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Sunday, October 23, 2011

दिवाली

दीप सज्जित स्वच्छ गृह सब फूल माला से सजे
नव सुवसना नारी नर सब आज स्वागत में भजे
धूप, चंदन, पुष्पमाला करें पूजन लक्ष्मी का
मलिनता और द्वेष ईर्षा आज के दिन सब त्यजें ।

नाना विविध पकवान से श्री भोग को अर्पित करें
प्रसाद ये फिर स्नेह पूर्वक साथ साथ ग्रहण करें
नमन मन से करें, विनती, देवि से समृध्दी की
घर द्वार आंगन नगर देश सब धान्य औ धन से भरे ।

सुख शांति का साम्राज्य हो पर देश हित तत्पर रहें
हमें असावध देख बैरी ना कोई खटपट करे
मजबूत हों सैनिक हमारे, नागरिक भी सशक्त हों
यही इच्छा करें और इसको कर्म से सुफल करे ।

सभी ब्लॉगर बंधु भगिनियों को दिवाली की अनेक शुभ कामनाएँ ।

Sunday, September 18, 2011

श्रीगंगानगर-सनातन धर्म,संस्कृति में पुत्र की चाहना इसीलिए की जाती है ताकि पिता उसके कंधे पर अंतिम सफर पूरा करे। शायद यही मोक्ष होता होगा। दोनों का। लेकिन तब कोई क्या करे जब पुत्र के होते भी ऐसा ना हो। पुत्र भी कैसा। पूरी तरह सक्षम। खुद भी चिकित्सक पत्नी भी। खुद शिक्षक था। तीन बेटी,एक बेटा। सभी खूब पढे लिखे। ईश्वर जाने किसका कसूर था? माता-पिता बेटी के यहाँ रहने लगे। पुत्र,उसके परिवार से कोई संवाद नहीं। उसने बहिनों से भी कोई संपर्क नहीं रखा। बुजुर्ग पिता ने बेटी के घर अंतिम सांस ली। बेटा नहीं आया। उसी के शहर से वह व्यक्ति आ पहुंचा जो उनको पिता तुल्य मानता था। सूचना मिलने के बावजूद बेटा कंधा देने नहीं आया।किसको अभागा कहेंगे?पिता को या इकलौते पुत्र को! पुत्र वधू को क्या कहें!जो इस मौके पर सास को धीरज बंधाने के लिए उसके पास ना बैठी हो। कैसी विडम्बना है समाज की। जिस बेटी के घर का पानी भी माता पिता पर बोझ समझा जाता है उसी बेटी के घर सभी अंतिम कर्म पूरे हुए। सालों पहले क्या गुजरी होगी माता पिता पर जब उन्होने बेटी के घर रहने का फैसला किया होगा! हैरानी है इतने सालों में बेटा-बहू को कभी समाज में शर्म महसूस नहीं हुई।समाज ने टोका नहीं। बच्चों ने दादा-दादी के बारे में पूछा नहीं या बताया नहीं। रिश्तेदारों ने समझाया नहीं। खून के रिश्ते ऐसे टूटे कि पड़ोसियों जैसे संबंध भी नहीं रहे,बाप-बेटे में। भाई बहिन में। कोई बात ही ऐसी होगी जो अपनों से बड़ी हो गई और पिता को बेटे के बजाए बेटी के घर रहना अधिक सुकून देने वाला लगा। समझ से परे है कि किसको पत्थर दिल कहें।संवेदना शून्य कौन है? माता-पिता या संतान। धन्य है वो माता पिता जिसने ऐसे बेटे को जन्म दिया। जिसने अपने सास ससुर की अपने माता-पिता की तरह सेवा की। आज के दौर में जब बड़े से बड़े मकान भी माता-पिता के लिए छोटा पड़ जाता है। फर्नीचर से लक दक कमरे खाली पड़े रहेंगे, परंतु माता पिता को अपने पास रखने में शान बिगड़ जाती है। अडजस्टमेंट खराब हो जाता है। कुत्ते को चिकित्सक के पास ले जाने में गौरव का अनुभव किया जाता है। बुजुर्ग माता-पिता के साथ जाने में शर्म आती है। उस समाज में कोई सास ससुर के लिए सालों कुछ करता है। उनको ठाठ से रखता है।तो यह कोई छोटी बात नहीं है। ये तो वक्त ही तय करेगा कि समाज ऐसे बेटे,दामाद को क्या नाम देगा! किसी की पहचान उजागर करना गरिमापूर्ण नहीं है।मगर बात एकदम सच। लेखक भी शामिल था अंतिम यात्रा में। किसी ने कहा है-सारी उम्र गुजारी यों ही,रिश्तों की तुरपाई में,दिल का रिश्ता सच्चा रिश्ता,बाकी सब बेमानी लिख।

Monday, September 12, 2011

फालतू

संवाद थम जाता है माँ के साथ,
जब छूट जाता है बचपन का आँगन
चिठ्ठियों का अंतराल लंबे से लंबा होता चला जाता है
और सब सिमट जाता है एक वाक्य में,
“ कैसी हो माँ “ ?
माँ का जवाब उससे भी संक्षिप्त,
“ठीक” ।
पर उसकी आँखें बोलती हैं,
उसकी उदासी कह जाती है कितना कुछ ,
उसका दर्द सिमट आता है चेहेरे की झुर्रियों में
जब होता है अहसास उसको अपने फालतू हो जाने का ।

Wednesday, September 7, 2011

तेरी मीरा जरुर हो जाऊं।

सारी दुनियां से दूर हो जाऊं,तेरी आँखों का नूर हो जाऊं तेरी राधा बनू ,बनू ना बनू ,तेरी मीरा जरुर हो जाऊं।

Tuesday, September 6, 2011

दुर्गा मंदिर के चुनाव में जुगल डूमरा अध्यक्ष बने

श्रीगंगानगर-जिसने कभी श्री दुर्गामंदिर की चौखट पर धोक नहीं लगाई वह मंदिर में आया हुआ था। दुर्गा को प्रणाम करने के लिए नहीं,वोट डालने के लिए।जी हाँ यह सच है। दुर्गा मंदिर को संचालित करने वाली समिति में ऐसे ऐसे वोटर हैं जिनका कभी दुर्गा मंदिर में आना नहीं होता। ऐसे ही सदस्यों की लिस्ट पर रिसीवर तहसीलदार ने चुनाव करवाए। चुनाव में पूर्व पार्षद जुगल डूमरा अध्यक्ष चुने गए। उन्होंने पूर्व पार्षद चन्द्र शेखर असीजा को हराया।उपाध्यक्ष पद पर वीरेंद्र विग निर्विरोध चुने गए। सचिव पद पर सुशील मल्होत्रा,कोषाध्यक्ष संदीप कटारिया विजयी हुए। मंदिर के चुनाव १५ साल बाद हुए। चुनाव के कारण मंदिर में खूब रौनक रही। ऐसे ऐसे इन्सान मंदिर में वोट डालने आये जिसने कभी मंदिर की सूरत भी नहीं देखी होगी। जिनका और जिनके पुरखों के इस मंदिर से कभी कोई लगाव नहीं रहा। लेकिन वोटों की राजनीति करने वालों ने उनके वोट बना रखे थे जो काम आ गए। दुर्गा मंदिर अरसे से आपसी विवादों का गढ़ रहा है। कई गुट होने के कारण मंदिर का उतना विकास नहीं हो पाया जितनी इसकी मान्यता है।चुनाव से पहले सर्व सम्मति के काफी प्रयास हुए भी मगर बात नहीं बनी।

हिन्दू बताकर मुस्लिम लड़की से शादी करवा दी

श्रीगंगानगर-मुस्लिम युवती को हिन्दू बताकर उसका विवाह जैन युवक से करवा दिया। भेद खुलने पर राजसमन्द के इस युवक ने मैरिज ब्यूरो संचालक सहित कई जनों के खिलाफ मुकदमा दर्ज करवाया है। कोतवाली थाना में दर्ज इस मुकदमे के अनुसार राजसमन्द जिले के रोहित पुत्र बाबूलाल जैन के साथ यह घटना हुई। पहले उसने पाली जिले के एक थाने में मुकदमा दर्ज करवाया था। चूँकि घटना श्रीगंगानगर की थी इसलिए वहां जाँच बंद कर दी गई। पाली के एसपी ने यह केस श्रीगंगानगर को प्रेषित कर दिया। रोहित ने बताया है कि उसकी शादी विनोबा बस्ती में संचालित मैरिज ब्यूरो के संचालक जागर सिंह व कुलजीत कौर ने कुछ समय पहले कसाइयों का मोहल्ला मस्जिद के पास की एक युवती सीमा से करवाई। रोहित के परिवार को यह बताया गया कि सीमा मूंदड़ा परिवार से है। उसके पिता का नाम रामजी लाल मूंदड़ा बताया गया। शादी के लिए रोहित से तीन लाख तीस हजार रूपये लिए गए। कुछ समय बाद रोहित को पता चला कि सीमा का असली नाम शकीना है। उसके पिता का नाम सलीम खान और माँ का नाम खातून बीबी है। थाना में जागर सिंह,कुलजीत कौर,सीमा उर्फ़ शकीना,रामजीलाल उर्फ़ सलीम व खातून बीबी के खिलाफ मुकदमा दर्ज हुआ है।
मैं तुझ में ऐसी रमी,ज्यों चन्दन में नीर तेरे मेरे बीच में,खुशबू की जंजीर। -डॉ रमा सिंह

Tuesday, July 19, 2011

दुख्तक

रात गहरी और काली
मेरे राहों की तरह
कहीं कुछ सूझता ही नही ।

इस शहर में मौत का तांडव
कब हो जायेगा
कोई जानता ही नही ।

हम निकम्मे, बेईमान
किस को हम दोषी कहें
सब हमारा ही किया धरा ।

जिस जनता की रगों में
खून बहता ही नही
उसका जीना मरना क्या ।

छटपटाती जिंदगी
और बेरहम ये मौत भी
आज शरमिंदा है ।

मोटी चमडी, काले चश्मे
उजले लिबास, काली करतूतें
हमारे नेता हैं ये ।

Wednesday, June 8, 2011

रंगमंच की दुनिया में अमर हो गये हबीब तनवीर

रंगमंच की दुनिया में मशहूर नाट्यकर्मी हबीब तनवीर का नाम हमेशा याद रखा जायेगा। उन्होने भारतीय रंगमंच को आगे ही नही बढ़ाया बल्कि उसे एक नई दिशा भी प्रदान की। आज भले ही हबीब तनवीर इस दुनिया में न हों लेकिन उनकी कला और यादें सभी के जहन में ताजा हैंउनके कई शागिर्द आज भी अपने उस्ताद की कमी को महसूस करते हैं

तनवीर के साथ लगभग दो दशक तक सक्रिय रूप से जुड़े रहे नाट्य कलाकार अनूप त्रिवेदी भी उनके ऐसे ही एक शागिर्द हैं। अनूप त्रिवेदी कहते हैं कि उनके जैसा कोई दूसरा नाट्यकर्मी नहीं हो सकतावह मेरे गुरु थे और मैंने अभिनय की बारीकियां उन्हीं से सीखींनाट्य जगत के दिग्गज तनवीर का जन्म एक सितंबर, 1923 को छत्तीसगढ़ के रायपुर में हुआनागपुर के मॉरिस कॉलेज और अलीगढ़ मुस्लिम विविद्यालय से पढ़ाई करने वाले तनवीर ने नुक्कड़-नाटक के जरिए अपनी एक अलग पहचान कायम की थी

त्रिवेदी के मुताबिक तनवीर की रग-रग में थियेटर के लिए प्यार थाकुछ लोग उन्हें नुक्कड़-नाटकों तक ही सीमित करते हैं लेकिन उनका योगदान बहुत बड़ा थावह कला के सच्चे पुजारी थेउन्होंने मेरे जैसे सैकड़ों युवकों को प्रेरणा दी

वह 1945 में मुंबई पहुंचे और आकाशवाणी में नौकरी करने लगेयहीं से उन्होंने फिल्मों में गीत लिखने शुरू किए और कुछ फिल्मों में भी अभिनय किया माया नगरी में रहकर वह कई नाट्य मंडलियों से जुड़ेबाद में तनवीर दिल्ली आकर सक्रिय रूप से थियेटर से जुड़ गएइसके बाद बतौर नाट्यकर्मी उनका जो सफर शुरू हुआ वह बेमिसाल रहामध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल उनकी कर्मस्थली साबित हुई

हबीब के साथ काम कर चुके नाट्य कलाकार और लेखक निसार अहमद बतातें हैं कि एक नाट्यकर्मी के तौर पूरी दुनिया हबीब तनवीर को जानती है। बहुत से लोग उनकी शख्सियत के कायल हैं। उनके भीतर गज़ब की सादगी थीउनके साथ काम करने के अनुभव को कभी नहीं भूलाया नही जा सकता

तनवीर ने अपने लंबे करियर में कई नाटकों का निर्माण और निर्देशन कियाउनका सबसे मशहूर नाटक चरणदास चोररहाइसका निर्माण वर्ष 1975 में हुआ थाअंगेजी समाचार पत्र हिंदुस्तान टाइम्सने इस नाटक को आज़ादी के बाद की 60 सर्वश्रेष्ठ कृतियों में शुमार किया था। तनवीर को संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार, पद्मश्री और पद्म भूषण से भी नवाजा गयावर्ष 1972 से 1978 तक वह राज्यसभा के मनोनीत सदस्य रहेनाट्य कला के इस सरताज ने आठ जून 2009 को अंतिम सांस ली

रंगमंच की इतिहास में हबीब तनवीर का नाम हमेशा याद किया जायेगा।

Sunday, May 15, 2011

अमरीका की तानाशाही और इराक का दर्द है “द लॉस्ट सेल्यूट”

इराकी पत्रकार मुंतज़िर अल ज़ैदी का जूता आज तक लोग नही भूले हैं। दरअसल वो जूता इतना खास बन गया था कि दुनिया के कौने कौने मे उस जूते के चर्चे आम हो गये। इराकी जनता के गुस्से का इज़हार करने के लिये अमरीकी राष्ट्रपति जार्ज बुश पर फेंका गया वो जूता भारत मे भी कई लोगों के लिये प्रेरणा बन गया।

पूरी दुनिया के लोग आज तक ये जानने को उत्सुक रहते हैं कि आखिर मुंतज़िर अल ज़ैदी को जूता फेंकने की ज़रुरत क्यों पड़ी? इसी बात को ध्यान मे रखकर जाने-माने फिल्म निर्माता निर्देशक महेश भट्ट ने इस संवेदनशील विषय को लोगों के सामने रखने के लिये रंगमंच की दुनिया में कदम रख दिये।

महेश भट्ट ने मुंतज़िर अल ज़ैदी की किताब द लॉस्ट सेल्यूट टू प्रेसीडेन्ट बुश पर आधारित एक नाटक की रचना कर डाली। शनिवार और रविवार की शाम राजधानी दिल्ली के श्रीराम सेन्टर में महेश भट्ट के नाटक द लॉस्ट सेल्यूट का मंचन किया गया। नाटक मे दर्शाया गया कि किस तरह से अमरीका ने शान्ति के नाम पर छोटे से मगर सम्पन्न राष्ट्र इराक को बर्बाद किया। किस तरह से आंतक और जैविक हथियारों के बहाने बगदाद शहर पर आग बरसाई गयी। किस तरह से अमरीकी सेना ने मासूम बच्चों और औरतों पर कहर बरपाया। यहां तक कि इराक में अस्पतालों को जंग के दौरान बमों के हवाले कर दिया गया। ये नाटक उस आम आदमी की कहानी है जो अपनी आँखों से अपने घर, शहर और वतन की बर्बादी देखता है और जब उसकी हिम्मत जवाब दे जाती है तो वो कुछ कर गुज़रने की ठान लेता है। दरअसल ये नाटक अमरीका की तानाशाही को लोगों के सामने रखता है जो किसी भी मुल्क पर किसी भी बहाने से हमला करने की फिराक मे रहता है। या फिर ये कहें कि दुनिया भर के मुल्कों को डराने की कोशिश करता रहता है। ताकि वो अपनी जायज़ और नाजायज़ नीतियों को दुनिया पर थोप सके।

अस्मिता थियेटर ग्रुप के कलाकारों ने करीब एक घण्टे की इस प्रस्तुति में दर्शकों के सामने मुंतज़िर अल ज़ैदी की पूरी कहानी बंया की। अभिनय की अगर बात की जाये तो नाटक का मुख्य किरदार महेश भट्ट की अगली फिल्म में बतौर नायक एन्ट्री करने वाले इमरान जाहिद ने अदा किया। पूरे नाटक की जान मुंतज़िर अल ज़ैदी का ये किरदार ही था। लेकिन इमरान जाहिद यहां अपने अभिनय की छाप नही छोड़ पाये। नाटक मे कई जगहों पर अन्य किरदार इमरान पर हावी दिखाई दिये। आवाज़ और अभिनय के मामले में इमरान अपने किरदार मे आत्म विश्वास भरने मे नाकाम रहे तो नाटक के सूत्रधार की शक्ल मे विरेन बसोया ने दर्शकों को अपनी ओर आकर्षित किया। जार्ज वी बुश का किरदार निभाने वाले ईश्वाक सिंह ने भी अपने किरदार के साथ न्याय किया। इन दोनों की संवाद अदायगी काबिल-ए-तारीफ थी। शिल्पी मारवाह ने अपने छोटे पर सशक्त किरदार को जीवंत बनाने का सफल प्रयास किया। इसके अलावा राहुल खन्ना, हिमांशु, सूरज सिंह, गौरव मिश्रा, पंकज दत्ता, शिव चौहान, रंजीत चौहान और मलय गर्ग ने  संवाददाताओं की भूमिका मे अपनी आवाज़ को दूर तक पंहुचाया।

नाटक का संगीत और गायन पक्ष कमज़ोर दिखाई दिया। जिसकी ज़िम्मेदारी संगीता गौर को दी गयी थी। पार्श्व संगीत की कमी तो नाटक में शुरु से ही दिख रही थी जबकि पार्श्व संगीत के लिये नाटक मे काफी गुंजाइश थी। कोरस ने गीतों के साथ कोई न्याय नही किया। यहां तक अभिनेताओं और कोरस के बीच तालमेल की कमी लगातार दर्शकों को खलती रही। कई जगहों पर गीतों मे कोरस खुद ही भटक गया। यहां तक फैज़ अहमद, साहिर लुधियानवी और हबीब जलीब के जनगीत दर्शकों को समझ मे ही नही आये।

नाटक के निर्देशक अरविन्द गौर लगातार कई सालों से रंगमंच कर रहे हैं। अरविन्द सामाजिक और रानीतिक नाटकों के लिये जाने जाते हैं। इसलिये उनके निर्देशन मे इस नाटक से उम्मीदें ज़्यादा थी। एक माह की रिहर्सल के बाद भी वो मुख्य किरदार निभाने वाले इमरान ज़ाहिद को पूरी तरह तैयार नही कर पाये। जबकि अन्य किरदार दर्शकों पर छाप छोड़ने मे कामयाब रहे।

नाटक की स्क्रिप्ट और संवाद दर्शकों को पसन्द आये। लखनऊ के राजेश कुमार  मुंतज़िर अल ज़ैदी की किताब से ली गयी कहानी को नाटक बनाने मे सफल दिखाई दिये। मैकअप पक्ष को श्रीकान्त वर्मा ने संवारा। नाटक मे लाइटिंग पक्ष भी अच्छा रहा।

मंचन के दौरान खासतौर पर इराकी टीवी पत्रकार मुंतज़िर अल ज़ैदी दिल्ली आये थे। उन्होने नाटक देखने के बाद कहा कि इस नाटक को देखकर उनकी वो सारी यादें ताज़ा हो गयी जो उनके साथ गुज़रा। उन्होने गांधी जी की सराहना करते हुये कहा कि ये देश बहुत सौभाग्यशाली है क्योंकि गांधी जी यहां रहा करते थे। जिन्होने उन्हे भी सच के लिये लड़ने की प्रेरणा दी।

नाटक के निर्माता महेश भट्ट ने कहा कि हम सभी को अन्याय के खिलाफ चुप रहने के बजाय आवाज़ उठानी चाहिये। जब तक हम आवाज़ बुलन्द नही करेगें तब तक हमारी सुनवाई नही होगी। सब साथ आईये और अपने हक के लिये, सच के लिये आवाज़ बुलन्द किजीये।

इस दौरान अभिनेत्री पूजा भट्ट, सांसद जया प्रदा, अभिनेता डीनो मारियो, सन्दीप कपूर आदि मौजूद रहे।

Wednesday, May 11, 2011

सेना के युद्धाभ्यास से राजस्थान का रेगिस्तान गौरवान्वित हो गया। अपने देश की सेना का युद्ध कौशल देख रेगिस्तानी मिट्टी का कण कण उत्साहित है। वह अपने सैनिकों का माथा चूम रहा है। माथे पर तिलक लगा रहा है। हजारों सैनिक इस रेगिस्तानी मिट्टी तो अपने पैरो से रोंद रहे है। मगर मिट्टी है कि इसको अपना अहोभाग जान हर सैनिक के चरण स्पर्श कर रही है। क्योंकि जो मिट्टी आज वहाँ है उसको फिर मौका नहीं मिलेगा अपने इन जांबाजों के चरण छूने का। उसे तो उड़ जाना है। आँधी बनकर। मीडिया इस अभ्यास से रेगिस्तान के थर्राने की बात करता है। कोई थर्राए तो तब ना जब कोई दुश्मन हो। यहाँ तो अपनी सेना अपना क्षमता दिखा रही है। बता रही है, चिंता मत करो, किसी से मत डरो। सेना देश की सुरक्षा बहुत अच्छी तरह से कर सकती है। तो फिर यह थर्राने की नहीं गौरवान्वित होने की बात है। आओ रेगिस्तान की मिट्टी के साथ हमभी गर्व करे अपनी सेना पर। उनको बधाई दें,उनके रण कौशल के लिए। जयहिंद ।

Tuesday, May 3, 2011

श्रीगंगानगरविनाबा बस्ती मे,सिंधियों के मंदिर के थोड़ा आगे। सुबह एक घर के सामने टांय टांय करते तोतों को देख हैरत हो सकती है। कई दर्जन तोते एक साथ। हमें नहीं बताया गया होता तो हमें भी हैरानी होती। परंतु हम तो आए ही इसलिए थे की उन तोतों को देख सकें। जिस मकान के सामने तोते आए थे वह है आयकर अधिकारी अशोक किंगर का। किंगर दंपती चबूतरे पर बैठे थे ओर तोते ले रहे थे अपना दाना पानी। किंगर दंपती सुबह सुबह सबसे पहले इन तोतों से ही मिलते हैं। साढ़े पाँच बजे तोतों के लिए मूँगफली के दाने रख दिये जाते हैं। तोते आ चुके हैं। पहले एक तोता आएगा। दाना चुगेगा। बिजली की तार पर जा बैठेगा। उसके बाद भीड़ मे से आठ आठ,दस-दस तोते बारी बारी से आते हैं। चुग्गा लेते हैं। जा बैठते हैं। कोई हाय तौबा नहीं। लड़ाई नहीं। लगभग एक घंटे तक तोतों का यह सह भोज चलता है। किंगर दंपती अपनी दिनचर्या मे व्यस्त हो जाते हैं और तोते उड़ जाते हैं कल फिर आने के लिए। यह कर्म लंबे समय से चल रहा है। किसी समय अशोक किंगर कबूतरों के लिए ज्वार डालने जाया करते थे। जहां जाते थे वहाँ कुछ मनमाफिक नहीं लगा तो घर की चारदीवारी पर इंतजाम किया। एक दिन किसी ने मूँगफली के दानों के बारे मे बताया। वहाँ रखे। कई दिन तो पाँच सात तोते ही आए। फिर इनकी संख्या बढ़ती चली गई। अब तो कभी कभी सौ तोते भी वहाँ दिखाई पड़ जाते हैं। जब किंगर दंपती यहाँ नहीं होते तो तोतों के भोजन की ज़िम्मेदारी किसी को सौंप का जाते हैं। एक बार शुरू हुआ यह सिलसिला जारी है। संभव है आईटीओ के रूप मे श्री किंगर की पहचान कुछ अलग प्रकार की हो परंतु पक्षियों के प्रति ऐसा प्रेम बहुत कम देखने को मिलता है। श्रीगंगानगर मे जहां जहां पक्षियों के लिए ज्वार,बाजरा डाला जाता है वहाँ इतनी संख्या में कोई पक्षी दिखाई नहीं दिया। एक घर मे इतनी संख्या मे तोतों का आना बहुत बड़ी बात है। ऐसा ही दृश्य मरघट मे देखने को मिला था। सुबह और दोपहर के बीच का समय था। किसी के अंतिम संस्कार मे शामिल होने गया था। एक आदमी छोटा सा थैला लेकर छत पर गया। पीछे मैं भी। उसके छत पर पहुँचते ही बड़ी संख्या मे कौए वहाँ मंडराने लगे। उसने थैले मे रोटी निकाली और कौए को डाली । कुछ ही क्षणों मे वहाँ और कौए आ गए। काफी देर तक वहाँ कौए भोजन करते रहे। ये दोनों कभी किसी अखबार मे नहीं गए अपनी खबर छपवाने। उनको तो यह पढ़कर मालूम होगा कि हमारे तोतों,कौए की खबर आई है। पहले एक शेर फिर एसएमएस। आ मेरे यार फिर इक बार गले लग जा,फिर कभी देखेंगे क्या लेना है क्या देना है। राजेश अरोड़ा का एसएमएसअध्यापकहिन्दी की पहली साइलेंट फिल्म

Saturday, April 23, 2011

ये ख़ामोशी के राज हम जानतेहैं यूँ चुप रहने के अंदाज हम जानते हैं, यकीन नहीं आता तो अपने दिल से पूछ लो आप से बेहतर आप को हम जानते हैं। ------ एक एसएमएस राजू ग्रोवर का।

Monday, April 18, 2011

आज कुछ समय पहले ही पता लगा कि फेसबुक पर भी कुछ लोगों का एक ग्रुप है। इस ग्रुप को वह इन्सान पसंद नहीं आता जो इनके लिखे पर आलोचनात्मक टिप्पणी करे। इनमे से एक साहब ने फोन करके अपनी इस भावना से अवगत भी करवाया। ये चाहते थे कि मैं { माफ़ी, मैं लिखने के लिए} वही लिखूं जिसको वो पसंद करे। या जिसको पढ़ कर वे खुश हो जाएं। फेसबुक पर सब लोग अपने भाव लिखते हैं। शब्द,फोटो,वीडियो,टिप्पणी भाव व्यक्त करने का तरीका है। एक पोस्ट पर टिप्पणी की तो उनको पसंद नहीं आई। जबकि मैंने साथ में लिखा था, सॉरी। मैंने अपनी बात कही तो उनको बुरा लगा। अगर आप अपनी या अपने ग्रुप वाले किसी दोस्त की पोस्ट पर आलोचनात्मक टिप्पणी हजम नहीं कर सकते तो फिर ऐसी जगह पर लिखते ही क्यों हैं? मेरे भाव का मकसद किसी का दिल दुखाना नहीं होता। लेकिन यह भी संभव नहीं कि वही लिखा जाये जो उनको पसंद हो। अब मुझे कुछ पसंद नहीं तो इसका ये मतलब नहीं कि मैं फोन करके लिखने वाले से सवाल जवाब करूँ। चलो इसी बहाने लोगों के असली चेहरे तो सामने आये। क्योंकि फेसबुक पर जो थे वे कुछ और थे। आलोचना ना सहन करने वाले निंदा भी गाली देने की स्टाइल में करते हैं। भगवान मुझे हिम्मत देना ऐसे लोगों के फोन सुनने की और फेसबुक पर इनकी गालियाँ पढने की।

Saturday, April 16, 2011

यूसुफ़ अन्सारी को ड़ॉ. अम्बेड़कर सम्मान

मुम्बई। अम्बेड़कर जयन्ती के मौके पर गुरुवार की रात मुम्बई मे आयोजित एक भव्य समारोह में देश के जाने-माने टीवी पत्रकार यूसुफ़ अन्सारी, फिल्म अभिनेता धमेन्द्र, और अभिनेत्री एंव सामाजिक कार्यकर्ता शबाना आज़मी को ड़ॉ. भीमराव अम्बेड़कर अवार्ड़ से सम्मानित किया गया। इनके अलावा कई फिल्मी कलाकारों को अलग-अलग श्रेणी मे अवार्ड़ से नवाज़ा गया।

मुम्बई मे गुरुवार की शाम ड़ॉ. अम्बेड़कर के नाम रही। महानगर के शमुखानन्द चन्द्रशेखर नरेन्द्र सरस्वती ऑडिटोरियम मे मशहूर बॉलीवुड़ पत्रिका पेज3 और महाराजा यशवंत राव होलकर प्रतिष्ठान ने ड़ॉ.भीवराव अम्बेड़कर सम्मान समारोह का आयोजन किया। इस भव्य समारोह मे देश की कई जानी मानी हस्तियां शामिल हुई। देश के जाने-माने टीवी पत्रकार एंव राजनीतिक विश्लेषक यूसुफ़ अन्सारी को अपनी ख़बरों और लेखों में समाज के पिछड़े, अतिपिछड़े, दबे, कुचले और निरक्षर वर्ग की आवाज़ उठाने के लिये इस प्रतिष्ठित सम्मान से सम्मानित किया गया। दिल्ली से पुरुस्कार ग्रहण करने मुम्बई आये वरिष्ठ पत्रकार यूसुफ़ अन्सारी ने कहा कि वो ये पुरुस्कार पाकर काफी उत्साहित हैं। उनका कहना था कि बाबा साहेब से ही उन्हे निचले तबके की आवाज़ उठाने की प्रेरणा मिली थी और वे तब तक ये काम करते रहेंगें जब तक सबसे पिछड़ा तबका समाज के मजबूत तबकों के बराबर आकर ना खड़ा हो जाये। उन्होने कहा कि बाबा साहेब के नाम पर सम्मान मिलना उनके लिये गर्व की बात है।

इस मौके पर जाने-माने फिल्म अभिनेता धमेन्द्र को बॉलीवुड़ मे उनके सराहनीय योगदान के लिये लाइफटाईम अचीवमेन्ट अवार्ड़ से नवाज़ा गया। साथ ही मशहूर अभिनेत्री एंव सामाजिक कार्यकर्ता शबाना आज़मी को सोशलवर्क में उनके सराहनीय योगदान के लिये इस पुरुस्कार से सम्मानित किया गया। दोनों कलाकारों ने आयोजकों की सरहाना करते हुये बाबा साहेब के बताये मार्ग का अनुसरण करने की बात कही। इनके अलावा इस मौके पर मशहूर गायिका आशा भौंसले, फिल्म अभिनेता विवेक ओबरॉय, गायिका अनुराधा पौड़वाल, गायक उदित नारायण, अभिनेत्री सलमा आगा, टीवी कलाकार अन्जन श्रीवास्तव, फिल्मकार इकबाल दुर्रानी और महाराष्ट्र के अल्पसंख्यक कल्याण मंत्री अनीस अहमद को भी सम्मानित किया गया।

Friday, April 15, 2011

" कृपया यहाँ अपना ज्ञान मत बांटोयहाँ सब के सब ज्ञानी है। " अरे! अरे! गुस्सा मत करोये मेरा किया धरा नहीं हैमैंने कहीं पढ़ायहाँ छाप दियावैसे सुना है कि ज्ञान तो बांटने से बढ़ता हैपर..... ज्ञानियों में ज्ञान बाँटना......... । चुप्प रहना ही सेहत के लिए ठीक है

Wednesday, April 13, 2011

श्रीगंगानगर में दो पुलिस वालों को मुलजिम पकड़ने पर सम्मानित किया एस पी ने। .... समझ नहीं आया कि इन्होने तो वही किया जो इनका काम है। फिर ये सम्मान किस बात का। ........ हाँ , आजकल पुलिस मुलजिम पकड़ती नहीं ना!

Tuesday, April 12, 2011

जब कोई छोटा बड़ा सपना हकीकत बन कर सामने जाता है तब अपनों पर निगाह कम ही पड़ती हैविश्वास नहीं तो आस पास देख लो

Saturday, April 9, 2011

--- चुटकी--- पता नहीं क्या बात हुई हुजूर, सबके नेता रहे, हमारे अन्ना से दूर

हिन्दूस्तान में अन्ना हजारे के पक्ष में चली आंधी से सरकार थोड़ी डगमगाई। आज वह हो जायेगा जो अन्ना चाहते हैं। इस आन्दोलन से जुड़े लोग खुशियाँ मनाएंगे। एक दो दिन में अन्ना को भूल कर आई पी एल में खो जायेंगे। यही होता आया है इस देश में। आजादी मिली। हम सोचने लगे ,अब सब अपने आप ठीक हो जायेगा। क्या हुआ? कई दश पहले " हाय महंगाई..हाय महंगाई " वाला गीत आज भी सटीक है। गोपी फिल्म का गाना " चोर उचक्के नगर सेठ और प्रभु भगत निर्धन होंगे...जिसके हाथ में होगी लाठी भैंस वही ले जायेगा..... " देश के वर्तमान हालत की तस्वीर बयान करता है। लोकतंत्र। कहने मात्र से लोकतंत्र नहीं आ जाता। देखने में तो भारत में जनता की,जनता के लिए जनता द्वारा चुनी हुई सरकारे ही आई हैं। किन्तु लोकतंत्र नहीं आया। भैंस बेशक किसी की रही मगर लेकर वही गया जिसके हाथ में लाठी थी। कहीं ऐसा ही हाल इस आन्दोलन का ना हो जाये। इसलिए अन्ना हजारे के आन्दोलन से जुड़े हर आदमी को सजग ,सचेत रहना है। जो कुछ चार दिनों में जंतर,मंतर पर हुआ उसका डर सरकार को बना रहे। मकसद जन लोकपाल विधेयक नहीं ,करप्शन मुक्त भारत है। विधेयक पहली सीढ़ी है। इसके बन जाने से ही करप्शन ख़तम नहीं हो गया। होगा भी नहीं। अभी तो केवल शुरुआत है। देश में माहौल बना है। आम आदमी के अन्दर करप्शन के प्रति विरोध,आक्रोश मुखर हुआ है। वह सड़क पर उतरा है। यह सब कुछ बना रहना चाहिए। बस यह चिंगारी बुझे नहीं। ऊपर राख दिखे तो दिखे। कुरेदो तो चिंगारी नजर आनी चाहिए जो फूंक मारते ही शोला बन जाने का जज्बा अपने अन्दर समेटे हो, सहेजे हो। वरना सब कुछ जीरो।

Thursday, April 7, 2011

वर्ल्ड कप से बढ़कर है अन्ना हजारे का आन्दोलन

हिन्दूस्तान के १२१ करोड़ लोगों में से उन को छोड़ दो जिनको किसी बात की समझ नहीं हैइनमे बच्चे और वे इन्सान शामिल हैं जिन्हें अपने अलावा किसी से कोई मतलब नहींइसके बाद जो बचे उन्होंने क्रिकेट के लिए अपना बहुत समय दियाभारत वर्ल्ड कप जीते , ये प्रार्थना कीजीतने के बाद खुशियाँ मनाईपटाखे छोड़ेमिठाइयाँ बांटीसड़कों पर डांस कियादेर रात तक ख़ुशी से किलकारियां मारते हुए हुए गलियों में घूमेदूसरे दिन तक यही सब कुछ चलता रहाचलना भी चाहिए थासब के भाव थेभारत की इज्जत का सवाल थाकप ना मिलता तो संसार में नाक कट जातीपूरा देश एक हो गयाभारत अखंड नजर आने लगागली,सड़क, छोटे से कौने से भी यही आवाज सुने दी"विजयी भव "। ये कोई स्थाई नहींआज कप हमारे पास हैकल किसी और का होगाकल,मतलब कुछ दिन पहले तक किसी अन्य का थाकिन्तु हिन्दूस्तान था,है और रहेगाकप उतना मान सम्मान हिन्दूस्तान दुनियां में नहीं दिला सकता जितनी ईमानदारी, सच्चाई,मजबूती दिला सकती हैयह सब पाने के लिए भी मैच हो रहा हैअफ़सोस कि इसमें किसी अन्य देश कि टीम नहींदोनों तरफ अपने ही हैंएक तरफ हैं सामाजिक कार्यकर्त्ता अन्ना हजारे और दूसरी ओर भ्रष्ट सिस्टमउसके चलाने वाले नेता,अफसरअन्ना हजारे के साथ देश के हर कौने से हर वर्ग जुड़ रहा हैलोग दिल्ली के जंतर मंतर पहुँच रहे हैंजो नहीं जा पा रहे वे अपने स्तर अन्ना के साथ खड़े दिखते हैं। " हम अन्ना के साथ हैंआप ! अगर आप भी साथ हैं तो ये सन्देश दूर तक भेजोक्योंकि भारत को महान बनाना है। " ये एस एम एस बड़ी संख्या में भेजे जा रहे हैं आगे से आगे, बहुत दूर तकब्लॉग हो या फेसबुकअन्ना के समर्थन में भरे पड़ें हैंहर कोई अन्ना की ही बात कर रहा हैकोई उनसे मिला नहीं लेकिन उनके साथ हैंकिसी को कोई व्यक्तिगत फायदा होने वाला नहीं ,परन्तु अनेकानेक जागरूक जेब से पैसा खर्च कर अभियान के साथ जुड़े हुए हैंइनको अन्ना हजारे या उनके किसी सहयोगी ने ऐसा करने को नहीं कहाइन पर किसी का किसी किस्म के दवाब का भी सवाल नहीं हैफिर भी लागे हैं देश को करप्शन से मुक्त करवाने के अभियान में अन्ना हजारे के साथक्रिकेट की बात पुरानी हो गईअब हर न्यूज़ चैनल पर अन्ना हजारे उनका आन्दोलन हैमहात्मा गाँधी के अनशन के बारे में केवल सुना थासुना कि किस प्रकार गाँधी के अनशन से सरकार हिल जाती थीजन जन गाँधी की भाषा बोलने लगताआज इसको देख लियाकोई फर्क नहींसब कुछ वैसा ही है बस पात्र बदल गएतब देश को विदेशियों से आजाद करवाना थाआज उन अपनों से जो कण कण में करप्शन चाहते हैंइस आजादी के बिना वो आजादी बेकार हो रही है,अधूरी है जिसके लिए गाँधी जी ने अनशन किया थाअगर तब गाँधी जी जरुरी थे तो आज अन्ना हजारे उनसे भी अधिक जरुरी हैंक्योंकि जो पूरा नहीं वह किस काम का
सबको प्यारे अन्ना हजारे। ---- अन्ना हजारे के समर्थन में कल श्रीगंगानगर में धरना दिया जायेगा। समय रहेगा सुबह ११ बजे।

Sunday, April 3, 2011

श्रीगंगानगर-अब ठीक है। बेक़रार दिल को सुकून मिल गया। मन प्रसन्न है। आत्मा ख़ुशी के तराने गा रही है। हिन्दूस्तान क्रिकेट का बादशाह बन गया। सब चिंताएं समाप्त। कोई परेशानी नहीं। देश में क्रांति होगी। कप आ गया अब जो आपके सपने हैं सब पूरे हुए समझो। घोटाले नहीं होंगे। जो हो चुके उनके पैसे सरकारी खजाने में आ जायेंगे। नेता ईमानदार हो जायेंगे। करप्शन इतिहास बन जायेगा। देश में कानून का राज होगा। कानून भी सब के लिए बराबर। जाति,धर्म,अमीर,गरीब देख कर कोई भेद भाव नहीं। मंत्री भी सरकारी कर्मचारी,अफसर की तरह दफ्तरों में बैठेंगे। वे भी तो वेतन लेते हैं। जनता के काम कर्मचारी,अधिकारी,मंत्री अपना काम समझ कर तुरंत करेंगे। अब फैसले नहीं न्याय होगा। पीड़ित को न्याय के लिए इंतजार नहीं करना होगा। वह खुद उसकी चौखट पर आएगा। पुलिस दादागिरी छोड़कर प्रताड़ित का साथ देगी। खुद किसी को तंग परेशान नहीं करेगी। अपराधियों से अपनी मित्रता तोड़ देगी। सज्जन लोगों का साथ करेगी। थानों में सुनवाई होगी। ऊपर की कमाई नहीं होगी। फरियादी को भटकना नहीं पड़ेगा। नेता जनता के प्रति जवाबदेह होंगे। चुनाव में भले आदमी खड़े होंगे। कई भले लोगों में से सबसे भले को चुनना होगा। नगर पालिका से लेकर संसद तक में जनता के लिए काम होगा। हल्ला-गुल्ला,लड़ाई झगडा,मार-पीट, गाली-गलौच बिलकुल बंद। संवेदनशील अफसर फिल्ड में लगेंगे। काम के लिए सिफारिश की जरुरत ख़तम। सरकारी अस्पतालों में इलाज होगा। सभी उपकरण एकदम ठीक काम करके सही रिपोर्ट देंगे। दवाई सस्ती होगी। जेलों में सालों से बंद पड़े बंदियों की सुनवाई होगी। रसोई का सामान सस्ता होगा । भिखारी नहीं रहेंगी। सबको योग्यता के हिसाब से काम मिलेगा। कोई भूखा नहीं सोयेगा। सब के तन पर कपडे होंगे। बेघर के घर अपने होंगे। काला धन सब देश में आ जायेगा। वह देश,जनता की उन्नति के लिए खर्च होगा। हमारा प्रधानमंत्री मजबूर नहीं होगा। अफजल,कसाब को फंसी होगी। जम्मू-कश्मीर सच में हमारा होगा। जैसे बाकी राज्य। टैलेंट की कद्र होगी। आरक्षण नहीं रहेगा। न्यूज चैनलों पर खबर दिखाई जाएगी। कलयुग सतयुग में बदल जायेगा। दूध दही की नदियाँ बहने लगेगी।देश की सभी समस्याओं का अंत तुरंत हो जायेगा। अमेरिका की हुकूमत हिन्दूस्तान पर नहीं चलेगी। दुनिया हमारे इशारे पर चलेगी। क्योंकि हम विश्व विजेता हैं क्रिकेट के। क्या बकवास करते हो? ऐसा कुछ नहीं होने वाला! क्यों? किसने कहा? ना जाने किस किस बात से दुखी, हैरान,परेशान करोड़ों लोग रात भर से ख़ुशी में सराबोर होकर बेवजह थोड़ी नाच रहे हैं। माता पिता के जन्म दिन पर उनको बधाई दी हो या नहीं मगर अब जाने अनजाने सबको मुबारक बाद दे रहे हैं। जब सब खुश हैं। सभी में उमंग है। बधाई दे ले रहे हैं। मिठाइयाँ बाँट रही है। पटाखे चल रहे हैं। सभी छोटे बड़ों के चेहरों पर मुस्कान है। और तुम कह रहो हो कि वर्ल्ड कप जीतने के बावजूद जनता की किसी भी परेशानी, दुःख,तकलीफ पर कोई फर्क नहीं पड़ने वाला। वे सब की सब हमारी नियति है। हमारी तक़दीर है। इनको तो भोगना ही है। हम तो वर्ल्ड कप के बहाने कुछ क्षण के लिए इनको भूलना चाहते हैं इसलिए ख़ुशी दिखाकर अन्दर के दर्द छिपा रहे हैं। सच्चाई सबको पता है।

Thursday, March 31, 2011

श्रीगंगानगर-कमाल है,खेल खेल में भारत एकता के सूत्र में बंध गया। क्रिकेट ने वह कर दिखाया जो राजनेताओं की अपील,धर्मगुरुओं के उपदेश, टीचर्स की क्लास नहीं कर सकी। देश के कण कण से एक ही स्वर सुनाई दे रहा था, हम जीत गए। भारत विजयी हुआ। जाति,धर्म,समाज,पंथ सब गौण हो गए। रह गया तो भारत और उसकी पाक पर विजय का उल्लास। दिन के समय किसी काले पीले तूफान के कारण गहराती शाम का दृश्य तो याद है। लेकिन आधी रात को दिन जैसा मंजर पहली बार देखा। १९८३ में भी हमारी टीम रात को ही वर्ल्ड कप जीती थी। ऐसा कोलाहल तो तब भी नहीं दिखाई,सुनाई दिया। तीन दशक में क्रिकेट बादशाह होकर हम पर राज करने लगा। क्रिकेट खेलों का राजा हो गया। इसके आगे कोई नहीं ठहरता। क्रिकेट जन जन के दिलों में धड़कता है। वह उम्मीद है। जीवन है। जुनून है। कारोबार है। ग्लेमर है। उसकी जीत भारत के अलग अलग कारणों से परेशान जनता को खुश कर देती है चाहे कुछ देर के लिए ही सही। इससे अधिक और कोई खेल किसी को दे भी क्या सकता है। जो क्रिकेट दे रहा है, वह तो तमाम खेल मिल कर भी नहीं दे सकते। इसे क्रिकेट की महानता कहो या जनता का पागलपन,दीवानगी। क्रिकेट ऐसा ही रहेगा। अन्दर तक जोश भर देने वाला। सभी आवश्यक कामों को मैच के बाद तक टाल देने वाला। क्रिकेट मैच की जीत जनता के अन्दर नवजीवन का संचार करती है। हार मायूसी। खिलाडी हार के बाद उतने मायूस नहीं होते जितने लोग। क्रिकेट मैच ने कई घंटे तक सबको एक जगह रुकने के लिए मजबूर कर दिया।सरकार ने मैच देखने के आदेश नहीं दिए थे। कोई टोटका भी नहीं था कि मैच देखने से जीवन में खुशहाली आएगी। इसको देखने से कोई ईनाम भी नहीं मिलना था। इसके बावजूद सब व्यस्त थे। मैच के अंतिम क्षणों में जब भारत की जीत साफ दिखाई दी तो हल्ला गुल्ला शुरू हो गया। जैसे ही पाकिस्तान हारा भारत की जीत का उल्लास घरों के कमरों से लेकर सड़कों पर उतर आया। टीं,पीं,पों ,हुर्रे,हूउ...... के मस्ती भरे कोलाहल ने कई घंटे से पसरे सन्नाटे की गिल्लियां उड़ा दी। जो सड़क,गली सुनसान थी वहां पटाखों के शोर ने विजय के तराने गाए। गलियों में भारत माता की जय का उदघोष करती टोलियाँ घरों की चारदीवारी,बालकोनी में खड़े बच्चों को जोश दिला रही थी। फिर ना तो माता पिता की डांट की परवाह ना सुबह होने वाली परीक्षा की चिंता। सबके स्वर एक हो गए। विजय का उदघोष और तेज होकर वातावरण को आह्लादित करने लगा। कई घंटों से ठहरा हुआ भाव रूपी जल लहरें बन ख़ुशी से नृत्य करने लगा। क्रिकेट की अ,आ,इ ..... नहीं जानने वाला पूरे माहौल को अचरज से देख रहा था। उसके चेहरे पर ख़ुशी थी। ख़ुशी इस बात की कि वह जानता है कि यह भारत में ही संभव है जहाँ खेल खेल में अनेकता को एकता में बदला जा सकता है। क्रिकेट तो एक बहाना है। असल में यह हमारे संस्कार है। हमारी संस्कृति है। जिस पर युगों युगों से हमें गर्व है और हमेशा रहेगा।

Tuesday, March 22, 2011

ग़ज़लों का म्यूजिक ऑडियो सीडी रिलीज़ हुआ ...

हाल ही में मेरी ग़ज़लों का एल्बम ' ग़ज़ल्स फॉर लवर्स ' रिलीज़ हुआ है इस एल्बम में आठ ग़ज़लें हैं कलाकारों का परिचय इस प्रकार है - संगीतकार - प्रमोद कुमार कुशगायक - प्रमोद कुमार कुश , नेहा राजपाल एवं अरविंदर सिंहगीतकार - प्रमोद कुमार कुश एवं डॉ ऋषिपाल धीमानएल्बम पूरे देश में सभी लीडिंग स्टोर्स में उपलब्ध है... कृपया नीचे लिंक पर देखें - http://www.rhythmhouse.in/Detail.aspx?productListing=98230

Tuesday, March 8, 2011

कैसे मान लूँ ?

कैसे मान लूँ
कि हमारे बीच
कुछ हुआ न था ।

कैसे जान लूँ
कि तब जो हुआ
वह हुआ न था ।

मेरा तुम्हारा मिलना
दिलों का जुडना
हुआ न था ।

बिछडते हुए
जल्द लौटने का वादा
तुमने किया न था ।

आज एयरपोर्ट पर
पत्नी और बच्चे के साथ
तुम्हारा मिलना

यही आज का सच है
तो कल कुछ भी
हुआ न था ।

Saturday, March 5, 2011

अन्दर से डर जाता हूँ देख भला इन्सान , अपना सा लगने लगा जो बैरी था शैतान। ---- यही सोच कर सबके सब होते हैं परेशान, भ्रष्टाचार का कोई किस्सा अब करता नहीं हैरान। ---- गली गली में बिक रहा राजा का ईमान , सारी उम्मीदें टूट गईं राज करें बेईमान।

Thursday, March 3, 2011

युवा दखल: कविता समय की फ़ौरी रपट

कविता समय -2011 की रिपोर्ट
‘कविता समय’ 2011 से आयोजना की जिस शृंखला की शुरुआत हुई, उसे आमतौर पर भागीदारी कर रहे मित्रों ने ऐतिहासिक कहा, हांलाकि अशोक वाजपेयी ने हिन्दी में अधीरतापूर्वक ऐतिहासिकता लाद दिये जाने की प्रवृति से इसे जोड़ा लेकिन इस रूप में तो यह उन्हें भी ऐतिहासिक लगा कि लंबे समय बाद इतने कवि सहभागिता के आधार पर साथ बैठकर ‘कविता के संकटों’ पर बात कर रहे हैं। मदन कश्यप ने सार्वजनिक और व्यक्तिगत दोनों ही तौर पर ही कहा कि यह कार्यक्रम इसलिये भी ऐतिहासिक था कि पिछले बीसेक सालों से एक ऐसा माहौल बना है कि लेखक अपने ख़र्च पर किसी जगह जाने से बचते हैं…साथ ही इससे आगे यह कि लोग इस तरह से बुलाने से भी बचते हैं, इसका असर यह हुआ है कि हिन्दी का सारा विमर्श संस्थानों और अकादमिकता के उत्सवधर्मी आयोजनों में सिमट गया है लेकिन कविता समय ने इसे तोड़ा और इतने सारे कवि-आलोचक अपनी मर्ज़ी से यहां न सिर्फ़ आये बल्कि बिल्कुल आत्मीय माहौल में अपनी चिंतायें साझा कर रहे हैं। ऐतिहासिकता के किसी दावे से अलग हम इस आत्मीयता और साझेपन से अभिभूत हैं।
हड़बड़िये और अनुभवहीन स्थानीय आयोजक के चलते कार्यक्रम 12 बजे की जगह एक बजे शुरु हो पाया। पहला सत्र था ‘कविता और यूटोपिया’ जिसमें पैनल सदस्य थे बोधिसत्व, आशुतोष कुमार, मदन कश्यप, नरेश सक्सेना और अशोक वाजपेयी। नामवर सिंह अपनी अस्वस्थता के कारण नहीं आ पाये थे और उनके रेकार्डेड संदेश को शाम के सत्र में ही सुना जा सका। बोधिसत्व ने संयोजन समिति की तरफ़ से कविता के आरोप पत्र का पाठ करते हुए समकालीन कविता पर लगाये जाने वाले लगभग 30 आरोपों और दिये जाने वाले 10 सुझावों को सामने रखा और पूछा कि इन्हें आँख मूँद कर मान लेना चाहिये या फिर इनकी पड़ताल होनी चाहिये। मदन कश्यप ने अपनी बात रखते हुए कहा कि आज जब किसानों से ज़मीन, आदिवासियों से जंगल और नौजवान से रोज़गार छीना जा रहा है तो कविता का यूटोपिया समानता आधारित समाज की स्थापना ही हो सकता है। आशुतोष कुमार ने अपने लंबे लेकिन सुगठित वक्तव्य में कविता की जनपक्षधर होने की ज़रूरत को दृढ़ता से सामने रखा। नरेश सक्सेना जी ने अपने चुटीले अंदाज़ में समकालीन कविता के संकटों पर तमाम बातें रखीं। मंचों से अच्छी कविता के पलायन, प्रकाशकों की बदमाशियों से लेकर कवियों की समस्याओं और कमियों पर उन्होंने विस्तार से बात की। संचालक गिरिराज यूटोपिया की याद बार-बार दिलाते रहे लेकिन वक्ता संकट पर ही केन्द्रित रहे। अंत में अशोक वाजपेयी ने वही कहा जिसे वह वर्षों से कहते आ रहे हैं। कलावाद की प्रतिष्ठा स्थापित करते हुए उन्होंने सभी मोर्चों से प्रतिबद्धता पर हमला बोला। दोनों में अंतर बताते हुए उनका कहना था कि ‘हम जानते हैं कि कविता दुनिया नहीं बदल सकती, लेकिन फिर भी ऐसे लिखते हैं कि मानो दुनिया बदल जायेगी, जबकि प्रतिबद्ध लोग इस तरह लिखते हुए विश्वास करते हैं कि दुनिया बदल सकती है।’ अशोक जी के वक्तव्य से माहौल गरमा चुका था, तमाम युवा कवि सवाल पूछने को व्यग्र थे लेकिन साढ़े तीन बज चुके थे और लंच को और टाला नहीं जा सका।
लंच के बाद साढ़े पाँच बजे अलंकरण, विमोचन और कविता पाठ का सत्र शुरु हुआ। नामवर जी का रेकार्डेड संदेश सुनवाया गया जिसमें उन्होंने स्वास्थ्य कारणों से न आ पाने का खेद व्यक्त किया था और कवियों को सलाह दी थी कि वे दूसरी विधाओं में भी लिखें। पूर्व घोषित सूचना के अनुसार चंद्रकांत देवताले जी को उनकी अनुपस्थिति में ‘कविता समय सम्मान-2011’ और कुमार अनुपम को ‘कविता समय सम्मान-2011’ दिया गया। देवताले जी ने अपने संदेश में कविता समय की टीम को शुभकामनायें भेजीं थीं और इस सम्मान को ‘युवाओं द्वाया अपने वडील को दिया गया स्नेह’ कहते हुए इसकी तुलना ‘पहल सम्मान’ से की। उन्होंने भी संक्षेप में कविता के संकट को जीवन के संकट से जोड़ते हुए प्रतिबद्धता से जनता के पक्ष में खड़े रहने की अपील की। अनुपम ने पूरे संकोच से दिये गये अपने वक्तव्य में ‘कविता समय’ के प्रति आभार व्यक्त किया। इसी क्रम में प्रतिलिपि प्रकाशन द्वारा 20 हिन्दी कवियों की कविताओं के अंग्रेज़ी अनुवाद के संकलन ‘होम फ़्राम ए डिस्टेंस’ का विमोचन भी हुआ।
इसके बाद कविता पाठ का सत्र था जिसमें अशोक वाजपेयी, नरेश सक्सेना, मदन कश्यप, ज्योति चावला, प्रतिभा कटियार, पंकज चतुर्वेदी, प्रियदर्शन मालवीय, केशव तिवारी, अरुण शीतांश, निरंजन श्रोत्रिय, कुमार अनुपम, प्रांजल धर, विशाल श्रीवास्तव, रविकांत, सुमन केशरी सहित अनेक कवियों ने काव्यपाठ किया। संचालन अशोक कुमार पाण्डेय ने किया।
जो कुछ बच गया था वह डिनर के वक़्त हुआ। ख़ूब आत्मीय और अनौपचारिक बहस…अगले दिन के लिये माहौल तैयार था…
अगले दिन की शुरुआत समय से बस आधे घंटे देर से हुई। कार्यक्रम के आरंभ में अशोक कुमार पांडेय के सद्य प्रकाशित कविता संकलन ‘लगभग अनामंत्रित’ का विमोचन मदन कश्यप, सुमन केशरी, बोधिसत्व और तुषार धवल ने किया।
पहले सत्र का विषय था – ‘कविता का संकट: कविता, विचार और अस्मिता’। बहस की शुरुआत करते हुए सुमन केशरी ने कविता की पहुंच, उसके वैचारिक कंटेट और उसके संकटों पर तमाम सवाल खड़े किये। उनका कहना था कि कविता में वैचारिक अति हो गयी है। उसे मध्यमार्ग पर चलना होगा। जितेन्द्र श्रीवास्तव ने बिंदुवार चर्चा करते हुए कविता से संप्रेषणीयता, विविधता का अभाव और लय के पलायन का सवाल उठाया। उन्होंने कहा कि जब तक कविता संप्रेषणीय नहीं होगी तब तक उसका पाठक तक पहुंचना मुश्किल होगा। बहस में हस्तक्षेप करते हुए ज्योति चावला ने कुछ विचारोत्तेजक सवाल उठाये। उनका कहना था कि अस्मिता के साहित्य पर आरोप लगाने वालों को यह सोचना चाहिये कि ऐसा क्या है कि साहित्य अकादमी से लेकर भारत भूषण पुरस्कार की सूची से महिलायें, दलित और मुसलमान ग़ायब हैं? उन्होंने आयोजकों को भी कटघरे में खड़ा करते हुए सवाल किया कि यहां इन वर्गों का प्रतिनिधित्व कम क्यूं है? उनका कहना था कि अस्मितावादी लेखकों पर केवल अपनी समस्याओं पर लिखने का आरोप तब तक बेमानी है जब तक दूसरे लोग उन पर नहीं लिखते। माहौल गर्मा चुका था…लोग प्रतिप्रश्न कर रहे थे, टिप्पणियाँ दे रहे थे लेकिन संचालक गिरिराज ने स्थितियों को संभालते हुए सवालों को बाद के लिये सुरक्षित कर लिया। नलिन रंजन सिंह ने अपने लिखित परचे में कविता के संकट को आज के वैचारिक संकट से जोड़ा। उनका मानना था कि आज की कविता में विविधता या संप्रेषणीयता कि इतनी भयावह कमी भी नहीं है। उन्होंने कहा कि आज हिन्दी में बहुत अच्छी कवितायें लिखी जा रही हैं लेकिन वे पाठक तक नहीं पहुंच पा रही हैं। इसके कारण कविता के बाहर भी ढ़ूंढ़ने होंगे। प्रियदर्शन मालवीय ने विजयदेव नारायण साही को कोट करते हुए साहित्य में वैचारिक खेमेबंदी की और इशारा किया। बोधिसत्व ने कबीर का दोहा उद्धृत करते हुए कहा कि साहित्य और राजनीति का मध्य मार्ग अलग-अलग होता है। पंकज चतुर्वेदी ने भी कुछ विचारोत्तेजक सवाल उठाते हुए वैचारिक प्रतिबद्धता पर ज़ोर दिया। उन्होंने कविता की सम्यक आलोचना के अभाव को रेखांकित करते हुए कहा कि कविता समय इस स्पेस को भर सकता है। सत्र के अंतिम वक्ता मदन कश्यप अशोक वाजपेयी के सवालों से रु ब रु हुए और नुक़्ता ब नुक़्ता कलावाद के तर्कों की धज्जियां उड़ाते हुए उन्होंने कहा कि कविता बंदूक नहीं चलाती, हड़ताल भी नहीं करती लेकिन वह वैचारिक लीद की सफ़ाई ज़रूर करती है। वह लोगों का अपने समय के सच से साक्षात्कार कराती है। जनपक्षधर कविता ने यह काम बख़ूबी किया है। चूंकि वह पूंजीवाद के ख़िलाफ़ खड़ी है, सांप्रदायिकता और व्यक्तिवाद पर हमला बोलती है इसलिये इनकी पैरोकार सरकारें तथा मीडिया इसे दबाने का भरपूर प्रयास करती हैं। अस्मिता के सवाल पर उन्होंने कहा कि हमें स्वीकारना होगा कि दलित, स्त्री और अल्पसंख्यक प्रश्न को हमने वह तवज्जो नहीं दिया जो देना चाहिये था, लेकिन ऐसा भी नहीं कि ये वर्ग मुख्यधारा के साहित्य से बहिष्कृत रहे। गुजरात और अयोध्या के दौरान लिखी गयी कविताओं का ज़िक्र करते हुए उन्होंने कहा कि दरअसल उत्तर आधुनिकता की लहर में अस्मिता के सवाल को बड़ी लड़ाई स्थगित रखने के लिये उठाया जा रहा है। इसके बाद ख़ुले सवाल जवाब हुए जिसमें तमाम सारी बातें सामने आईं।
लंच के बाद एक बार फिर कविता पाठ का सत्र था जिसमें बोधिसत्व, जितेन्द्र श्रीवास्तव, तुषार धवल, उमाशंकर चौधरी सहित बीसेक कवियों ने कविता पाठ किया। इसके बाद आगामी योजनाओं का सत्र था। यह तय किया गया कि इस आयोजन को हर साल किया जाये। वक्ताओं का कहना था कि अब कवियों को ख़ुद आगे आना होगा। कविता समय में जिन मुद्दों पर चर्चा हुई है उन्हें प्रिण्ट तथा नेट दोनों माध्यमों से जनता के बीच ले जाना होगा। पंकज चतुर्वेदी, नलिन रंजन सिंह तथा विशाल श्रीवास्तव का कहना था कि कविता पाठ की जगह बहस को अधिक समय दिया जाये। यह तय किया गया कि कविता समय आगामी पुस्तक मेले के पहले कुछ प्रकाशन लेकर आयेगा। इसे सहभागिता आधारित कार्यक्रम बनाये रखने पर भी ज़ोर दिया गया और इस निर्णय का स्वागत किया गया कि किसी व्यक्ति से दस हज़ार और संस्था से 20 हज़ार से अधिक का सहयोग नहीं लिया जायेगा। संयोजन समिति की ओरे से गिरिराज किराडू ने अगले कुछ दिनों में अपनी प्रकाशन योजनायें तय कर जनता के सामने प्रस्तुत करने का वादा किया।

Sunday, February 27, 2011

सौ अफसाने ,सौ बहाने

बेशक, शहर की चर्चाओं में तेरे-मेरे सौ अफसाने हैं, पर मिलने के भी तो मेरी जां सौ बहाने हैं

Friday, February 18, 2011

--- चुटकी---

मजबूर नहीं मजबूत प्रधानमंत्री लाओ, अरे! कोई तो ये बात सोनिया को समझाओ।

Thursday, February 17, 2011

आप नहीं हम मजबूर हैं

श्रीगंगानगर- "पापा इतने बिजी होते हैं कि हमें उनसे मिलने के लिए सुबह छः बजे उनके पास पहुंचना पड़ता है। उसके बाद उनसे दिन भर मुलाकात नहीं हो सकती।" यह बात देश के मजबूर प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की बेटी दमन सिंह ने जयपुर में एक पत्रकार से कही थी। ये बात यहाँ लिखना इसलिए जरुरी हो गया कि मीडिया प्रधानमंत्री की मज़बूरी को प्रेस कांफ्रेंस बता रहा है। जबकि ऐसा है नहीं। वह तो तरस खाकर प्रधानमंत्री ने संपादकों को ओब्लाइज कर दिया अपने साथ बैठाकर। वरना उनके पास समय ही कहाँ है देश की बात सुनने का। मनमोहन सिंह ने तो दिल खोलकर कह दिया कि मैं मजबूर हूँ। उन्होंने सौ मजबूरियां गिना दी। संपादक तो यह भी नहीं कह सके। ऐसे मजबूर प्रधानमंत्री के साथ बात करने की उनकी पता नहीं क्या मज़बूरी थी। संसार के सबसे शानदार,दमदार,जानदार लोकतंत्र के लिए विख्यात भारत के प्रधानमंत्री बार बार ये कहे कि वो मजबूर हैं, मजबूर हैं। इस से ज्यादा बड़ी बात और क्या हो सकती है। ये तो सब जानते और समझते हैं कि जब समाज में कोई बार बार ये कहता है कि मैं मजबूर हूँ तो हर कोई आपको यही कहता सुनाई देगा--चलो छोड़ो यार बेचारा मजबूर है। देश का आम आदमी तो आज मजबूर है किन्तु ताकतवर देश का प्रधानमंत्री ये कहे कि वो मजबूर है तो फिर कोई क्या कर सकता है। दिमाग तय नहीं कर पा रहा कि मजबूर प्रधानमंत्री की इस मज़बूरी पर हँसे,रोए,अफ़सोस करे या ईश्वर से उनकी मज़बूरी दूर करने की प्रार्थना करे। देश इस बात पर विचार तो करे कि प्रधानमंत्री की क्या मज़बूरी हो सकती है। जिस देश का प्रधानमंत्री ही मजबूर है तो उस देश का क्या होगा? कौन उसकी बात को मानेगा,सम्मान करेगा,गंभीरता से लेगा। मजबूर प्रधानमंत्री से बारी बारी से एक सवाल पूछ कर या अपना परिचय दे कर देश के मीडिया का प्रतिनिधित्व करने वाले टी वी चैनलों के संपादकों/मालिक को कुछ कहना सूरज को दीपक दिखाना है। कैसी विडम्बना है कि प्रधानमंत्री अपने आप को मजबूर बता कर एक समान रहम की भीख मांग रहा है। "हे! संपादकों मेरी मज़बूरी समझो। मेरा साथ दो। मैंने मक्खन नहीं खाया। मैं तो मजबूर हूँ मक्खन खा ही नहीं सकता। कोई खा रहा है तो उसको रोक नहीं सकता। क्योंकि मैं मजबूर हूँ। चूँकि मैं मजबूर हूँ इसलिए दया,रहम को हकदार हूँ।" मनमोहन सिंह जी आप तो क्या मजबूर हैं , मजबूर तो हम हैं जो आपको ढो रहे हैं। देश की इस से बड़ी मज़बूरी क्या होगी कि वह सब कुछ जानता है इसके बावजूद कुछ नहीं कर पा रहा। एक लाइन में यह कि हमारा दुर्भाग्य तो देखो कि हमारा प्रधानमंत्री खुद अपने आप को मजबूर बता रहा है। जिस देश का प्रधानमंत्री मजबूर हो उस देश की जनता की मज़बूरी का कोई क्या अंदाजा लगा सकता है। मजबूर के शब्द हैं-अब तुम ही कहो क्या तुमसे कहें, वो सहते हैं जो सह नहीं सकते।

Sunday, February 13, 2011

--- चुटकी--- मंदिर हमने बना दिए शर्द्धालुओं की लगी कतार , खाली झोली लौट गए सब मंदिर हुए व्यापार

Thursday, February 10, 2011

सच्चाई की जीत होती है। सच से बड़ा कोई नहीं। सच कभी नहीं हारता। सदा सच ही बोलो। ये वाक्य मास्टरों से लेकर घर के बड़ों से सुनते आये हैं। सद्पुरुष भी यही कहते हैं। शास्त्रों, ग्रन्थों में भी ऐसा ही लिखा हुआ है। अगर किसी ने इस सच्चाई का सामना ना किया हो तो वह चुटकियों में रूबरू हो सकता है। अशोक स्तम्भ! कौन नहीं जानता! सरकार का राज चिन्ह। संवैधानिक पदों का प्रतीक। इसके नीचे लिखा हुआ है, सत्य मेव जयते! ये हमने या आपने नहीं लिखा। सरकार ने लिखा। आज तक लिखा रहता है। भारतीय नोटों पर भी यही अंकित है। परन्तु व्यवहार में सबकुछ इसके विपरीत है। दो और दो को चार कहना अपने आप को संकट में डालना है। आप से सब कुछ नहीं तो बहुत कुछ छीना जा सकता है। यही तो हो रहा है आमीन खां के साथ। कांग्रेस कल्चर को सहज भाषा में बताना,कार्यकर्ताओं को समझाना उनके लिए परेशानी का सबब बन गया। उन्होंने उदाहरण देकर अपनी बात में वजन डाला। यही वजन अब उनसे, उनके आकाओं से सहन नहीं होगा। सरकार आजादी के बाद से जिस सत्य मेव जयते का ढिंढोरा पीट रही है वही सत्य आमीन खां के लिए चिंता का कारण बन गया। जिस सत्य को संवैधानिक पद के लिए अशोभनीय टिप्पणी बताया जा रहा है उसी संवैधानिक पद के प्रतीक अशोक स्तम्भ के नीचे हमेशा से लिखा हुआ है -सत्य मेव जयते। तो क्या यह गलत लिखा हुआ है। संवैधानिक पद सत्य मेव जयते से भी बड़ा हो गया! या इस पद पर विराजमान इन्सान के पास सत्य का सामना करने की ताकत नहीं। मुख्य सतर्कता आयुक्त भी तो संवैधानिक पद है। श्री थामस कौनसी संवैधानिकता का निर्वहन कर रहे हैं? आमीन खां का बयान सत्य है तो उनको सजा क्यों मिले! पद से वो लोग हटें जिन्होंने चरण चाटुकारिता के जरिये पद प्राप्त किये हैं। इसमें भी कोई दो राय नहीं कि सच की अपनी गरिमा होती है। सच कहाँ,किसके सामने,किसके लिए,किस बारे में,कब कहना है, यह बहुत ही महत्वपूर्ण होताहै। कोई सच चारदीवारी में ही सबको अच्छा लगता है। यही सच बाहर आते ही अफसाना बनते देर नहीं लगाता। यही हुआ आमीन खां के साथ। किसने किस की रसोई में काम किया और किसने लड़की शादी में झूठे बर्तन साफ़ किये। ये सब आपसी सम्बन्धों पर निर्भर करता इन रिश्तों को महसूस किया जाता है,उजागर नहीं। क्योंकि इसको सब जानते ही होतेहैं। सहज भाषा में आमीन खां ने एक सच कहा और आज वह उनके लिए भारी पड़ गया। उनको पता होता कि मेरे साथ ऐसा होगा तो वे कभी इस बारे में कुछ नहीं कहते। वैसे आजकल सच बोलने वाले हैं ही कितने! सच सुनने वालों की संख्या भी ऐसी ही होगी। हकीकत तो ये कि सच सुनने की हिम्मत नहीं रही इसलिए बोलने वाले भी नहीं रहे। कभी किसी की जुबां से गलती से सच निकल भी जाये तो उसको निगलना मुश्किल हो जाता है। यही हुआ आमीन खां के साथ और यही हो रहा है उसके बाद। पंजाबी में किसी ने कहा है --इन्ना सच ना बोलीं कि कल्ला रह जावें, चार बन्दे छड्ड देंवी मोड्डा देण लई।

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