कमर से लपेटता
जेब से बीडी निकाल कर
काश ले
हवा में
उछाल कर
उडाता
अरमानों को
जलाता बचपन को
मरोड़ता
सपनो को
चल दिया
वो उठ कर
समेत कर
वह एक टुकडा
धूप का
वही बिछा है
अभी भी
देख लें जा कर कभी भी
वो सुनहरा टुकडा
अभी भी वही है
पर
उस पर बैठा बच्चा
अब नही है !!!!
Sunday, February 24, 2008
सपने बीनता बचपन
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4 comments:
hmmm...its so touchy.....mujhey bacho sey behad payar hai aur yeh kadwa sach, mein shayd hazam nahi kar pa rahi ......
keerti vaidya
sunder aur sajeev chitran kiya hai.
badhaayee....
p k kush 'tanha'
TRASAD BACHPAN KA YATHARTH AUR MARMASPARHEE CHITRAN.KAVITA HEE NAHEEN EK AAINAA BHEE TO HAI...
Aap sab ka bahut bahut shukriya
par mujhe lagtaa hai hum keval kavitao aur lekho par badhai na baante koi saarthak pahal bhi karein !!
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