Thursday, February 21, 2008
आप समझें तो ....
आप समझें तो कुछ कहें हम भी
आप कह दें तो कुछ सुनें हम भी
बैठिये तो हमारे पहलू में
कोई ताज़ा ग़ज़ल लिखें हम भी
इस समंदर में हैं छुपे मोती
साथ उतरें तो कुछ चुनें हम भी
मोड़ के उस तरफ़ उजाला है
मोड़ तक साथ तो चलें हम भी
रात की तीरगी नहीं जाती
चाँद दुश्मन है क्या करें हम भी
जी हुज़ूरों की भीड़ है हर सू
भीड़ टूटे तो फ़िर जुड़ें हम भी
हम मुसाफिर हैं और 'तनहा' भी
कोई खिड़की खुले ' रुकें हम भी '
'प्रमोद कुमार कुश 'तनहा'
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2 comments:
हम मुसाफिर हैं और 'तनहा' भी
कोई खिड़की खुले ' रुकें हम भी '
बहोत खूब !
bhut khoobsurat kavita hai....
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