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क़ैद
कई दिन बाद कमरे में आना हुआ सब सहजा,
जैसे कुछ बदला ही ना
वही कुर्सी व छनी धूप के कण
मंद हवा से उड़ते फैले सूखे पत्ते
धूल चढी हंसती तस्वीरो का रंग सब धुंधला था,
कुछ शेष था, गूंजती कानो में पुरानी बाते
क़ैद जो मेरी स्मृति में ना कीसी कमरे में....
कीर्ती वैद्य
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