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Thursday, November 27, 2008

सबसे बुरे दिन

सबसे बुरे दिन नहीं थे वे जब घर के नाम पर चौकी थी एक छह बाई चार की बमुश्किलन समा पाते थे जिसमे दो जिस्म लेकिन मन चातक सा उड़ता रहता था अबाध! बुरे नहीं वे दिन भी जब ज़रूरतों ने कर दिया था इतना मजबूर कि लटपटा जाती थी जबान बार बार और वे भी नहीं जब दोस्तों की चाय में दूध की जगह मिलानी होती थी मजबूरियां कतई बुरे नहीं थे वे दिन जब नहीं थी दरवाजे पर कोई नेमप्लेट और नेमप्लेटों वाले तमाम दरवाजे बन्द थे हमारे लिये इतने बुरे तो खैर नहीं हैं ये भी दिन तमाम समझौतों और मजबूरियों के बावजूद आ ही जाती है सात-आठ घण्टों की गहरी नींद और नींद में वही अजीब अजीब सपने सुबह अखबार पढ़कर अब भी खीजता है मन और फाइलों पर टिप्पणियाँ लिखकर ऊबी कलम अब भी हुलस कर लिखती है कविता। बुरे होंगे वे दिन अगर रहना पड़ा सुविधाओं के जंगल में निपट अकेला दोस्तों की शक्लें हो गई बिल्कुल ग्राहकों सीं नेमप्लेट के आतंक में दुबक गया मेरा नाम नींद सपनों की जगह गोलियों की हो गई गुलाम और कविता लिखी गई फाईलों की टिप्पणियांे सी। बहुत बुरे होंगे वे दिन जब रात की होगी बिल्कुल देह जैसी और उम्मीद की चेकबुक जैसी वि’वास होगा किसी बहुराष्ट्रीय कंपनी का विज्ञापन खुशी घर का कोई नया सामान और समझौते मजबूरी नहीं बन जायेंगे आदत। लेकिन सबसे बुरे होंगे वे दिन जब आने लगेगें इन दिनों के सपने!

www.asuvidha.blogspot.com ashokk34@gmail.com Mo. 9425787930

7 comments:

नीरज मुसाफ़िर said...

पांडे जी, आपने सुनहरी पुरानी यादों को कुरेदते हुए आने वाले समय की भयावह तस्वीर पेश कर दी है. बिलकुल ठीक लिखा है आपने.

RADHIKA said...
This comment has been removed by the author.
Betuke Khyal said...

too good !!!!!!!!

Anonymous said...

bahut hi badhiya rachana badhai

Ashok Kumar pandey said...

टिप्पणियों के लिए शुक्रिया..
और कविताओं के लिए मेरा ब्लॉग देखें

www.asuvidha.blogspot.com

पुरुषोत्तम कुमार said...

अशोक जी, आपकी कविता बहुत अच्छी है। आपकी अगली कविता का इंतजार रहेगा।

गोविंद गोयल, श्रीगंगानगर said...

bahut khub janab. narayan narayan

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