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Thursday, April 30, 2009

उर्दू साहित्यकार और विद्वान डा. कमर रईस का निधन

दिल्‍ली। उर्दू के जाने माने साहित्‍यकार और विद्वान डा. कमर रईस का कल रात दिल्‍ली के बत्रा हास्पिटल में निधन हो गया। 77 वर्षीय रईस पिछले कई दिनों से पीलिया का इलाज करा रहे थे। उनके परिवार में पत्‍नी और एक पुत्री हैं। कमर रईस भारत सरकार के संस्‍कृति विभाग में काम करते हुए कई वर्षों तक ताशकंद में रहे। वहीं उन्‍होंने मुगल बादशाह जहीरूदीन बाबर के जीवन पर अपनी मशहूर किताब लिखी जिसमें बाबर के जीवन के अछूते पक्षों पर खोजपरक दृष्टि से अनेक महत्‍वपूर्ण जानकारियां दी गई हैं। कमर रईस ने अपने ताशकंद प्रवास के दौर में ही एक और अत्‍यंत महत्‍वपूर्ण किताब का संपादन किया 'अक्‍टूबर रिवोल्‍यूशन – इंपेक्‍ट आन इंडियन लिट्ररेचर’। इस किताब की भूमिका पूर्व प्रधानमंत्री डा। इंद्र कुमार गुजराल ने लिखी थी। कमर रईस ने सज्‍जाद जहीर और रतननाथ सरशार की जीवनियां लिखीं। उर्दू साहित्‍य में मुंशी प्रेमचंद का महत्‍व स्‍थापित करने में उनकी बड़ी भूमिका रही। प्रेमचंद पर उर्दू में उनकी प्रसिद्ध किताब है ‘प्रेमचंद का फन’। वे करीब पच्‍चीस बरस तक प्रगतिशील लेखक संघ के उर्दू संगठन अंजुमन तरक्‍कीपसंद मुसन्‍नफीन के सेक्रेट्री रहे। फिलवक्‍त वे दिल्‍ली उर्दू एकेडमी के वाइस चेयरमैन थे।

Monday, April 27, 2009

शायद मिले फिर वे

काली उलझी सड़क पे
पक्के सुलझे संवाद थे
धूप - उषण में जले
प्यासे पिघले ख्वाब थे
हवाओ के तूफ़ान में
मन के भीगे भावः थे
शायद मिले फिर वे
सागर सीने में तूफ़ान थे......
कीर्ती वैद्या..... 25th april 2009

जरनैल सिंह को ढेर सारे थैंक्स

सॉरी, जरनैल सिंह जी। जिस दिन आपने गृह मंत्री पर जूता फेंका था उस दिन मैंने आपको बहुत बुरा भला कहा था। मैं नादान था गलती हो गई। तब तो नारदमुनि यही समझता था कि आजकल कौन पत्रकारों का अनुसरण करता है। उनके किए और लिखे पर कौन ध्यान देता है? अब समझ आ रहा है कि नारदमुनि तू कितना ग़लत था। उस दिन तो जरनैल सिंह ने जूता फेंक कर देश में एक नई क्रांति की शुरुआत की थी। हम इराकी नहीं हैं जो एक बार में बस कर जायें,हम तो वो हैं जो एक बार कोई बात पकड़ लें तो उसका पीछा नहीं छोड़ते। हाँ, बात ही हमारा पीछा छोड़ दे तो अलग बात है। तो जरनैल सिंह जी आपने जो कुछ पत्रकार के नाते लिखा होगा उसका असर कभी हुआ या नहीं आपको पता होगा, लेकिन आप इस बात की खुशी तो मना ही सकतें हैं कि आपके किए का असर हुआ और लोग भी अब आपके पद चिन्हों पर चल रहें हैं। किसी के लिए इस से ज्यादा खुशी और क्या हो सकती है कि देश वासी उसका अनुसरण कर रहें हैं। जरनैल सिंह जी,नारदमुनि दर दर भटकने वाला अज्ञानी है। आपको कोई सलाह , सुझाव,राय देना सूरज को दीपक दिखाना है। फ़िर भी कुछ कहने की गुस्ताखी कर रहा हूँ। जरनैल सिंह जी आप के पास समय हो तो जूता फेंकने के सम्बन्ध में कुछ टिप्स लोगों को देन। आपने देखा कि आपके जूते ने जितना असर दिखाया था उतना किसी के जूते ने नहीं। इसलिए आप सबको बताओ कि जूता किस एंगल से फेंका जाए। जूता फेंकने वाला नेता से कितनी दूरी पर हो। जूते का वजन लगभग [ मोटे रूप में ] कितना हो। कौनसा समय उत्तम होता है जूता फेंकने के लिए। जूता कोई खास कंपनी का हो या कोई भी कंपनी चलेगी। आप कोई रिकमंड करो तो...... । जूता फेंकने के लिए पहले क्या तैयारी करनी जरुरी है। जूता फेंकने वाले को क्या क्या सावधानी रखनी चाहिए। जूता नया हो या पुराना,या फ़िर नेता की शक्ल सूरत के हिसाब से नया पुराना तय करें।हो सके तो कोई किताब ही लिख डालो। क्योंकि आपके मार्ग दर्शन के बिना जूता क्रांति दम तोड़ सकती है। हम नहीं चाहते कि पत्रकार द्वारा शुरू की गई क्रांति बे असर रहे। जरनैल सिंह जी थोड़ा लिखा ज्यादा समझना। उम्मीद है आप करोड़ों देशवासियों की उम्मीद नहीं टूटने देंगें। कीमती समय में से थोड़ा सा समय निकाल कर मार्गदर्शन जरुर करेंगें।

Sunday, April 26, 2009

आलू के बहाने दिल की बात

पड़ोसन अपनी पड़ोसन से चार पांचआलू ले गई। कई दिनों बाद वह उन आलुओं को वापिस करने आई। मगर जिसने आलू दिए थे उसने आलू लेने से इंकार कर दिया। उसके अनुसार आलू वापिस करना उनके अपमान के समान है। बात तो इतनी सी है। लेकिन है सोचने वाली। क्योंकि उन बातों को अधिक समय नहीं हुआ जब पड़ोसियों में इस प्रकार का लेनदेन एक सामान्य बात हुआ करती थी। यह सब बड़े ही सहज रूप में होता था। इस आपसी लेनदेन में प्यार, अपनापन,संबंधों की मिठास छिपी होती थी। किसी के घर की दाल मोहल्ले में ख़ास थी तो किसी के घर बना सरसों का साग। फ़िर वह थोड़ा थोड़ा सबको चखने के लिए मिलता था। शाम को एक तंदूर पर मोहल्ले भर की महिलाएं रोटियां बनाया करती थीं। दोपहर और शाम को किसी ने किसी के घर के चबूतरे पर महिलाओं का जमघट लग जाता था। पास की कहीं हो रहा होता बच्चों का शोर शराबा। पड़ोस में शादी का जश्न तो कई दिन चलता। मोहल्ले की लड़कियां देर रात तक शादी वाले घर में गीत संगीत में डूबी रहतीं। घर आए मेहमानों के लिए,बारातियों के लिए घर घर से चारपाई,बिस्तर इकठ्ठे किए जाते। किसी के घर दामाद पहली बार आता तो पड़ोस की कई लड़कियां आ जाती उस से मजाक करने। कोई नहीं जाती तो उसकी मां, दादी, चाची ताई लड़की से पूछती, अरे उनके जंवाई आया है तू गई नी। जा, तेरी मासी[ पड़ोसन] क्या सोचेगी। तब आंटी कहने का रिवाज नहीं था। तब हम रिश्ते बनाने में विश्वास करते थे। कोई भाभी थी तो कोई मामी हो जाती। इसी प्रकार कोई मौसी,कोई दादी, कोई चाची, नानी आदि आदि। पड़ोस में नई नवेली दुल्हन आती तो गई की सब लड़कियां सारा दिन उसको भाभी भाभी कहती हुई नहीं थकती थीं। गली का कोई बड़ा गली के किसी भी बच्चे को डांट दिया करता था। बच्चे की हिम्मत नहीं थी कि इस बात की कहीं शिकायत करता। आज के लोगों को यह सब कुछ आश्चर्य लगेगा। ऐसा नहीं है, यह उसी प्रकार सच है जैसे सूरज और चाँद। आज सबकुछ बदल गया है। केवल दिखावा बाकी है। हम सब भौतिक युग में जी रहें हैं। लगातार बढ़ रही सुविधाओं ने हमारे अन्दर अहंकार पैदा कर दिया है। उस अहंकार ने सब रिश्ते, नातों, संबंधों को भुला दिया , छोटा कर दिया। तभी तो पड़ोसन अपनी पड़ोसन को आलू

Thursday, April 23, 2009

जंगल में हो रहें हैं चुनाव

सियार ने खरगोश को दुलारा शेर ने हिरण को पुचकारा भेड़िये देख रहें हैं राजा बनने के ख्वाब, हे दोस्त, जंगल में कैसे आया इतना बड़ा बदलाव। लोमड़ी मेमने को गले लगाती है बिल्ली चूहे के साथ नजर आती है सूअर बकरी के साथ घास खा रहा है जनाब, हे दोस्त ,जंगल में कैसे आया इतना बड़ा बदलाव। सुनो भाई,इन जानवरों में अब भी वैसा ही मरोड़ है जो दिख रहा है वह तो कुर्सी के लिए गठजोड़ है, नकली है इनका भाई चारा बस क्षणिक है ये बदलाव सच तो ये है दोस्त जंगल में हो रहें हैं चुनाव।

Wednesday, April 22, 2009

वतन में बेवतन क्यूं है?

ज़ुबान-ए-हिन्द है उर्दू तो माथे की शिकन क्यूं है, वतन में बेवतन क्यूं है? मेरी मज़लूम उर्दू तेरी सांसों में घुटन क्यूं है, तेरा लहजा महकता है तो लफ़्ज़ों में थकन क्यूं है, अगर तू फूल है तो फूल में इतनी चुभन क्यूं है, वतन में बेवतन क्यूं है? ये नानक की ये खुसरो की दया शंकर की बोली है, ये दीवाली, ये बैसाखी, ये ईद-उल-फ़ित्‍र, होली है, मगर ये दिल की धड़कन आजकल दिल की जलन क्यूं है, वतन में बेवतन क्यूं है? ये नाज़ों से पली थी मीर के ग़ालिब के आंगन में, जो सूरज बन के चमकी थी कभी महलों के दामन में, वो शहज़ादी ज़ुबानों की यहां बे-अन्जुमन क्यूं है, वतन में बेवतन क्यूं है? मुहब्बत का सभी ऐलान कर जाते हैं महफ़िल में, कि इस के वास्ते जज़्बा है हमदर्दी का हर दिल में, मगर हक़ मांगने के वक़्त ये बेगानापन क्यूं है, वतन में बेवतन क्यूं है? ये दोज़ीशा जो बाज़ारों से इठलाती गुज़रती थी, लबों की नाज़ुकी जिस की गुलाबों सी बिखरती थी, जो तहज़ीबों के सर की ओढ़नी थी अब कफ़न क्यूं है, वतन में बेवतन क्यूं है? मुहब्बत का अगर दावा है तो इसको बचाओ तुम, जो वादा कल किया था आज वो वादा निभाओ तुम, अगर तुम राम हो तो फिर ये रावण का चलन क्यूं है, वतन में बेवतन क्यूं है?
(गौरव शर्मा द्वारा संग्रहित)

Monday, April 13, 2009

आम आदमी कहाँ गया

देश में चुनाव की गहमा गहमी में आम आदमी गुम हो गया है। गाँव से लेकर देश की राजधानी तक इस बेचारे की कोई चर्चा ख़बर नही है। कोई पत्रिका,अखबार,न्यूज़ चैनल देख लो किसी में आम आदमी आपको नहीं मिलेगा। जब वह कहीं नहीं है तो इसका मतलब वह खो गया है। "गुम हो गया", "खो गया", ग़लत है, असल में तो उसको गुम कर दिया गया है। जब राजनीति कारोबार बन जाए,मुद्दे बेअदब चलती जुबान के नीचे दब कर दम तोड़ने लगे,जन हित की बजाये हर हाल में सत्ता को पाना ही लक्ष्य हो तो फ़िर आम आदमी की याद किसको और क्यों आने लगी। बड़े बड़े नेता हर रोज़ पता नहीं कहाँ कहाँ जाते हैं। उनके पीछे पीछे होता है मीडिया। लेकिन इनमे से कोई अगर बाजार जाए [ मॉल नहीं] तो इनको महंगाई से लड़ता फटे हाल में आम आदमी मिल जाता। किंतु किसको समय है आम आदमी के लिए! चीनी ३० रूपये के आस पास आने को है। गुड़ चीनी से आगे निकल गया है। दाल क्यों पीछे रहने लगी, उसने भी अपने आप को ऊपर और ऊपर ले जाना आरम्भ कर दिया। आम आदमी महंगाई से लड़ कर दम तोड़ रहा है, नेता आपस में लड़ रहें हैं। यह हैरानी की बात नहीं कि देश में जिस आम आदमी की संख्या सब से ज्यादा है वही चुनाव से गायब है। उसकी चिंता किसी को नहीं। कोई नेता एक बार बाजार जाकर रोजमर्रा की जरूरत वाले सामान के भाव तो पूछे! पूछ भी लेगा तो उसकी सेहत पर क्या असर पड़ेगा? उसकी जेब से कुछ जाना नहीं है। उसके पास तो आना ही है। उस से तो कोई ये भी नहीं पूछता कि भाई तुम ऐसा क्या काम करते हो जिस से तुम्हारी सम्पति हर पाँच साल में दोगुनी,तीन गुनी हो जाती है। क्या कोई ऐसा दल भी है जो आम आदमी को महंगाई के दल दल से निकल कर उसको थोडी बहुत राहत प्रदान कर सके। उम्मीद तो नहीं है, जिस देश में सरकार आई ऐ एस, आई पी एस के बच्चों को मुफ्त शिक्षा देने का ऐलान करती हो वहां आम आदमी की क्या हैसियत है यह अनुमान लगाना कोई मुश्किल काम नहीं है। हैसियत है ही नहीं। कोई हैसियत होती तो उसको खोजने के लिए अब तक तो पता नही क्या क्या हो चुका होता। आम आदमी गुम ही रहे तो ठीक है उनकी बला से।

Friday, April 10, 2009

देविका रानी ....

1933 में प्रदर्शित फिल्म कर्मा इतनी अधिक लोकप्रिय हुई कि उस फिल्म की नायिका देविका रानी को लोग फिल्म स्टार के नाम से संबोधित करने लगे और वे भारत की प्रथम महिला फिल्म स्टार बनीं|देविका रानी को बाद में चलकर पहला बेस्ट अभिनेत्री का फ़िल्म फेएर अवार्ड मिला ।

Tuesday, April 7, 2009

खुशी .....

कुछ नया करो , जिसमे खुशी मिले । काम बहुत छोटा ही क्यों न हो । इश्वर है न , वह निर्णय लेगा । तो फ़िर लोगो की बातों पर क्यों जाते हो ?वो तुम्हे खुशी नही दे सकते ।

पत्रकारिता हुई शर्म शर्मसार

दैनिक जागरण के जरनैल सिंह नामक पत्रकार को आज सारी दुनिया जान गई। उनका समाज उनको मान गया होगा। इन सबके बीच पत्रकारिता पर ऐसा दाग लग गया जो कभी नही मिट सकता। पत्रकारिता कोई आसान और गैरजिम्मेदारी वाला पेशा नहीं है। ये तो वो काम है जिसके दम पर इतिहास बने और बनाये गये हैं। देश में यही वो स्तम्भ है जिस पर आम जनता आज भी विश्वास करती है। जिसकी कहीं सुनवाई नहीं होती वह मीडिया के पास आता है। वह इसलिए कि उसको विश्वास है कि मीडिया निष्पक्ष,संयमी और गरिमा युक्त होता है। मगर जरनैल सिंह ने इन सब बातों को झूठा साबित करने की शुरुआत कर दी। वह पत्रकारिता से ख़ुद विश्वास खो बैठा। पत्रकार की बजाए एक ऐसा आदमी बन गया जिसके अन्दर किसी बदले की आग लगी हुई थी। इस घटना से वह पत्रकारिता तो शर्मसार हो गई जिसके कारण जरनैल सिंह को पी चिदंबरम के पत्रकार सम्मलेन में जाने का मौका मिला। हाँ, जरनैल सिंह अपने समाज का नया लीडर जरुर बन गया। पत्रकार के रूप में जो वह नहीं पा सका होगा सम्भव है वह अब लीडर बन कर पा ले। हो सकता है कोई पार्टी उसको विधानसभा या लोकसभा के चुनाव में टिकट दे दे। ऐसे लोग पत्रकारिता के काबिल भी नहीं हो सकते जो इस प्रकार का आचरण करते हों। इस प्रकार का आचरण तो नेता करते हैं। शायद अब यही जरनैल सिंह किया करेंगें। जरनैल सिंह ने पत्रकारिता के साथ साथ "जागरण" ग्रुप की भी साख पर बट्टा लगाया है जिसका वह प्रेस कांफ्रेंस में प्रतिनिधित्व कर रहे थे। जरनैल सिंह को "हीरो" बनने पर बधाई और उनके आचरण पर शेम शेम।

Monday, April 6, 2009

आईना....

आईना देखोसच्चाई दिखेगीझूठे ख्वाब टूट जायेगेहकीकत सामने जायेगीजिंदगी का मकसद मालूम हो जाएगासारी हसरतें पुरी हो जायेगी

Sunday, April 5, 2009

पत्थर की गुडिया ....

पत्थर पर लेटी हुई गुडिया , जिंदगी की कहानी बयान करती है । हम कोमल समझते है । वो पत्थर को भी मात दे देती है । हम उसे फूलों की सेज समझ बैठते है । वो हमें दिन में ही तारें दिखला देती है ।

Saturday, April 4, 2009

आज के राजनितिक परिप्रेक्ष्य में -

ज़मीर बेचकर जिन्दा रहूँ, ये नामुमकिन मैं अपने आप से दंगा करूँ, ये नामुमकिन, ज़माना तुझको मसीहा कहे, ये मुमकिन हैं मगर मैं तुझको मसीहा कहूँ, ये नामुमकिन। - शायर श्री हारून रशीद 'गाफ़िल'

Friday, April 3, 2009

हिन्दी रंगमंच दिवस पर संगोष्ठी का आयोजन

आगरा शहर की जानी-मानी सांस्कृतिक संस्था "रंगलीला" ने हिन्दी रंगमंच दिवस के अवसर पर एक संगोष्ठी और नाट्य प्रस्तुति का आयोजन किया। संगोष्ठी का विषय था "भारतीय संस्कृति का तालिबानीकरण"। संजय प्लेस स्थित यूथ हॉस्टल में आयोजित संगोष्ठी को सम्बोधित करते हुये संस्था के अध्यक्ष एंव वरिष्ठ पत्रकार अनिल शुक्ल ने कहा कि हजारों साल पुराना इतिहास है कि हमारे देश की संस्कृति विकास की ओर जाने के लिये अग्रसर करती है ना कि किसी भी तरह की कट्टरपंथी विचारधारा को अपनाने की। उन्होने कहा कि हमारे यहां हिन्दु संस्कृति का असर मुस्लिम परिवारों मे और मुस्लिम संस्कृति का प्रभाव हिन्दु परिवरों पर रहा है। लेकिन कुछ साम्प्रदायिक ताकतें अपने स्वार्थ की खातिर समाज मे ज़हर घोलने का काम कर रही हैं। मुख्य अतिथि इप्टा के महासचिव जितेन्द्र रघुवंशी ने संगोष्ठी के विषय की सरहाना करते हुये कहा कि पिछले एक दशक से कुछ ऐसी हिन्दुवादी ताकतें वजूद मे आ गयी हैं जो समाज मे होने वाले सारें क्रिया-कलापों को अपने ढंग से संचालित करना चाहती हैं। चाहे वो किसी नाटक का मंचन हो या फिर किसी फिल्म का शीर्षक। किसी का बेटी क्या पहनेगी, क्या पढेगी, कहां शादी करेगी, किस के साथ और कब घर से निकलेगी इस तरह की तमाम बातों पर फैसला करना चाहतें हैं। जरअसल यही वो लोग हैं जो हमारी संस्कृति को तालिबानीकरण की ओर ले जा रहे हैं। श्री रघुवंशी ने हिन्दी रंगमंच की दिशा और दशा पर प्रकाश डालते हुये इसे बढावा देने का आह्ववान किया। संगोष्ठी को आगे बढाते हुये वरिष्ठ समाजविज्ञानी ड़ॉ. राजेश्वर प्रसाद सक्सेना ने कहा कि कट्टरपंथ वहां फैलता है जहां अशिक्षा हो। इसलिये अगर इस कट्टरपंथ के नासूर को समाज से हटाना है तो पहले शिक्षा का प्रसार-प्रचार हर दिशा मे करना होगा। चाहे वो समाजिक शिक्षा हो या सांस्कृतिक।
संगोष्ठी के बाद रंगलीला के कलाकारों ने चर्चित नाटक सेटिंग का मंचन किया। वरिष्ठ रंगकर्मी शरमन लाल ने एकल नाटक की प्रस्तुति दी। इसके अलावा लाखन सिंह, सोनिया बघेल और हरजीत कौर आदि ने गीत भी प्रस्तुत किये। कार्यक्रम की अध्यक्षता कवि सोम ठाकुर और संचालन रंगकर्मी एंव पत्रकार योगेन्द्र दुबे ने किया। इस मौके पर डॉ. शशि तिवारी, डॉ. मधुरमा शर्मा, डॉ. श्रीभगवान शर्मा, विनय पसरिया, एस.एन. गोगिया, डॉ. जवाहर सिंह ठाकरे, सदन सोहन सक्सेना, तलत उमरी और कमलदीप आदि की उपस्थिति उल्लेखनीय रही।

वजूद खोता हिन्दी रंगमंच

(हिन्दी रंगमंच दिवस पर विशेष)
हिन्दी रंगमंच का डेढ़ सौ साल से भी ज्यादा का सफर आज हांफता नजर आ रहा है। बीते सालों में रंगकर्म को लेकर एक से बढ़कर एक प्रयोग हुए जो आज भी जारी हैं पर मल्टीप्लेक्स और सेंसेक्स के दौर में इसे बचाने और बढ़ाने की चुनौती बढ़ी है। तीन-चार वर्ष पहले विश्व रंगमंच दिवस पर अपने संदेश में गिरीश कर्नाड ने कहा था कि नाटक और बाधाओं के जन्मजात संबंध हैं। देवासुर संग्राम पर प्रस्तुत भरतमुनि का पहला नाटक ही विघ्न का शिकार हुआ था। विघ्नों-बाधाओं का यह सिलसिला आज भी जारी है। बस उनके रूप और सघनता में जरूर बदलाव आ गया है। इसलिए रंगमंच की मौजूदा चुनौतियां चिंतित करने वाली हैं।बाजार के दबाव ने गंभीर संस्कृति कर्म और समूची सृजनात्मकता के सामने संकट पैदा कर दिया है। कला के मनोरंजन उघोग में बदलने के चलते नाटक को कौन पूछेगा ! लोक और पारंपरिक दर्शक से कटकर मंचीय हिन्दी नाटक मूल रूप से शहरी मध्य वर्ग तक सीमित है। इस दर्शक वर्ग को लुभाने व पथ विचलित करने के लिए तमाम ‘कला उत्पाद’ मौजूद हैं, जो थोड़े खाते-पीते लोग नाटक के लिए आर्थिक संसाधन जुटाने में मदद करते थे, उन्होंने भी अपने हाथ खींच लिए हैं। प्रेक्षागृह दिन-दिन महंगे होते जा रहे हैं और रंग संस्थाएं प्रायोजकों की आ॓र ढकेली जा रही हैं, क्योंकि टिकिट खरीदकर नाटक देखने की आदत हमारे क्षेत्र में छूट चुकी है। निशुल्क निमंत्रण पत्रों, एसएमएस और व्यक्तिगत अनुरोध पर लोग नाटक देखने आ जाते हैं, यही बहुत है।नुक्कड़ नाटक भी व्यापारिक संस्थाएं, एनजीआ॓ और सरकारी प्रतिष्ठान छीन चुके हैं। पिछले दिनों मध्यप्रदेश सरकार ने 1857 की 150वीं वर्षगांठ पर नुक्कड़ नाटक अभियान चलवाया। हर नाट्य-दल को प्रतिदिन 30 हजार रूपये का मेहनताना मिला और बदले में उन्हें चुनाव चिह्न कमल को प्रचारित करने को कहा गया। पैसे के प्रलोभन में कई समर्पित युवक-युवतियां अपनी मूल संस्थाएं छोड़कर इस मुहिम में लग गए। छत्तीसगढ़ के स्वास्थ्य मंत्रालय में करोड़ों के नुक्कड़ नाटक घोटाले की खबर है। हिन्दी क्षेत्र की अधिकांश नाट्य संस्थाएं अव्यावसायिक हैं। वे अपने कलाकारों की आर्थिक मदद कर नहीं पातीं। रिहर्सल में आने-जाने के अलावा वे दूसरे छोटे-मोटे खर्चे भी खुद उठाते हैं। आमतौर से अभावग्रस्त परिवारों के नौजवान ही नाटक से जुड़ते हैं, क्योंकि भरे पेट वालों के दूसरे शगल हैं। इसलिए रोजी-रोटी के जुगाड़ की भी समस्य रहती है और घरवालों के दबाव भी। इस वजह से कलाकारों में टिकाऊपन नहीं होता। वहीं थोड़े से लोग टिक पाते हैं, जिनमें सामाजिक-सांस्कृतिक प्रतिबद्धता होती है या कला से भावुक जुड़ाव। फिर शार्टकट का भी जमाना है। बहुत से इसलिए भी आते हैं कि थोड़े दिन थियेटर कर लो, फिर टीवी या फिल्म के लिए स्ट्रगल करने का रास्ता पकड़ो।सरकारी धन से पोषित संस्थाओं, अकादमियों, सांस्कृतिक विभागों आदि से उम्मीदें रखना बेमानी है। एक तो उनके पास उतने ही फंड होते हैं कि वे अपने कर्मचारियों का वेतन दे सकें, दूसरे बड़ा हिस्सा उत्सवों-समारोहों पर खर्च हो जाता है। पीएन हक्सर कमेटी की सिफारिशों के बावजूद इन संस्थाओं का संचालन प्राय: नौकरशाहों के हाथ में है। नतीजतन गंभीर सांस्कृतिक क्रिया-कलाप का वातावरण बनाने में उनका योगदान नगण्य है। ऊपर से स्थानीय प्रशासन भी अड़ंगे डालता है। उत्तर प्रदेश में ड्रेमेटिक पर्फोमेंसेज एक्ट 1876 पिछले 55 साल से लागू नहीं है, फिर भी नाट्य संस्था से अपेक्षा की जाती है कि वह प्रेक्षागृह में प्रस्तुति से पहले पुलिस की अनापत्ति और प्रशासन की अनुमति ले। नाटक और बाधाओं का जन्मजात संबंध है। नाटक मरा नहीं और न मरेगा। हां, नाट्यकर्मियों पर नई जिम्मेदारी है। उन्हें कला का ऐसा मुहावरा पकड़ना होगा, जो ज्यादा से ज्यादा दर्शकों को आकर्षित करे। जिसका कथ्य मारक हो। जनता का विवेक और संवेदना जगाने के लिए अपने औजारों को और पैना व धारदार बनाना होगा। शहर से कस्बों व गांवों में जाना पड़ेगा। साथ ही प्रबंधन के नये फंडे खोजने पड़ेंगे। परिस्थितियां जो भी हो, नाटक नहीं रूकेगा।
(लेख इप्टा के राष्ट्रीय महासिचव डा. जितेन्द्र रघुवंशी से वरिष्ठ पत्रकार योगेन्द्र दुबे की बातचीत पर अधारित)

Thursday, April 2, 2009

सपना ....

बहुत सुंदर एक सपना देखा सपने में आकाश दिखा बादल दिखे पंछी दिखे उनके साथ तुम दिखे हवा से बातें करते हुए मस्ती से चलते हुए अनजान राहों पर कुछ लोग दिखे उनके साथ तुम दिखे तेरा चहकना पंछियों जैसा तेरा चमकना चाँद जैसा तेरा महकना खुशबू जैसा तेरा गुनगुनाना भौरें जैसा सब देखा बहुत सुंदर एक सपना देखा

सुरक्षा अस्त्र

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