Wednesday, September 9, 2009
लो क सं घ र्ष !: मंटो के नाम ख़त
प्यारे बड़े भाई सआदत हसन मंटो साहिब, आदाब,
आज सन् 2008 के दूसरे महीने की दस तारीख़ है और मैं आपकी याद में होने वाले सेमिनार में जिसका मौज़ू ‘मंटोः हमारा समकालीन’ रखा गया है, आपके नाम लिखा हुआ अपना ख़त पढ़ रहा हूँ, ये मौजू शायद इसलिए रखा गया है कि आज भी हमारे मुल्क और दुनिया के तक़रीबन वही हालात हैं, जो आपके ज़माने में थे और कोई बड़ी तब्दीली नहीं आयी। वही महंगाई, बेरोज़गारी, बद अम्नी-जिसकी लाठी, उसकी भैंस। ग़रीबों और कमजोरों का माली, अख़्लाक़ी, जिन्सी और सियासी शोषण। वही तबक़ाती ऊँच- नीच, फ़िरक़ापरस्ती, खू़न-ख़राबा बौर ज़बानों के झगड़े। आपने कहा था कि आप अक़ीदे की बुनियाद पर होने वाले फ़िरक़ावाराना फ़सादात में मरना पसंद नहीं करते, मगर अब ख़ुदकुश हमलों की सूरत में ये फ़सादात रोज़मर्रा का मामूल हैं जिन में आए रोज़ बेशुमार मासूम और बेगुनाह लोगों की जाने जाती हैं. हां, साइंस और टेक्नोलॉजी में ख़ासी तरक्की हुई है और बहुत-सी हैरतअंगेज़ चीजें ईजाद हो गयी हैं, वे चीज़ें जिनकी आपने इब्तिदाई शक्लें देखी थीं और जिनका ज़िक्र आपने ‘स्वराज के लिए’ और कुछ दूसरे अफ़सानों में किया था (कण्डोम और प्रोजेक्टर वगै़रह) अब ख़ासी तरक्कीयाफ्ता सूरतों में आम तौर से मिलती हैं, कश्मीर का मस्अला भी वहीं का वहीं है, जहाँ आपके ज़माने में था और चचा साम (अमेरिका) से हमारे ताल्लुक़ात भी वैसे ही हैं।
आपने एक ख़त में चचा साम के जापान पर एटमी हमले की ‘तारीफ़’ की थी और अपनी ज़रूरत की वज़ाहत करते हुए उनसे छोटे-से एक एटम बम की फ़रमाइश की थी. आपके किसी ख़ैरख्वाह ने ये ख़याल करके कि शायद चचा साम तक आपका उर्दू में लिखा हुआ ख़त न पहुँचा हो, उसका तर्जुमा करके आपकी बात उन तक पहुँचा भी दी थी और वह इंटरनेट पर इन लफ़्ज़ों में मौजूद हैः-
आपने स्वयं बहुत से सराहनीय कार्य किये हैं और अब भी कर रहे हैं। आपने हिरोशिमा का विनाश कर दिया, आपने नागासाकी को धूल एवं धुएँ (राख के ढेर) में बदल कर रख दिया और आपने जापान में हजारों बच्चे पैदा करवाए। मैं आपसे मात्र इतना चाहता हूँ कि मेरे पास कुछ ड्राईक्लीनर्स भेज दे जो इस प्रकार है। यहाँ कुछ मुल्ला क़िस्म के लोग हैं जो पेशाब करने के पश्चात् एक पत्थर उठाते हैं और खुली शलवार के अन्दर एक हाथ से उस पत्थर को पेशाब की बची बूँदों को अवशोषित करने के लिए प्रयोग करते हैं, ऐसा वे चलते हुए एवं लोगों के सामने करते हैं। मैं चाहता हूँ कि जैसे ही कोई व्यक्ति ऐसा करता दिखाई दे, वैसे ही एक एटम बम, जो आप मुझे भेजेंगे, उसके ऊपर छोड़ दूँ जिससे कि वह मुल्ला और वह पत्थर (जो वह हाथ में पकड़े हुए है) दोनों खाक में मिल जाएँ।
मगर चचा ने उसका कोई नोटिस न लिया था, बल्कि जब हम ने ख़ुद एटम बम बना लिया, तो उल्टा उसके पीछे पड़ गये कि आप अपने मुल्ला पर नहीं, हमारे भानजे (इस्राइल) पर मारेंगे, हालांकि हमारा ऐसा कोई इरादा नहीं था।
आज के इस सेमिनार का मौज़ू’ इसलिए भी मौज़ू और मुनासिब मालूम होता है कि आपने ख़ुद तो लिखा था:-
आज का अदीब बुनियादी तौर पर आज से पाँच सौ साल पहले के अदीब से कोई ज़्यादा मुख़्तलिफ़ नहीं, हर चीज़ पर नये पुराने वक़्त का लेबल लगाता है, इंसान नहीं लगाता। आज के नये मसाइल भी गुज़रे हुई कल के पुराने मसाइल से बुनियादी तौर पर मुख़्तलिफ़ नहीं, जो आज की बुराइयाँ हैं, गुज़रे हुए कल ही ने इनके बीज बोये थे। आपने ये भी कहा था कि हम क़ानूनसाज़ नहीं, मुह्तसिब (हिसाब लेने वाला) भी नहीं, हिसाब लेना और क़ानूनसाज़ी दूसरों का काम है। हम हुकूमतों पर नुक्ताचीनी करते हैं, लेकिन ख़ुद हाकिम नहीं बनते, हम इमारतों के नक़्शे बनाते हैं, लेकिन मेमार (बिल्डर) नहीं। हम मरज़ बनाते हैं, लेकिन दवाख़ानों के इन्चार्ज नहीं। हमारी तहरीरें आपको कडु़वी और कसैली लगती हैं, मगर जो मिठासें आपको पेश की जाती रहीं, उनसे इंसानियत को क्या फ़ायदा हुआ है! नीम के पत्ते कड़वे सही, मगर ख़ून ज़रूर साफ़ करते हैं।
चूँकि हम आपकी इन बातों से इत्तिफ़ाक़ करते हैं, इसलिए आपको अपना हमअस्र (समकालीन) मानते हैं।
और हाँ, एटम बम के अलावा कुछ और चीजे़ं भी हमने आपके बाद बनायीं या वह ख़ुद ईजाद हो गयीं जैसे नज़रीयः ए-ज़रुरत नया पाकिस्तान
(आधा) तालिबान, ख़ुदक़ुश हमले, आईन (संविधान) और नया दारूल-हुकूमत
(राजधानी) वगै़रह। बाक़ी ईजादों के बारे में तफ़्सील फिर सही, मगर आईन और नये दारूल-हुकूमत के बारे में अर्ज़ है कि ये वही आईन है जिसको बना कर देने की आपने चचा साम सेे दख़्वास्त की थी। आप यक़ीन करें बड़े भाई, हमने ख़ुद बना लिया, ईमान से! और इसे ख़ूब लपेट-लपाट कर हिफ़ाज़त से रखते हैं और कभी-कभार ही निकालते हैं कि ज़्यादा इस्तेमाल से मैला न हो या फट न जाए। इसके बजाय हम सदारती आर्डिंनेंसों, वज़ारती धक्कों और कांस्टीट्यूशन एवेन्यू की रैलियों से काम चलाते हैं, जहाँ तक नये दारूल हुकूमत का ताल्लुक़ है, आप हैरान होंगे कि ये सेमिनार भी वहीं हो रहा है, ये भी हमने ख़ुद बनाया है। बहुत ख़ूबसूरत और साफ़-सुथरा शहर है और इसमें बहुत-सी ख़ूबियाँ हैं। लेकिन मैं सिर्फ़ ऐसी बातों का ज़िक्र करूँगा जैसी आपको पसंद हैं, आप अनोखी और चैंका देने वाली चीजें और बातें पसंद करते हैं ना! इस शहर की सबसे बड़ी ख़ूबी ये है कि इसका नाम इस्लामाबाद है, मगर इस्लामी मुसावात (समानता) की तालीम के बरअक्स यहाँ इन्सानों की तबका़ती तक़्सीम पर सख़्ती से अमल किया जाता है, यहाँ आदमियों की पहचान सेक्टरों, ग्रेडों और मकानों की केटेगरियों से होती है, लेकिन ये ज़रूरी नहीं कि जितना बड़ा ग्रेड, उतना बड़ा इंसान बल्कि अक्सर इसके उलट है। बहरहाल इस तक़सीम का एक फ़ायदा यह है कि ग्रेड, सेक्टर और केटेगरी से आदमी की हैसियत, बल्कि औक़ात का फ़ौरन अंदाज़ा हो जाता है।
इस्लामबाद की सड़कें कुशादा और इमारतें आलीशान और ख़ूबसूरत हैं, मैंने अपने एक अफ़साने में इनका कुछ ज़िक्र किया है। एक किरदार को जुम्हूरीयत की रोड नहीं मिल रही थी, वह फ़ोन पर किसी से पूछता है:
शाहजी, मैं बड़ी देर से भटक रहा हूँ, शार-ए-जुम्हूरीयत कहाँ वाक़े हैं?
‘आजकल मरम्मत के लिए बंद है।
‘मगर है कहाँ?
‘कांस्टीट्यूशन एवेन्यू के पास’
‘और वह कहाँ है? ‘कांस्टीट्यूशन या एवेन्यू?
‘एवेन्यू यार!’ ‘पार्लियामेंट बिल्डिंग देखी है?
‘हाँ, उसी हांटेड हाउस के सामने तो हूँ जो अंडर... आॅफ़ प्रेज़ीडेंसी है’.
‘वहाँ से थोड़ा आगे चलो, तुम्हारे बाएं हाथ पर एक ख़ूबसूरत और पुरवक़ार इमारत होगी।
‘अच्छा, जहाँ कभी अज़ ख़ुद नोटिस लिये जाते थे?
हाँ, वही तो कांस्टीट्यूशन एवेन्यू है, इस पर ज़रा आगे जाकर क्रासिंग आएगा,’
‘आ गया और पहुँच गया,
यहाँ दाएँ हाथ वाली जम्हूरीयत रोड है,
‘अच्छा मगर शाहजी! ये सड़क इतनी छोटी क्यों?
‘भाई, इस मुल्क में जम्हूरीयत की जितनी उम्र है, सड़क की लम्बाई उसके मुताबिक़ रखी गयी है.
बड़े भाई साहब! पाकिस्तान सेक्रेट्रियेट की इमारतें भी क़रीब ही हैं। मैं जब भी इनको देखता हूँ, तो मुझे वज़ीराबाद का मिस्त्री कमालदीन उर्फ़ कमाला याद आ जाता है जो इनकी तामीर के दौरान में तीसरी मंज़िल पर पलस्तर करते हुए गिर गया था और उसकी दोनों टांगें टूट गयी थीं। जब कुछ अर्सा बाद वह अर्ज़ी हाथ में लेकर बैसाखियों पर चलता बमुश्किल यहाँ पहुँचा, तो उसे अंदर जाने की इजाज़त नहीं मिली थी, खैर, वह तो एक मामूली सा राजमिस्त्री था, इस शहर में ऐसी इमारतें भी हैं जिनका इफ़्तिताह (उद्घाटन) करने वाले वज़ीरों और वज़ीर आज़मों को भी अपने ओहदों से हट जाने और ऊपर वाले की नज़रों में गिर जाने के बाद अंदर दाखिल होने की इजाजत नहीं मिलती। इस शहर में अदब, आर्ट और कल्चर के बहुत से और बड़े बड़े इदारे हैं, मगर पता नहीं क्या मनहूसियत है कि यह शहर फिर भी बेरौनक़ और कल्चरल लिहाज़ से बंजर समझा जाता या मालूम होता है। मुल्क के दूसरे इलाक़ों से आने वाले और ख़ास तौर पर बच्चे यहाँ बहुत जल्द उकता जाते हैं और वालिदैन से वापस ‘पाकिस्तान’ चलने की ज़िद करने लगते हैं। इस शहर की सबसे अनोखी, मगर दिलचस्प चीज़ ज़ीरो प्वाइंट है। चूंकि यहाँ से हर वापस जाने वाला ख़ाली हाथ और ज़ीरो-ज़ीरो हो कर जाता है, इसलिए ये नाम बहुत मौज़ू मालूम होता है, शायद इसीलिए पाकिस्तान की मज़लूम तरीन और बरायेनाम ज़िन्दा खातून बेगम नुसरत भुट्टो ने कहा था: इस्लामाबाद के कूफ़े से मैं सिंध (मदीने) आयी।
मुआफ़ कीजिये, बड़े भाई साहब, मैंने छूटते ही इस्लामबाद का तआर्रुफ़ शुरू कर दिया और अपने बारे में कुछ बताया ही नहीं कि मैं कौन हूँ और क्या हूँ? आप यक़ीनन मुझे नहीं जानते। आपने ख़त पर मेरा नाम तो देख ही लिया होगा, जिस बरस यानी 1955 में आपका इंतिक़ाल हुआ, मैं हाफ़िज़ाबाद के हाईस्कूल में मैट्रिक के इम्तिहान की तैयारी कर रहा था, मेरा पुख्ता इरादा था कि इम्तिहान से फ़ारिग़ होकर लाहौर ख़ाला के यहां जाऊँगा और आपसे मिलने या कम अज़ कम आपको देखने की कोई राह निकालूँगा, मगर अफ़सोस मेरे इम्तिहानात शुरू होने से पहले आपका इंतिक़ाल हो गया। जिसका मुझे बेहद सदमा हुआ, लेकिन मैं आपको हमेशा जिंद़ा रहने वाली तहरीरों की वजह से जिंदा ही समझता हूँ, इसीलिए ये ख़त लिख रहा हूँ।
मैं उन दिनों स्कूल की लाइब्रेरी से किताबें ले कर पढ़ता था जहाँ अख़बार की कहानियों के अलावा मियाँ एम0 असलम, मौलाना रशीद अख़्तर नदवी, रईस अहमद जाफ़री और नसीम हिजाजी के नावेल मौजूद थे। कृश्नचंदर और हिजाब इम्तियाज़ अली के अफ़साने और मिर्ज़ा अदीब के सेहरानवर्द के ख़ुतूत भी मिल जाते थे। मैं ये किताबें पढ़ कर सोता, तो मुझे बड़े अच्छे-अच्छे और मीठे-मीठे ख़्वाब दिखायी देते, लेकिन फिर एक रिसाले में आपका एक अफ़साना पढ़ा, शायद उसका उन्वान ‘दस नंबरी था’. उसमें एक भिखारिन औरत की झोली मंे कोई सख़ावत का पुतला मर्द बच्चे का तुहफ़ा डाल देता है। इसके बाद वे लोग निढ़ाल होकर और सर्दी से ठिठुर कर मर जाते हैं। उन दोनों को साथ-साथ कब़्रे खोद कर दफ़ना दिया जाता है। बड़ी कब्र के साथ एक छोटी सी कब्र देखने वालों को दस का अंक मालूम होता हैं, वह कहानी पढ़कर मेरा दिल भर आया और मीठे सुहाने ख़्वाब देखने के बजाय वह रात मैंने जागकर आँखों में गुज़ारी, लेकिन पता नहीं उस कहानी में क्या जादू था कि मैं आपकी कहानियाँ तलाश करके पढ़ने और जागने लगा। मगर आपकी कोई किताब कहीं नज़र नहीं आती थी, बल्कि म्युनिसिपल लाइब्रेरी में भी आपकी कोई किताब मौजूद नहीं थी, मेरा ख़याल है अब भी नहीं होगी, क्योंकि टीचर्स और वालिदैन का ख़याल था कि आपकी किताबों से अख़्लाक़ पर बुरा असर पड़ता है। ये बात बहुत हद तक सही साबित हुई। उन सब लड़कों के चाल चलन ठीक रहे जो आपकी किताबें नहीं पढ़ते थे, वे नेक, शरीफ़ और लायक़ लड़के बड़े-बड़े ओहदों पर पहुँचे, उनमें से कुछ डिप्टी कमिश्नर और कर्नल, जरनैल बने। सिर्फ़ मेरे अख़्लाक़ पर असर पड़ा, क्योंकि अपने स्कूल की तारीख़ में सिर्फ़ मैं ही आपके नक़्शे-कद़म पर चला। मैं आपकी किताबें लाइब्रेरी से किराये पर ले कर चोरी छिपे पढ़ता था आपने मुझे सोचने महसूस करने और लिखने की अज़ीब लत लगा दी थी।
आपकी कहानियाँ पढ़ने से पहले मेरी कहानियाँ बच्चों के रिसालों में शाए होती थीं, मुर्गों, बकरियों और शरीर बच्चों के बारे में। लेकिन दसवीं के इम्तिहान से फ़ारिग़ होते ही मैंने बालिग़ों के लिए कहानियाँ लिखना शुरू कर दीं। घर वालों का ख़याल था कि मेरे वक्त से पहले बालिग़ होने में आपकी कहानियों का हाथ था। चुनंाचे मेरा पहला अफ़साना उसी बरस (अक्टूबर 1955) शाए’ हुआ। जिससे मुझे ये खु़शफ़हमी भी हुई कि शायद क़ुदरत ने मुझे आपका मिशन जारी रखने के लिए मुन्तख़ब किया हो।
भाईजान! आप यक़ीन करें, मेरा इरादा था कि आपकी तरह हक़ीक़तनिगारी का उस्लूब (ंशैली) इख़्तियार करूँगा, सचाई का साथ दूँगा और सच लिखूँगा, लेकिन फिर मैंने उर्दू ज़बान के बहुत बड़े हामी, उस्ताद, नक़्क़ाद, और दानिश्वर डाॅ. सय्यद अब्दुल्लाह की हक़ीक़तनिगारी, इस्मत चूग़ताई और आपके बारे मेें राय पढ़ी। उन्होंने लिखा थाः हक़ीक़तनिगारी यूँ भी अपने ज़ाहिरी लफ़्ज़ी मफ़हूम (अर्थ) के बरअक्स एक मर्हले पर पहुँच कर दरअस्ल भद्दी, ग़लीज़, नापाक और तल्ख़ सचाइयों और वाक़िओं जैसी हो जाती है, ख़ुद मुसव्विरी मंे इसका नतीजा महज़ चीज़ों और हालतों की तस्वीरकशी है। मंटो और इस्मत दोनों इस अंदाज़ की नुमाइंदगी करते हैं। हक़ीक़तनिगारी एक ख़ास हद तक बरहक़, मगर ज़िंदगी में सब कुछ कहने के बजाय बहुत कुछ छुपाना भी पड़ता है। इसलिए हक़ीक़तनिगारी कुल मिलाकर बेमुराद, अधूरी और नाकाम
धारा है। मंटो और इस्मत दोनों के यहाँ तो यह एक इन्तिक़ामी-सी चीज़ मालूम होती है। इस वजह से इन्हें फ़न के दरबार में बड़ा मक़ाम तो मिलता है, मगर फ़न के लिए, ज़बान और क़लम की जिस नेकी की ज़रूरत है, अफ़सोस है कि वे इससे महरूम हैं।
(डाॅ0 सय्यद अब्दुल्लाहःउर्दू अदब-1857 ता 1966)
इतने बड़े उस्ताद, नक्काद और आलिम इस्मत चुग़ताई की हक़ीक़तनिगारी और आपके बारे में ये बातें सुनकर मेरे तो छक्के छूट गये, मुझे सरकारी नौकरी करना और जिंदगी में आगे बढ़ना था। मैंने आपकी राह छोड़ दी। मानता हूँ कि मैं आपका मिशन जारी न रख सका। मैं समझ-बूझ, दुराव और बुज़दिली का शिकार हो गया, यूँ भी अब लोगों ने अफ़सानों के बजाय तफ़रीह की नई-नई चीजें़ तलाश कर ली थीं और अफ़सानों में दिलचस्पी लेना छोड़ दी थीं। लेकिन मैं अपने निश्चय से बिल्कुल ही नहीं फिर गया, मुझे बचा बचा कर और प्रतीकों रूपकों में लपेट कर चाहे किसी की समझ में आये या न आए, बात कहने का हुनर आ गया था।
हमारी मुश्किल यह थी कि आप के दौर में हाकिम लोग सीधे-सादे थे। अफ़साने पर जो इल्ज़ाम लगाया जाता था, उसी के तहत मुक़द्दमा चलता और तहरीर से वही मानी लिये जाते थे जो उसमें होते थे। यही वजह थी कि आप जुर्माना दे कर या छोटी मोटी सज़ा भुगत कर छूट जाते थे। मगर अब ऐसा नहीं हैं। हबीब जालिब ‘ऐसे दस्तूर को मैं नहीं मानता!’’ या उस्ताद दामन ‘पाकिस्तान विच मौजा ही मौजां, चारे पासे फ़ौजां ई फ़ौजां’’ लिखते हैं, तो उनके क़ब्जे़ से शराब या बम बरामद हो जाता है, मगर आपने बेधड़क अपनी किताब का नाम ‘नमरूद की ख़ुदाई रख लिया था, हालांकि आपने नमरूद की खुदाई, देखी तक न थी। लेकिन हम नहीं रख सकते। हमने देखी ही नहीं भुगती भी है।
बड़े भाई! आपने एक जगह लिखा था: मुझे ऐसी जगहों से जिनको आश्रम, विद्यालय या जमाअतखाना, तकिया या दर्सगाह (मदरसा) कहा जाए, हमेशा से नफ़रत है, वह जगह जहँा फ़ितरत के खिलाफ उसूल बनाकर इन्सानों को एक लकीर पर चलाया जाये, मेरी नज़रों में कोई वक़्अत नहीं रखती। ऐसे आश्रमों, मदरसों, विद्यालयों और मूलियों के खेत में क्या फर्क़ है?
लेकिन हम ऐसे इदारों को मूलियों के खेत नहीं कह सकते, हालांकि अब मूलियों और शलजमों के खेतों की भरमार है। खुद मेरे अपने घर में मूलियों की क्यारियाँ हैं और मुल्क के कुछ इलाक़ों में तो मूलियों के इस कदर ज़्यादा खेत हैं कि उन्हें मूलीस्तान कहना चाहिए लेकिन हम नहीं कह सकते, वर्ना वे हमारा मूली कुण्डा कर देंगे।
बड़े भाई साहब! ये ठीक है कि हम आपकी दिखाई हुई सच्चाई और हक़ीक़तनिगारी की राह पर पूरी तरह न चल सके, मगर हमने आपसे बहुत कुछ सीखा। हमने आपसे सीखा कि नेक, शरीफ़, मोअज्ज़िज़ और बड़े लोगों की बात न करो, वे ख़ुद अपनी बात कर लेंगे, बल्कि मनवा लेंगे। तुम गिरे पड़े और छोटे लोगों की बात करो, उमरावजान ‘अदा’ अपनी बात किसी नवाबज़ादे या किसी मिर्ज़ा हादी रूस्वा के ज़रीए सब तक पहुुँचा लेगी, मगर ‘हत्तक’ की
सौगंधी और ‘काली शलवार’ की सुल्ताना की बात अगर तुमने न सुनी तो कोई नहीं सुनेगा।
आपने हमें सिखाया कि काम करने वाली कामी को कुम्मी-कमीन न कहो। इसी मेहनतकश के दम से सारी रौनक़ और चहल-पहल है। हक़ीर, फ़क़ीर और बुरे नज़र आने वाले लोगों से नफरत न करो, वे बीमार या मजबूर हैं, जोर आवरों के सताए हुए हैं। समाज के रौंदे, दुतकारे और कुचले हुए लोग हैं वे तबका़ती तक़सीम और नाइंसाफियों के शिकार हैं। दूसरों के बारे में तो कुछ कह नहीं सकता, लेकिन मैंने और असद मुहम्मद खां (कहानीकार और टी0वी0 स्क्रिप्ट राइटर) ने आप की ये बात जरूर पल्ले बाँध ली थी और अब तक इस पर क़ायम हैं।
और बड़े भाई, आपको तो यह भी मालूम न होगा कि उन्होंने हीरोशिमा और नागासाकी के बाद अफ़गानिस्तान और इराक़ का क्या हाल किया और अब ईरान और पाकिस्तान के पीछे पड़े हैं। (और भारत व सऊदी अरब जैसे मुल्क अमेरिका के कदमों में पड़े हैं-हसन) लेकिन अल्लाह ख़ैर करेगा। अब हम इतने कमजोर भी नहीं (हाँ, मगर अमेरिका की दादागीरी और तालिबानियों के गै़र जुम्हूरी, बर्बर हमलों व क़ब्ज़ों के आगे हम बेबस हैं-हसन) बस, हमारी डेमोक्रेसी बहाल होने की देर है।
बाक़ी बातें मैं अगले ख़त में लिखूँगा, क्योंकि ये ख़त तवील हो रहा है। दूसरा यह मुझे दो सरकारी इदारों के जे़रे इंतिज़ाम होने वाले प्रोग्राम में पढ़ना है। अगर वे नाराज़ हो गये तो आइन्दा मुझे अपने प्रोग्रामों में नही बुलायेंगे। आप इस बात पर ख़फ़ा न हों, सच्चाई और हक़ीक़तपसंदी अपनी जगह, मगर हमारी भी कुछ मजबूरियाँ हैं, अब इजाज़त।
आपका छोटा भाई
मंशा याद
-मुहम्मद मंशा याद
लोकसंघर्ष पत्रिका के सितम्बर अंक में प्रकाशित
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