Saturday, February 16, 2008
समर
मैं लड़ रहा हूँ
लगातार
वर्षो से
हज़ार
मैं ......
तुमसे नहीं
उससे नहीं
दोस्तों से
दुश्मनों से
अन्जानो से
परिजनों से
किसी से नही
मैं
लड़ रहा हूँ
झगड़ रहा हूँ
कभी झुकता
तो कभी अकड़ रहा हूँ
पर
मैं तुम लोगों से नहीं
ख़ुद से लड़ रहा हूँ
कभी अपने सुख
कभी दुःख
कभी खुशी कभी गम
कहीं हारने का डर
तो कभी अपना अहम्
कभी तुम्हारे प्रति अपने स्नेह
कभी यह नश्वर देह
कभी तुम्हे खोने के भय से
तो कभी ख़ुद पर विजय से
किसी के नहीं ख़ुद अपने सर पड़ रहा हूँ
मैं ख़ुद से ही लड़ रहा हूँ
कभी अपने ईश्वर से
कभी अन्दर के शैतान से
और शायद कभी कभार
अपने भीतर के इंसान से
अपने मिथ्या अभिमान को
मारने को
कभी निराशा हताशा उतारने को
कभी अपनी बुराइयों
कभी अच्छाइयो से
नाराज़ तो तुम पर हूँ
पर ख़ुद पर बिगड़ रहा हूँ
मैं ख़ुद से ही ...........
(कहीं न कहीं यह हम सबकी कहानी है ! )
mailmayanksaxena@gmail.com
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1 comment:
no words for this poem....sahi kha apney humari apni khani hai..
yunhi he likhtey rahey
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