अभिलाषा के आँचल में ,
भंडार तृप्ति का भर दो।
मन-मीन नीर क ताल में,
पंकिल न हो यह वर दो॥
रतिधरा छितिज वर मिलना ,
आवश्यक सा लगता है।
या प्रलय प्रकम्पित संसृति,
स्वर सुना सुना लगता है ।
ज्वाला का शीतल होना,
है व्यर्थ आस चिंतन की।
शीतलता ज्वालमयी हो,
कटु आशा परिवर्तन की॥
डॉक्टर यशवीर सिंह चंदेल "राही"
Thursday, September 24, 2009
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2 comments:
बहुत खूब । आभार ।
सुंदर अभिव्यक्ति॥
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