द्वयता से क्षिति का रज कण ,
अभिशप्त ग्रहण दिनकर सा।
कोरे षृष्टों पर कालिख ,
ज्यों अंकित कलंक हिमकर सा॥
सम्पूर्ण शून्य को विषमय,
करता है अहम् मनुज का।
दर्शन सतरंगी कुण्ठित,
निष्पादन भाव दनुज का ॥
सरिता आँचल में झरने,
अम्बुधि संगम लघु आशा।
जीवन, जीवन- घन संचित,
चिर मौन हो गई भाषा॥
-डॉक्टर यशवीर सिंह चंदेल 'राही'
Monday, September 28, 2009
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2 comments:
भाषा का मौन होना
भी एक अभिव्यक्ति है ।
आभार ।
hi thanks for visited beautiful photo..
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