सबसे बुरे दिन नहीं थे वे
जब घर के नाम पर
चौकी थी एक छह बाई चार की
बमुश्किलन समा पाते थे जिसमे दो जिस्म
लेकिन मन चातक सा उड़ता रहता था अबाध!
बुरे नहीं वे दिन भी
जब ज़रूरतों ने कर दिया था इतना मजबूर
कि लटपटा जाती थी जबान बार बार
और वे भी नहीं
जब दोस्तों की चाय में
दूध की जगह मिलानी होती थी मजबूरियां
कतई बुरे नहीं थे वे दिन
जब नहीं थी दरवाजे पर कोई नेमप्लेट
और नेमप्लेटों वाले तमाम दरवाजे
बन्द थे हमारे लिये
इतने बुरे तो खैर नहीं हैं ये भी दिन
तमाम समझौतों और मजबूरियों के बावजूद
आ ही जाती है सात-आठ घण्टों की गहरी नींद
और नींद में वही अजीब अजीब सपने
सुबह अखबार पढ़कर अब भी खीजता है मन
और फाइलों पर टिप्पणियाँ लिखकर ऊबी कलम
अब भी हुलस कर लिखती है कविता।
बुरे होंगे वे दिन
अगर रहना पड़ा सुविधाओं के जंगल में निपट अकेला
दोस्तों की शक्लें हो गई बिल्कुल ग्राहकों सीं
नेमप्लेट के आतंक में दुबक गया मेरा नाम
नींद सपनों की जगह गोलियों की हो गई गुलाम
और कविता लिखी गई फाईलों की टिप्पणियांे सी।
बहुत बुरे होंगे वे दिन
जब रात की होगी बिल्कुल देह जैसी
और उम्मीद की चेकबुक जैसी
वि’वास होगा किसी बहुराष्ट्रीय कंपनी का विज्ञापन
खुशी घर का कोई नया सामान
और समझौते मजबूरी नहीं बन जायेंगे आदत।
लेकिन सबसे बुरे होंगे वे दिन
जब आने लगेगें इन दिनों के सपने!
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Mo. 9425787930
7 comments:
पांडे जी, आपने सुनहरी पुरानी यादों को कुरेदते हुए आने वाले समय की भयावह तस्वीर पेश कर दी है. बिलकुल ठीक लिखा है आपने.
too good !!!!!!!!
bahut hi badhiya rachana badhai
टिप्पणियों के लिए शुक्रिया..
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अशोक जी, आपकी कविता बहुत अच्छी है। आपकी अगली कविता का इंतजार रहेगा।
bahut khub janab. narayan narayan
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