मणि यानी रत्न होता है। मणिपुर का मतलब रत्नों का नगर है। पर लगता है इन शब्दों का यह अर्थ डिक्शनरी में ही होता है। मणिपुर के वाशिंदो के लिए मणि का अर्थ बहुत अलग है। या कह सकते हैं कई शब्द! जैसे हत्या, बलात्कार, जेल, भूख और किसी भी तरह के दमन को सहने वाला, यानी मणि है, और इन्हीं मणियों से मिलकर बनता है मणिपुर। क्या ख़ूब नाज़ होगा मणिपुरियों को अपने मणि होने पर? अपने देश की सेना, अपने राज्य की पुलिस के कमांडोज की बंदूक से छूटी गोली जब उनके पेट, सीने और कनपटी में उतरती होगी, तब वे मरने में कितना सुकून महसूस करते होंगे? यह मणिपुर का ही कोई बंदा ठीक से बयाँ कर सकता है, हम शेष भारतीय तो दूर बैठे महसूस ही कर सकते हैं। आज मणिपुर में मणि कमांडोज की गोली का टारगेट है। वाह..... रत्न की क्या इज्ज़त है!
मणिपुर में राज्य और केन्द्र सरकार के खूंखार सैनिक और कमांडोज शांति का प्रयास कर रहें हैं। एक पुलिस अधिकारीे की इस बात से समझ में आता है कि वे किस तरह के प्रयास कर रहे हैं। पुलिस अधिकारी कहता है-‘या तो हम हाथ पर हाथ रखकर बैठे रहें या फिर कुछ करने का फै़सला करें। सच्चाई ये है कि पिछले दो साल में हम और भी तेज़ी से जवाबी हमले कर रहे हैं। पंजाब में देखिए समस्या कैसे दूर हुई। उनके प्रयास और सोचने के ढंग से लगता है कि भविष्य में मणिपुर मात्र बूढ़ों का राज्य रह जायेगा, क्योंकि सैनिक और कमांडोज एक-एक कर हर जवान स्त्री पुरूष को ख़त्म कर देंगे।
मणिपुर में शांति स्थापित करने के प्रयास का लम्बा इतिहास है। सन 2000 की बात है, असम राइफल के बहादुर जवानों ने दस मणियों को धूल चटा दीं, और भला वे क्यों न चटाते धूल? सरकार उन्हें तनख्वाह ही इस बात की देती है। इनमें 18 बरस का एक युवक भी था, जिसे देश की सरकार ने 1988 में राष्ट्रीय बाल वीरता पुरस्कार से सम्मानित किया था। राष्ट्रीय बाल वीरता पुरस्कार प्राप्त इस युवक को धूल चटाने पर, शायद उन्हें सरकार ने शूरवीर पुरस्कार दिया हो! लेकिन इस जघन्य हत्याकांड के खिलाफ कई मणियों के मग़ज़ की कोशिकाएं सुन्न पड़ गई। एक मानवाधिकार कार्यकत्री 28 बरस की इरोम शर्मिला भूख हड़ताल पर बैठ गयी। मारे गये लोगों के परिवारों को न्याय मिले और काला काननू (1958 का आम्र्ड फोर्सेस स्पेशल पावर एक्ट) हटाया जाये जैसी इरोम की माँगे हैं।
अब इरोम कोई महात्मा गाँधी तो हैं नहीं जिसके भूख हडताल पर बैठने से देश में हड़कम्प मच जाये। राज करने वाले भी गोरे अंग्रेज नहीं, जो गाँधी की भूख हड़ताल तुड़वाने के लिए काले कानून को रद्द करने पर विचार करें, अब देश जिन काले अंग्रेजों के हाथ में है, वे इतने बेशर्म और पत्थर हृदय हैं कि उन्हें इरोम जैसी कितनी ही महिलाओं के भूख हड़ताल पर बैठने से कोई फर्क नहीं पड़ता है। इस बात की पुष्टि इससे भी होती है कि (सन 2000 से 09) अब तक इरोम की भूख हड़ताल जारी है। उसे सरकार के लोगों द्वारा जब नाक में नली डालकर तरल भोजन दिया जा रहा है। सरकार जबरन और ज़्यादती करने में ही हुनरमंद है। सोचने की बात है कि लम्बे समय से भूखी इरोम के शरीर में कितना कुछ बदल गया होगा। उसकी हड्डियाँ भीतर ही भीतर गल रही होगीं। उसकी आँतें शायद अब रोटी पचाने लायक भी न बची हों। लेकिन सरकार अड़ी (जिद) पड़ी है कि काला कानून नहीं हटायेगी। है न, गोरों से ज़्यादा क्रूर काले अंग्रेज?
यह तथ्य बहुत कम लोग जानते होंगे और पढ़ी लिखी खाती-पीती नयी पीढ़ी तो शायद बिल्कुल ही नहीं जानती होगी! खाते-पीते वर्ग की नयी पीढ़ी डिस्कोथेक, हुक्का बार, वाइन बार, मल्टीप्लेक्स, माॅल में अपना समय इतना खर्च करती है कि इतिहास, साहित्य और संस्कृति जैसे विषयों को पढ़ने और जानने के लिए उसके पास वक्त़ का टोटा पड़ जाता है। उनके पास वक्त से भी बड़ा जो टोटा है, वह है जानने की इच्छा का, संस्कार का। बापड़ों को? ऐसा संस्कार ही न मिला कि उनका रूझान इन विषयों के प्रति हो। दूसरी तरफ़ जो अनपढ़ और गरीब पीढ़ी है, वह तो उदर पूर्ति के पाटों के बीच ही पिस कर रह जाती है। सदा ही गोरे और काले दोनों अंग्रेजों की साम्राज्यवादी नीतियाँ यही तो चाहती रही हैं।
यहाँ यह बताना ठीक ही होगा कि जब 1947 में गोरे अंग्रेजों ने भारत छोड़ दिया। मणिपुर के महाराजा ने मणिपुर को संवैधानिक राजतंत्र घोषित किया। उन्होंने अपनी संसद के लिए चुनाव भी करवाए। लेकिन शायद दिल्ली ने महाराजा पर ऐसा दबाव बनाया कि मणिपुर का भारत (1949) में विलय करने केे सिवा कोई चारा नहीं बचा था। विलय के बाद मणिपुर को सबसे निचले स्टेट का यानी सी ग्रेड राज्य का दर्जा दिया गया। फिर 1963 में केन्द्र शासित प्रदेश और फिर 1972 में राज्य का दर्जा दिया गया। लेकिन भारत सरकार का मणिपुर के साथ जो बर्ताव था, वह मणिपुर के चेतना से लबरेज़ लोगों से देखा नहीं गया। 1964 में ऐसे ही लोगों ने भारत सरकार के ख़िलाफ़ बगावत का बिगुल फँूक दिया। उन्होंने यूनाइटेड नेशनल लिबरेशन फ्रंट के नाम से भूमिगत आंदोलन की शुरूआत कर दी। फिर 70 के दशक में पी.एल.ए., प्रीपाक, के.सी.पी. और के.वाई.के.एल. जैसे दूसरे संगठन भी बने। राष्ट्रवाद को लेकर सबकी अपनी-अपनी धारणाएँ थीं, लेकिन वे लड़ रहे थे, मणिपुर की आज़ादी के लिए। इन्हीं सब आंदोलनों को कुचलने के लिए मणिपुर में (1958 का आम्र्ड फोर्सेस स्पेशल पाॅवर एक्ट) काला क़ानून लागू किया था, जो आज तक ज़ारी है।
मणिपुर में सबसे ज़्यादा विरोध का उफान 2004 में देखने को मिला। कुछ समय के लिए पूरे देश का ध्यान मणिपुर की ओर आकर्षित हुआ। 2004 में असम रायफल्स के जवानों ने अपनी वीरता का झंडा कुछ इस अंदाज़ से गाड़ा कि देश का हर जागरूक और संवेदनशील तबका थू...थू... करे बिना न रह सका। मामला यूँ था कि एक रात असम रायफल्स के जवान 32 बरस की थांग्जम मनोरमा को उसके घर से उठा ले गये। वे इसलिए नहीं उठा ले गये थे कि मनोरमा ने कहीं बम फोड़ दिया था या कुछ और गंभीर अपराध कर दिया था, बल्कि उसके साथ जबरदस्ती करने को ले गये थे और सामूहिक रूप से की भी। बलात्कार के बाद मनोरमा की हत्या कर लाश फेंक दी गयी। इस घटना ने मणिपुरी महिलाओं के मान-सम्मान की
धज्जियाँ बिखेर दीं। पूरा मणिपुर सड़क पर उतर आया। महिलाओं ने मणिपुर की राजधानी इंफाल में भारतीय सेना के कार्यालय के सामने नग्न होकर विरोध जताया और नारा दिया इंडियन आर्मी रेप अस।
इस घटना से केवल मणिपुर सरकार की ही नहीं, केन्द्र सरकार की भी देश भर में थू... थू... होने लगी। तब अगस्त 2004 में केन्द्र सरकार को इंफाल नगर पालिका क्षेत्र से (ए.एफ.एस.पी.ए.) काला कानून हटाने को बाध्य होना पड़ा। मणिपुर में सेना का हस्तक्षेप कम हुआ और सेना की जगह मणिपुर पुलिस कमांडोज (एम.पी.सी.) ने ले ली। एम.पी.सी. राज्य के इंफाल पूर्व, इंफाल पश्चिम, थाउबल और बिष्णुपर जिलों में तैनात हैं। इनकी तैनाती ऐसी ही है जैसे नागनाथ को हटाया और सांपनाथ को तैनात किया गया हो।
इस बल का गठन 1979 में त्वरित कार्यवाही बल के रूप में किया गया था। इस बल के बारे में राज्य के पूर्व महानिरीक्षक थांग्जम करूणमाया सिंह का कहना है कि एम.पी.सी. के जवानों को ख़ास आप्रेशन्स के लिए प्रशिक्षित किया गया है और उन्हें तभी गोली चलाने का निर्देश है जब उन पर गोलीबारी हो रही हो। उन्हें महिलाओं, बूढ़ों और बच्चों का ध्यान रखने को कहा जाता है। लेकिन 23 जुलाई 2009 की सुबह करीब साढे़ दस बजे ख्वैरम्बंड बाज़ार में तलाशी अभियान के दौरान जो घटना घटी, वह पूरी तरह से उक्त कथन का मखौल उड़ाती है।
2008 में इस बल ने कुल सत्ताइस बार नाम कमाया, पर ये मुठभेड़ और उत्पीड़न के मामले इसने सुनसान जगहों में निपटाये थे। पर बल के कमांडोज और नेतृत्व करने वालों को शायद लगा कि उनका नाम कम हुआ। शायद उन्हें वह कहावत याद आयी कि जंगल में मोर नाचा, किसने देखा। तब शायद उन्होंने अपने अचूक निशाने का हुनर बीच चैराहे पर दिखाने को सोचा होगा। शायद इस सोच का सफल और चर्चित परिणाम-रबीना देवी, संजीत चोंग्खम और एक गर्भवती स्त्री के शव हैं। कमांडोज की सूझबूझ और दूरदर्शिता तो देखिए, उस गर्भवती महिला के बच्चे को पेट ही में मारकर, जन्म लेकर बच्चे की पी.एल.ए. के संगठन से किसी भी रूप में जुड़ने की संभावनाओं को पूर्णतः समाप्त कर दिया। कमांडोज ने मणिपुर राज्य विधान सभा से लगभग 500 मीटर की दूरी पर यह कारनामा कर दिखाया, ताकि विधान सभा में बैठने वाले मंत्री गोलियों की आवाज़ सुन सकें और जाँबाज कमांडोज के लिए उचित पुरस्कारों के प्रस्ताव तुरंत पारित करवा सकें।
कमांडोज का यह दावा सही है कि संजीत पहले पी.एल.ए. से जुड़ा हुआ था, इस आरोप के कारण संजीत को सन् 2000 में हिरासत में लिया था और फिर छोड़ दिया था। फिर 2006 में संजीत अपनी तबीयत खराब रहने की वजह से पी.एल.ए. से अलग हो गया था। 2007 में संजीत को राष्ट्रीय सुरक्षा कानून के तहत फिर से हिरासत में लिया और 2008 में छोड़ दिया था। कमांडोज उसे बार-बार पकड़ते, बंद करते और फिर छोड़ देते थे। कोई तो वजह थी, जिसकी वजह से उसे छोड़ना पड़ता था। शायद सिद्ध नहीं होता था कि संजीत का पी.एल.ए. से सम्बन्ध हैं या कुछ और बात थी। क्या था यह तो वही जानते होंगे, लेकिन उसे बार-बार छोड़ना पड़ जाता था। वह अपने परिवार के साथ खरई कोंग्पाल सजोर लीकेई में रहते हुए एक निजी अस्पताल में अटेंडेंट की नौकरी करता था, यह बात वहाँ सब जानते थे।
‘तहलका’ पत्रिका में छपी तस्वीरों में से किसी में भी वह कमांडोज के साथ झूमाझटकी करता, भागता या गोली चलाता नजर नहीं आ रहा है। पुलिस कमांडोज उसे घेरे खड़े हैं। फिर उसे खींचते और
धकियाते एक फार्मेसी के स्टोर रूम की तरफ ले जाते नजर आ रहे हैं। थोड़ी देर बाद उसकी लाश को घसीट कर बाहर लाते हैं। उन तस्वीरों और संपूर्ण घटनाक्रम को जानने के बाद तो ऐसा ही लगता है कि कमांडोज ने मनमाने ढंग से सब्जी वाली रबीना देवी, गर्भवती स्त्री और संजीत की हत्या कर दी। वास्तविकता क्या है यह कोई ईमानदार एजेंसी की जाँच रिपोर्ट से पता चलेगा! पर इस बात से जाँबाज कमांडोज का नाम पूरे देश में हो ही गया। इससे राज्य सरकार और केन्द्र सरकार की इस समझ का भी पता चलता है कि वे अपने अधीनस्थ काम करने वाली सरकारी एजेंसियों को किस तरह से प्रशिक्षित करती हैं। सवाल यह है कि अपने हक के लिए लड़ने वालों से निपटने का यही क्या एक मात्र तरीका है?
बात मणिपुर की तो है ही, पर अकेले मणिपुर की ही नहीं है। आज देश के कई हिस्सों में अपनी अलग-अलग माँगों और अधिकारों के लिए लड़ने वाले किसान, मजदूर, आदिवासी, दलितों को सरकार गोली की भाषा से ही समझा रही है।
इस सरकार और इस व्यवस्था से कुछ विनम्र सवाल है कि क्या सरकारी आतंकवाद कभी थमेगा? कभी सरकार और उसके अधीनस्थ काम करने वाली एजेंसियों को यह समझ में आयेगा कि वे सब शोषण करने और आमजन को कुचलने के लिए नहीं, बल्कि उसके हर अधिकार को सम्मान और सुरक्षा प्रदान करने के लिए चुने और नियुक्त किये जाते हैं? क्या यह सरकार आमजन के मन में यह भरोसा पैदा कर सकती है कि वह साम्राज्यवादी ताकतों की अंगुली के इशारे पर नाचने वाली कठपुतली नहीं है? क्या देश के सभी हिस्सों से भूख, भय, बेरोज़गारी, शोषण, दमन जैसी समस्याओं को खदेड़कर देश में शांति और सद्भाव का माहौल तैयार करने का विश्वास पैदा कर सकती है?
क्या सरकार के पास ऐसा कोई रास्ता है जिससे लोगों के सवालों और समस्याओं के हल खोजे जा सकें? बात केवल राज्य और देश की सरकारों की नहीं हैं, बल्कि क्या इस पूरी साम्राज्यवादी व्यवस्था के ही पास ऐसा कोई रास्ता है? अगर नहीं, तो फिर अकेली सरकार नहीं, इस पूरी साम्राज्यवादी व्यवस्था को उखाड़ फेंकने की जरूरत है। यह काम जितना जल्दी होगा, सुकून उतना नज़दीक होगा।
-सत्यनारायण पटेल
मो0 09826091605
Saturday, September 5, 2009
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