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Thursday, September 24, 2009

लो क सं घ र्ष !: अभिलाषा के आँचल में...

अभिलाषा के आँचल में , भंडार तृप्ति का भर दो मन-मीन नीर ताल में, पंकिल हो यह वर दो रतिधरा छितिज वर मिलना , आवश्यक सा लगता है या प्रलय प्रकम्पित संसृति, स्वर सुना सुना लगता है ज्वाला का शीतल होना, है व्यर्थ आस चिंतन की शीतलता ज्वालमयी हो, कटु आशा परिवर्तन की डॉक्टर यशवीर सिंह चंदेल "राही"

2 comments:

हेमन्त कुमार said...

बहुत खूब । आभार ।

रज़िया "राज़" said...

सुंदर अभिव्यक्ति॥

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