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Monday, August 31, 2009

लो क सं घ र्ष !: जीवन है केवल छाया

जीवन सरिता का पानी , लहरों की आँख मिचौनी मेघों का मतवालापन , बरखा की मौन कहानी गल बाहीं डाले कलियाँ, है लता कुंज में हँसती चलना,जलना , जीवन है आहात स्वर में हँस कहती संसार समर में कोई, अपना ही है पराया सम्बन्ध ज्योति के छल में, जीवन है केवल छाया डॉक्टर यशवीर सिंह चंदेल 'राही'

ऐसा भी होता है

प्रेस कॉन्फ्रेंस में एक महिला पत्रकार के बैग में से सामान गायब हो गया। दो पत्रकारों ने एक दम्पती के बेडरूम की विडियो तैयार कर उसकी ख़बर बना टीवी पर चला दी। अब तीसरी बात हम बतातें हैं। श्रीगंगानगर के अनूप गढ़ कस्बे में एक पत्रकार के कारण हंगामा मच गया है। इस पत्रकार ने चिकित्सा विभाग को शिकायत की कि एक डॉक्टर ने लैब संचालक से मिलकर छः बच्चों को एच आई वी वाला रक्त चढा दिया। शिकायत ही ऐसी थी, हंगामा मचना था। मगर तुंरत हुई जाँच में पता लगा कि किसी को ना तो एच आई वी वाला रक्त चढाया गया ना किसी एच आई वी बीमारी वाले आदमी ने रक्त दिया। जाँच से पहले ही न्यूज़ चैनल वालों ने इसको लपक लिया। पता नहीं किस किस हैडिंग से ख़बर को चलाया गया। हमने चिकित्सा विभाग से जुड़े अधिकारियों से बात की। सभी ने कहा कि एच आई वी रक्त चढाने वाला मामला है ही नही। लेकिन अब क्या हो सकता था। पत्रकार अपना काम कर चुका था। टी वी न्यूज़ चैनल जबरदस्त तरीके से ख़बर दिखा और बता रहे थे। पुलिस ने लैब संचालक को हिरासत में ले लिया। डॉक्टर फरार हो गया। और वह करता भी क्या। जिस कस्बे की यह घटना है वहां ब्लड बैंक नहीं है। बतातें हैं कि जिस पत्रकार ने यह शिकायत की,उसके पीछे कुछ नेता भी हैं। मामला कुछ और है और इसको बना कुछ और दिया गया है। अब डॉक्टर के पक्ष में कस्बे के लोगों ने आवाज बुलंद की है। करते रहो, बेचारा डॉक्टर तो कहीं का नहीं रहा। चलो, जो कागज चला है उसका पेट तो भरना ही होगा। मगर अब यह बहस तो होनी ही चाहिए कि किसी मरीज की जान बचाने के लिए उस वक्त मौके पर डॉक्टर को क्या करना चाहिए थे और उसने वह किया या नहीं। अगर उसने वह नहीं किया जो करना चाहिए था तो वह कसूरवार है। अगर किया तो फ़िर किस जुल्म की सजा। अगर डॉक्टर मरते मरीज को खून नहीं चढाता तो हल्ला मचता। रोगी के परिजन उसका हॉस्पिटल तोड़ देते। डॉक्टर अपनी जान बचाने के लिए रोगी को बड़े शहर के लिए रेफर कर देता तब भी ऐसा ही होना था। क्योंकि तब तक देर हो चुकी होती। डॉक्टर के लिए तो इधर कुआ उधार खाई होती। यहाँ बात किसी का पक्ष करने की नहीं। न्याय की है। न्याय भी किसी एक को नहीं,सभी पक्षों को। एक सवाल यहाँ आप सभी से पूछना पड़ रहा है। सवाल--एक मौके पर ऐसा हुआ कि पचास व्यक्तियों की जान बचाने के लिए एक आदमी को मरना/या मारना पड़ रहा था। आप बताओ, अब कोई क्या करेगा? जवाब का इंतजार रहेगा।

Sunday, August 30, 2009

लो क सं घ र्ष !: यूं नियति नटी नर्तित हो....

यूं नियति नटी नर्तित हो, श्रंखला तोड़ जाती है सम्बन्धों की मृदु छाया , आभास करा जाती है ईश्वरता और अमरता , कुछ माया की सुन्दरता शिव सत्य स्वयं बन जाए, जीवन की गुण ग्राहकता जग में पलकों का खुलना, फिर सपनो की परछाई आसक्त-व्यथा का क्रंदन, कहता जीवन पहुनाई -डॉक्टर यशवीर सिंह चंदेल 'राही'

Saturday, August 29, 2009

एनसीसी कैडेट्स या वेटर

श्रीगंगानगर में आज हुए एक प्रोग्राम में एनसीसी कैडेट्स की वेटर के रूप में सेवा ली गई। इन कैडेट्स से चाय और कोल्ड ड्रिंक बंटवाया गया। जबरदस्त गर्मी में पसीने से लात पथ ये कैडेट्स वेटर की भांति प्रोग्राम में आए लोगों को चाय ठंडा बांटते रहे। किसी ने भी इनको इस काम से नहीं रोका। मेरे अपनी राय में एनसीसी कैडेट्स का काम कम से कम चाय ठंडा सर्व करना तो नहीं हो सकता। अगर इस प्रकार के संगठन से जुड़े युवकों से यह काम करवाया जाएगा तो आ गई उनमे देश प्रेम की भावना। ठीक है भारत में सेवा करने से मेवा मिलती है। किंतु सेवा किस की करने से मेवा मिलती है यह भी तो सोचना और देखना है।

लो क सं घ र्ष !: साम्राज्यवाद विरोधी संघर्ष की मुश्किलें

'छोड़ दो समर जब तक न सिध्दि हो रघुनन्दन'-ये पंक्तियाँ सूर्यकांत त्रिपाठी निराला की मशहूर कालजयी कविता 'राम की शक्तिपूजा' की हैं। कृतिवास रामायण की रामकथा से प्रेरित यह कविता तत्कालीन उपनिवेशवादी पूँजीवाद की अन्यायपूर्ण शक्तिमत्ता के संदर्भ को धरण करने वाली है। उपनिवेशवादी सत्ता-प्रतिष्ठान इस कदर शक्तिशाली था कि आजादी के संघर्ष की जीत होना कई बार असंभव लगने लगता है। 'अन्याय जिधर है उधर शक्ति' कहते हुए 'शक्तिपूजा' के राम की ऑंखों में ऑंसू आ जाते हैं। वे ऐसे युध्द को चलाने में अपनी असमर्थता जाहिर करते हैं जिसमें हार पर हार होती जाती है। हालांकि रावण की पराजय के बाद राज्य पाने का अभिलाषी विभीषण्ा राम को युध्द के लिए उत्तेजित करने की भरपूर कोशिश करता है। उन्हें उनका किया वादा याद दिलाता है और रावण द्वारा सीता को दुख पहुँचाने की बात कर राम के मर्म पर चोट करता है, लेकिन राम पर विभीषण का असर नहीं होता। वे सविनय कहते हैं-'मित्रवर विजय होगी न समर'। निराला के राम के लिए जीत का अर्थ सीता को मुक्त कराके विभीषण को राज दे देना भर नहीं है। वे शक्ति के उस खेल को बदलना चाहते हैं जो अधर्मरत रावण को अपनी गोद में लिए हुए तबाही मचा रही है।

राम की इस मौलिक चिंता को जामवंत समझते हैं और उन्हें शक्ति की मौलिक कल्पना और आराधना करने का परामर्श देते हैं, और जब तक शक्ति की सिध्दि न हो जाए, तब तक समर छोड़ देने को कहते हैं। राम जामवंत के सुझाव को मानते हैं और देवी के रूप में देश आराधना करते हैं। भारत का पूरा नक्शा खिंच जाता है। देवी उनकी परीक्षा के लिए पूजा का अंतिम कमल साधना-स्थल से उठा ले जाती है। राम एक बार फिर निरर्थकता बोध से भर उठते हैं। लेकिन कभी न थकने वाला राम का जो 'एक और मन' है, उसे याद आता है कि माता उन्हें हमेशा कमलनयन कहती थीं। नेत्रों के रूप में उनके पास दो नीलकमल शेष हैं। उनमें से एक कमल देवी यानी देश की पूजा में चढ़ा कर वे यज्ञ पूरा करने का संकल्प करते हैं। वे महाफलक हाथ में लेकर ऑंख निकालने के लिए उद्यत होते हैं तो भगवती आकर उनका हाथ पकड़ लेती हैं। राम को विजय का आशीर्वाद देकर उनके बदन में लीन हो जाती हैं।

हम यह जानते हैं कि यह एक फैंटेसी है। इसका दलित-पाठ तो भला क्यों होगा, ब्राह्मण-पाठ इस अर्थ में होता रहा है कि 'शक्तिपूजा' निराला के निजी जीवन के संघर्षों और उसमें खाई चोटों की गाथा। है। यह संकुचित ही नहीं, गलत अर्थ है और उस प्रवृत्ति को दर्शाता है जिसके तहत अगर कोई ब्राह्मण लेखक व्यवस्था से किंचित प्रताड़ित होता है तो माक्र्सवादी ब्राह्मण प्रताड़ना को ही उसकी महत्ता का आधार बना देते हैं। इससे नुकसान यह होता है सम्बध्द लेखक के साहित्य की महत्ता दब जाती है। यानी उसमें जो युग सत्य अभिव्यक्ति पाता है, उसकी उपेक्षा हो जाती है। निराला और हजारी प्रसाद द्विवेदी इस प्रवृत्ति के ज्यादा शिकार बने हैं। बहरहाल, 'शक्तिपूजा' उपनिवेशवादी सत्ता- प्रतिष्ठान और उसे चलाने वाली शक्ति का विकल्प अर्जित करने की क्रांतिकारी चेतना से बनी कविता है। केवल रावण को हरा देना और उसका उत्सव मनाते रहना पर्याप्त नहीं है। रावण की शक्ति को राम के हक में करना होगा। तब रावण रावण नहीं रह जाएगा। वह भयानक युध्द भी आगे नहीं होगा जिसका वर्णन कविता के शुरू में आया है। निराला ने आगे का युध्द दिखाया भी नहीं है। 'होगी जय होगी जय' के घोष और 'पुरुषोत्तम नवीन' के वदन में शक्ति के लीन होने के साथ कविता समाप्त हो जाती है। कोई उत्तेजना अथवा उन्मत्तता का माहौल नहीं रहता है। यह जय मनुष्यता की जय है।

क्या यह राम-राज्य की जय है? हमारे दलित साथी और सोनिया के सेकुलर सिपाही भड़कें नहीं। हम 'शक्तिपूजा' के राम और उसमें जो राम-राज्य का संदेश हो सकता है, अगर हो सकता है, उसकी बात कर रहे हैं। 'शक्तिपूजा' के राम भालू-बंदरों से घिरे हैं। उनका चौदह वर्ष वन में काटना यहाँ विशेष अर्थ प्राप्त कर लेता है। भल्लनाथ जामवंत उन्हें उपाय सुझाते हैं। उस उपाय की पालना में राम ऑंख तक निकाल कर देने को तैयार हो जाते हैं। राम का जो 'एक और मन' है वह अपनी माँ से प्रेरित होता है। विवशता के चरम क्षण में वह सीता का स्मरण करता है। देश की देवी के रूप में पूजा करता है। शक्तियों और सभ्यताओं की टकराहट के दौर में मातृ-शक्ति पर आधरित मातृ-सभ्यता का यह प्रस्ताव क्या उचित नहीं है? और, संप्रदायवादियों ने राम का जो रूप बिगाड़ कर रख दिया है, उसका यह जवाब नहीं है?

'शक्तिपूजा' की चर्चा को यहाँ और आगे नहीं बढ़ाएंगे। हमने उसका हवाला इसलिए लिया है कि 'अन्याय जिधर है उधर शक्ति' जैसी स्थिति फिर से उपस्थित है। 'शक्तिपूजा' की रचना के बाद आई आजादी की सुबह कभी की तिरोहित हो चुकी है। साम्राज्यवाद का अमेरिकी संस्करण और ज्यादा अन्यायपूर्ण और आततायी है। उसका प्रतिरोध करने वाले व्यक्ति और समूह ऐसे में क्या करें? शक्ति साम्राज्य के मोह में जो गिरफ्तार है उसे कैसे बाहर निकालें? शक्ति की मौलिक कल्पना कैसे करें?

आइए आज की स्थिति पर नजर डालते हैं। इक्कीसवीं शताब्दी का पहला दशक अब समाप्ति की ओर है। हम सभी जानते हैं भारत के साहब समाज, नेताओं और वैश्वीकरण के समर्थक बुध्दिजीवियों ने किस धूम-धड़ाके के साथ इक्कीसवीं सदी की दहलीज पर कदम रखा था। गोया आजादी से पूर्व और आजादी के बाद खड़ी की गई समस्त बाधाओं को पिछले दस वर्षों में पार करके आखिर वे स्वर्ग के द्वार पर पहुँच गए हैं। नव उदारवादी आर्थिक नीतियों में घटित हो कर रह जाने वाली भारतीय राजनीति के घोषणा पत्र पर यह निर्णय दर्ज कर दिया गया कि 'गरीब नर्क हैं, उनसे छुटकारा पाना ही होगा'। हमारे कुछ साथी कई लाख आत्महत्याओं के बाद किसानों को दिए जाने वाले 'पैकेज' और राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी कानून जैसी 'उपलब्धियों' का हवाला न देने लगें। हम पहले भी कह चुके हैं और आज भी कहते हैं कि यह सब छुटकारा पाने तक का बंदोबस्त है, और इस बात की गारंटी कि देश की अर्थव्यवस्था पूँजीपतियों, नेताओं, उनके दलालों, नौकरशाहों, बाजारवाद की भड़ैती करने वाले कलाकारों, बुध्दिजीवियों के लिए चलाई जा रही है और आगे भी चलाई जाएगी, और धूर्ततापूर्वक झूठ बोले जाएंगे कि सरकार की चिंता असमानता मिटाने की है। हाल में पंचायती राज व्यवस्था की मजबूती का आह्वान करते हुए प्रधानमंत्री ने असमानता मिटाने का वादा किया है। ग्रामीण विकास मंत्री रघुवंश प्रसाद सिंह दिन-रात इस कानून का गुण गाते हुए उसे दुनिया में अभूतपूर्व बताते नहीं थकते। समस्त सरकारी माध्यम प्रचार करने में जुटे रहते हैं कि यूपीए सरकार ने (यूपीए सरकार यानी सोनिया गांधी) गरीबों को मालामाल कर दिया है।

हम इसे संविधान में दर्ज वादों और दायित्वों की तौहीन मानते हैं कि देश की विशाल वंचित आबादी को साल में सौ दिन साठ रुपया रोज पर मिट्टी कोड़ने के काम में लगाने को उपलब्धि बताया जाए। जो यह समझते हैं कि उन्होंने सरकार से यह राहत गरीबों को दिलवाई है और उसके बदले में सोनिया गांधी और मनमोहन मंडली के गुणगायक और सहायक बने हुए हैं, वे अगर गौर करेंगे तो पाएंगे कि ऐसा कुछ यह सरकार खुद भी करती। आखिर 'नया इंडिया' बनाने के लिए बेगार तो चाहिए। जी हाँ, ग्रामीण रोजगार गारंटी कानून बेगार प्रथा का वर्तमान संस्करण है। सामंत भी बेगार के बदले पेट में कुछ डालने के लिए देते थे। मेहनतकशों के लिए भागते भूत की लंगोटी और उनकी मेहनत पर मौज मारने वालों के लिए खुली लूट-तो फिर संविधान रखा किस लिए जा रहा है? शपथ खाकर लूट की व्यवस्था चलाने के लिए! तभी साम्राज्यवादी सत्ताा-प्रतिष्ठान के चाकर पूँजीपति नसीहत देते हैं कि देश का प्रधनमंत्री कौन होना चाहिए? वित्तमंत्री तो वे अपना पिछले बीस साल से बनवाते आ ही रहे थे। क्या कहते हैं सीपीएम के कामरेड अपने प्यारे रतन टाटा के बारे में? खैर, हमने एक उदाहरण दिया है। सच्चाई यह है कि पिछले बीस वर्षों के समस्त कानून और कार्यक्रम साम्राज्यवाद की सेवा में बनाए गए हैं। यही इक्कसवीं सदी के 'नए इंडिया' का जयघोष है।

लिहाजा, नवउदारवाद के पैरोकार आज भी वैसे ही उन्मत्ता हैं जैसे इक्कीसवीं सदी की शुरुआत के वक्त थे। हालांकि बीते दशक में भारत सहित दुनिया की मानवता ने पूँजीवादी-साम्राज्यवादी व्यवस्था के अनेक निष्ठुर प्रहार झेले हैं। उनकी सूची देने की जरूरत नहीं है। सब आपके सामने है और आगे भी रहने वाला है। चुनौती साम्राज्यवाद के प्रतिरोध की है। जो नहीं हो पा रहा है। दरअसल, साम्राज्यवादी व्यवस्था ने अपने प्रतिरोध की शक्तियों और कार्यप्रणाली (रास्ता) को भी खुद ही गढ़ा है। ऐसा करना उसके लिए जरूरी है ताकि कम से कम नुकसान उठा कर व्यवस्था को मजबूती के साथ चलाए रखा जाए। यह उसकी वैकल्पिक विचारधारा और प्रतिरोध की वैकल्पिक कार्यप्रणाली को निष्क्रिय करने की विशेष पध्दति है, जिस पर वह विशेष ध्यान भी देती है। हम यहाँ केवल तालिबान और अलकायदा जैसी शक्तियों और प्रतिरोध के उनके रास्ते के बारे में बात नहीं कर रहे हैं। हम माक्र्सवाद के विभिन्न रूपों से लेकर वर्ल्ड सोशल फोरम, जो अनेक एनजीओ का पुंज है, की बात भी कर रहे हैं। मजदूर, किसान और छात्र यूनियनों की भी, और सरकारी व मठी गांधीवादियों की भी। पूँजीवाद के पेट से पैदा अथवा उसके ऑंचल में पल-पुसने वाली इन प्रतिरोधात्मक शक्तियों पर पूँजीवाद की नजर और पकड़ हमेशा बनी रहती है। जाहिर है, अपने खड़े किए प्रतिरोधों से निपटना पूँजीवादी साम्राज्यवाद अच्छी तरह से जानता है। वह कभी न टूटने वाले संकल्प से परिचालित होता है कि अपने पेटे के बाहर की प्रतिरोधी विचारधारा और कार्यप्रणाली को हर हालत में निष्क्रिय बनाना है।

'यह वह माक्र्सवाद नहीं है जो माक्र्स और एंगल्स ने दिया था, एक दिन माक्र्स और उनके माक्र्सवाद की वापसी होगी, बल्कि हो चुकी है' - इन शास्त्रीय ओटों में मन को तसल्ली भले दी जा सकती हो, पूँजीवादी साम्राज्यवाद का विकल्प प्रस्तुत नहीं किया जा सका है। भारत से ज्यादा यह सच्चाई दुनिया में और कौन जान सकता है कि जड़ शास्त्रवादी 'परिपूर्णता' और 'पवित्रता' के दावों में जीते हुए पीढ़ी दर पीढ़ी, युग दर युग अपना पंथ चलाते रहे हैं। शास्त्रीय माक्र्सवाद की ओट में यह सच्चाई निरस्त नहीं होती कि वैज्ञानिक समाजवाद पूँजीवाद को पूर्वमान्य करके चलता है। यानी उपनिवेशवादियों द्वारा तीसरी दुनिया की लूट और तबाही को उसका सैध्दांतिक समर्थन होता है। वरना ठहरे/पिछड़े हुए समाज गतिशील कैसे होते? कोई हमें माक्र्स के भारत संबंधी लेखों का हवाला मत देने लगना। उपनिवेशिक ताकत की 'ऐतिहासिक भूमिका' के हम कतई कायल नहीं हैं। दरअसल, तीसरी दुनिया का वास्तविक इतिहास तभी बनेगा जब पूँजीवाद की कथित 'ऐतिहासिक' भूमिका को नकार दिया जाएगा। शायद तभी पूँजीवादी साम्राज्यवाद विरोध की चेतना भी बहाल हो सकेगी।

बात इक्कीसवीं सदी के पहले दशक को लेकर शुरू हुई थी। पिछले दशक में हमने देश की आजादी से जुड़ी कई महत्वपूर्ण घटनाओं, आदर्शों और नेताओं का स्मरण किया है। उनमें प्रमुख हैं - सुभाषचंद्र बोस का जन्म शताब्दी वर्ष, चंद्रशेखर आजाद का जन्मशताब्दी वर्ष, भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव की फाँसी के 75 वर्ष, भगत सिंह का जन्म शताब्दी वर्ष, खुदीराम बोस की शहादत का शताब्दी वर्ष, 1857 (सत्ताावन) के संग्राम की डेढ़ सौवीं सालगिरह, जेपी का जन्मशताब्दी वर्ष, सत्याग्रह की शुरुआत का शताब्दी वर्ष और अब 'हिंद स्वराज' लिखे जाने का शताब्दी वर्ष। इस साल मार्च से लोहिया का जन्मशताब्दी वर्ष भी शुरू होने जा रहा है जिसे मनाने की तैयारी साथी कर रहे हैं।

उपर्युक्त अवसरों पर ज्यादातर कार्यक्रम सरकारी स्तर पर अथवा सरकारी सहायता से संपन्न हुए हैं। हालांकि कुछ लोगों और संगठनों ने आपसी सहयोग से सरकारी तंत्र के बाहर भी महत्वपूर्ण कार्यक्रमों का आयोजन किया। इसके अलावा राजनैतिक पार्टियों ने भी अपने आयोजन किए। 1857 को लेकर देश की दो सबसे बड़ी पार्टियों में ठना-ठनी हो गई थी। जबकि माक्र्सवादी पार्टियों और बुध्दिजीवियों ने संदेश देने की कोशिश की कि 1857 पर केवल उनका पेटेंट है। साम्राज्यवाद विरोध के संघर्ष में आगे रहने वाले कुछ साथियों ने सरकारी स्तर पर आयोजित कार्यक्रमों की रूपरेखा बनाने से लेकर उनमें सक्रिय हिस्सेदारी की। अनेक गैर-सरकारी और स्वायत्ता कही जाने वाली संस्थाओं ने सरकार से धन लिया। 1857 की डेढ़ सौवीं सालगिरह का ऐसा जोर चला कि सरकार ने खजाना खोल दिया। कुछ साथी कहते हैं कि सरकारी खजाना खुल गया था इसलिए ज्यादा जोर चला! जो भी हो, लेने वालों ने लंबे हाथ पसार कर सरकारी धन लिया। हम उसमें नुक्ता नहीं निकालते। साथियों को लग सकता हैे कि साम्राज्यवाद विरोध की चेतना संगठित करने में सरकारी सहयोग किया/लिया जाना चाहिए। यह तो साथी मानते ही हैं कि उस दिशा में विदेशी धन लेने वाले एनजीओ भी महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं। ऐसे तर्क प्रचलन में आ गए हैं कि सरकारी संस्थाओं और विभागों में नौकरी करने वाले लोगों की तनख्वाहों और अन्य सुविधाओं में विदेशी धन मिला होता है। लिहाजा, एनजीओ का विदेशी धन लेना गलत नहीं है।

हमारी चिंता अलग है। साल दर साल पूरे देश में असंख्य और भव्यतम कार्यक्रम संपन्न होने के बावजूद साम्राज्यवाद विरोध की चेतना संगठित और प्रभावी नहीं हो पाई। सब कुछ जैसे उत्सव बन कर रह गया। क्या यह मानें कि साम्राज्यवाद विरोध की चेतना अब पैदा ही नहीं हो पाती है? वरना यह कैसे संभव है कि स्वतंत्रता संघर्ष की इतनी विराट और प्रेरणाप्रद घटनाओं, आदर्शों और नेताओं को याद करते रहें और देश की राजनीति में वह होता रहे जो हो रहा है। यानी गुलामी और केवल गुलामी। हमारे कुछ साथियों को स्वतंत्रता का संघर्ष भले ही समझौतावादी लगता हो, उस दौर में देशवासियों की कुर्बानियों, जो हिंसक और अहिंसक दोनों रास्तों पर दी गईं, की सच्चाई से इनकार नहीं किया जा सकता। हमने पिछले महीने रॉस टापू, जहाँ 1857 के बागियों को बंदी बना कर ले जाया गया था और अंडमान स्थित सेलुलर जेल को देखा, जहाँ बाद में क्रांतिकारियों को ले जाकर कैद रखा जाता था। रॉस टापू पर अंग्रेजों ने अपने लिए 'मिनी पेरिस' बसाया था जो 1941 के भूकम्प में और फिर 1942 में जापानियों के आधिपत्य के चलते विनष्ट हुआ। लेकिन उसके काफी पहले अंग्रेजों ने पोर्ट ब्लेयर में अपना वैभव कायम कर लिया था। रॉस और पोर्ट ब्लेयर का वह वैभव सेकुलर जेल में लगे चित्रों में देखा जा सकता है। उस पाशविक बरताव की कहानियाँ भी वहाँ खुदी हैं जो अंग्रेज आजादी के दीवानों के साथ करते थे। लेकिन हमारे विद्वान हमें उसी दिन से पट्टी पढ़ा रहे हैं कि अंग्रेज प्रगतिशील थे और भारतीय क्रांतिकारी सामंती!

बहरहाल, इनकार शुरू से ही मौजूद रही खांटी साम्राज्यवाद विरोधी चेतना से भी नहीं किया जा सकता। न ही पूँजीवादी साम्राज्यवाद के विरोध की उस वैकल्पिक विचाधारा के होने से जिसे गांधी ने गढ़ने की कोशिश की थी। हमारे आधुनिक और प्रगतिवादी साथियों के यहाँ सबको माफी है सिवाय 'पिछड़े' भारत और 'बुर्जुवा' गांधी के। उनके विचार में उनमें कोई क्रांतिकारी तत्व हो ही नहीं सकता। इसलिए आम भारतीयों की साम्राज्यवाद विरोधी चेतना और गांधी की साम्राज्यवाद के विरोध की वैकल्पिक विचारधारा की बात जाने दें। फिर भी देशवासियों द्वारा दी गईं कुर्बानियों के मद्देनजर विचार करें तो जिन्हें समाज और राष्ट्र का अपराधी करार दिया जाना चाहिए, वे देश के नियंता और निर्णायक बने हुए हैं। साम्राज्यवाद के इन गुलामों को मीडिया और बुध्दिजीवी लोगों के बीच तारनहार, त्यागमूर्ति, विकास-पुरुष, युवा हृदय-सम्राट और न जाने क्या-क्या प्रचारित करते हैं, और हम कुछ नहीं कर पाते हैं।

आध्ुनिक युग में ठीक ही युवा-शक्ति पर बहुत भरोसा जताया जाता है। सभी देशों के राजनैतिक दल और अन्य संगठन युवा-शक्ति का आह्वान करते पाए जाते हैं। लेकिन भारत का परिदृश्य निराशाजनक है। कांग्रेस और भाजपा से लेकर क्षेत्रीय पार्टियों के साथ लगे युवक, नेताओं के बेटे-बेटियों के पिछलग्गू बने घूमते हैं। वे पोस्टर और होर्डिंग लगा कर अपने आक़ाओं को खुश करने में लगे रहते हैं। पूरा देश इस तरह के पोस्टरों-होर्डिंगों से पटा हुआ है। वामपंथी पार्टियों में युवकों के लिए करने को कुछ खास नहीं होता। पहले से 'लाइन' तय होती है। झोला उठाइए, लग जाइए। थोड़ा उग्र किस्म के माक्र्सवादी हुए तो 'नव-गांधीवाद' को ठिकाने लगाने में दिमाग लगाते रहिए। कहने का आशय यह है कि क्रांतिकारियों के जन्म और शहादत दिवस और वर्ष के कार्यक्रमों में शामिल होने के बावजूद ज्यादातर युवक भी कोरे रह जाते हैं। सुभाष चन्द्र बोस का तरुण्ााई का सपना उनमें प्रेरणा नहीं फूँक पाता। मीडिया में जब यह कहा जाता है कि युवा नेतृत्व आगे आना चाहिए तो नेताओं के उन बेटों से ही मुराद होती है, जो संसद में मौज-मस्ती करते हैं और जिन्हें अंग्रेजी दैनिक 'इंडियन एक्सप्रेस' ने पिछले दिनों 'युवा तुर्क' बना कर पाठकों के सामने कई दिनों तक पेश किया था। आपने देखा कि उस अखबार के एक भी पत्रकार या स्तंभकार ने यह सवाल नहीं उठाया कि युवा तुर्क के क्या मायने होते हैं और नेताओं के बेटे युवा होने से ही युवा तुर्क कैसे हो गए? उलटे पूँजीवादी साम्राज्यवाद के धुर समर्थक इस अखबार के संपादक को गणतंत्र दिवस पर महामहिम राष्ट्रपति ने पद्म पुरस्कार प्रदान किया है। हमें साम्राज्यवाद के गुलामों की अनंत कथा में नहीं जाना है। इतना कहना था कि देश की युवा-शक्ति में भी उपर्युक्त कार्यक्रमों से साम्राज्यवाद विरोध्ी चेतना का संचरण नहीं हो पाया।

आज की वास्तविकता यही है कि साम्राज्यवाद विरोधी संघर्ष का परिणाम नहीं निकलता। बल्कि साम्राज्यवाद शक्तिशाली होता जाता है। साम्राज्यवाद के गढ़ अमेरिका से शुरू होकर बाकी दुनिया पर असर डालने वाली आर्थिक मंदी को हम साम्राज्यवाद के ढहने की शुरुआत नहीं मानते। उसे इस तरह के संकटों से ढहना होता तो 1930 के दशक में ही ढह जाता। तब कम से कम दुनिया के कई देशों में समाजवादी आंदोलन का जोर था और औपनिवेशिक गुलामी झेलने वाले देशों में आजादी के संघर्ष का। अब तो माक्र्सवादी आगे बढ़-बढ़ कर पूँजीवाद को लुभाने और अपने देश-प्रदेश में लाने की घोषणा करते हैं। जैसा कि पिछले अंक में हमने लिखा था-अमेरिका के पहले अर्ध्द-अश्वेत राष्ट्रपति को हम साम्राज्यवाद के बाहर की कोई ताकत नहीं मानते। वैसे भी इस लेख में हम भारत में चलने वाले साम्राज्यवाद विरोधी संघर्ष पर विचार कर रहे हैं, जो पिछले बीस वर्षों से एक बार फिर साम्राज्यवाद की चरागाह बन कर रह गया है।

साम्राज्यवाद विरोध की शक्तियों के बिखराव पर अक्सर चिंता की जाती है। वह सही चिंता है। कहने की जरूरत नहीं कि विरोध की शक्तियों को बिखराव में डाले रहना साम्राज्यवाद को माफिक आता है। लेकिन बिखराव के बावजूद, अगर शक्ति है, तो उसका कहीं कुछ असर दिखाई देना चाहिए। आगे का रास्ता भी बनता दिखना चाहिए। 1992 में हमने भारत छोड़ो आंदोलन की पचासवीं सालगिरह धूमधाम से मनाई थी। वही समय मनमोहन सिंह की मार्फत नई आर्थिक नीतियों की शुरुआत का था। तब से अब तक नई आर्थिक नीतियाँ तो अपना काम कर गईं। यानी भारत पूँजीवादी साम्राज्यवाद का मातहत बन गया। लेकिन क्रांतिकारी विरासत की याद और चौतरफा संघर्ष के अनेक प्रयासों के परिणाम स्वरूप सामाजिक, राजनीतिक अथवा बौध्दिक क्षेत्र में कतिपय अचूक और मजबूत साम्राज्यवाद विरोधी उपस्थितियाँ उभर कर सामने आनी चाहिए थीं, वह नहीं हुआ। उलटे बाबरी मस्जिद का ध्वंस हुआ और भारत साम्प्रदायिकता के बाद आतंकवाद का भी शिकार हो गया। एक अरब बीस करोड़ की आबादी के देश में, जहाँ अधिसंख्य लोग हर तरह के अन्याय का शिकार हैं, मुख्यधारा के बाहर एक भी नेता की ऐसी प्रतिष्ठा नहीं है कि वह विधानसभा या लोकसभा का चुनाव जीत सके। साम्राज्यवादी आदेश पर चलने वाली भारत की राजनीति का प्रतीकात्मक विरोध करने के लिए एक-दो लोग संसद या विधानसभाओं में जा सकें, इसके लिए बार-बार प्रयास होते हैं लेकिन उसमें भी सफलता नहीं मिलती। जबकि नेताओं के रिश्तेदार, माफिया, उद्योगपति, फिल्मी हीरो सोचते बाद में हैं, संसद में प्रवेश पहले मिल जाता है। शक्ति के इस खेल पर गंभीरतापूर्वक विचार करना होगा, भले ही फिलहाल समर छोड़ देना पड़े।

आइए कुछ देर के लिए अपने को कटघरे में खड़ा करें। जिसे बिखराव कहा जाता है, कहीं वह भटकाव तो नहीं है? यानी निरंतर बना रहने वाला बिखराव हमारे भटकाव के चलते तो नहीं है? सीध्ी अभिव्यक्ति में कहें - स्मरण और संघर्ष करते हुए भी हम पूँजीवाद के पथ पर तो नहीं भटके रहते हैं? यानी हम पूँजीवाद की चलाई पध्दति के तहत तो प्रतिरोधरत नहीं होते हैं? अगर ऐसा नहीं होता तो पूँजीवादी विकास और जीवनशैली उन लोगों के मन-मानस में भी कैसे रम जाती है जो उसका सीधे शिकार हैं? हमने शिक्षा, मीडिया, शोध, भाषा, संभाषण आदि में वह सब कुछ किया होगा तभी तो पूँजीवाद का प्रभाव इतना गहरे पैठा है? अपने बचाव में तो हम कह सकते हैं कि पूँजीवादी जीवनशैली अपना कर भी हम प्रगतिशील हैं, क्योंकि विचारधारा से हम प्रगतिशील हैं। लेकिन यह सवाल तो है कि आजादी के बाद से समस्त बौध्दिक उद्यम हमारे हाथ में रहा है, फिर ऐसा क्यों है कि पूँजीवाद विरोध की प्रेरणा न हमारा इतिहास देता है, न राजनीति शास्त्र, न समाजशास्त्र, शिक्षाशास्त्र और न ही कला और साहित्य।

निराशा और गहरी हो जाती है जब देखते हैं कि अगर कहीं से कोई प्रेरणा बन सकती है तो हमने उसे सप्रयास नष्ट करने का प्रयास किया है, बलिक नष्ट किया है। हाल का एक अनुभव आपसे साझा करना चाहते हैं। देश के मूर्धन्य अर्थशास्त्री और साम्राज्यवाद विरोध के एक महत्वपूर्ण अगुआ प्रोफेसर कमलनयन काबरा ने लोहिया का 1943-44 के बीच लिखा गया लंबा किंतु अधूरा निबंध 'इकॉनॉमिक्स आफ्टर माक्र्स' हमसे पिछले साल पढ़ने के लिए लिया। उन्होंने हाल में एक-दो बार लोहिया की संसद में की गईं आर्थिक बहसों के बारे में भी हमसे जानकारी ली है। यानी देश की वामपंथी विद्वता के दायरे से लोहिया बहिष्कृत रहे हैं। ऐसा सप्रयास किया गया है। कुछ साल पहले प्रकाशित दूधनाथ सिंह के उपन्यास 'आखरी कलाम' का कथानायक वैसा निबंध लिखने को लोहिया की हिमाकत बताता है। हम यहाँ यह सिध्द नहीं करने जा रहे हैं कि पूँजीवाद और साम्यवाद दोनों को पूण्र्[1]ा रूप से परिवर्ध्दित और अंतत: बंद व्यवस्थाएं मानने वाले लोहिया के पास ही उनका वास्तविक विकल्प था और उसे आजमाना चाहिए। लोहिया तो एक उदाहरण हैं, हम उस प्रवृत्ति की तरफ ध्यान खींचना चाहते हैं जिसके तहत कांग्रेसी शासन से सुविध-प्राप्त विद्वानों ने भारत के बहुत-से महत्वपूर्ण विचारकों को विद्वता के दायरे से बाहर रखा है।

25 जनवरी को आईआईटी में प्रोफेसर उपाध्याय के यहाँ वैश्विक आर्थिक मंदी के दौर में विकल्प की अनौपचारिक चर्चा के लिए काबरा साहब का फोन आया कि हम भी उसमें आएं। फोन पर बात-चीत में उन्होंने हँस कर जिक्र किया कि किसी ने एक लेख में लिख दिया है कि गाँधी और लोहिया का विकल्प उपलब्ध है। प्रगति और विकास की ज्ञान-संरचना से बाहर रखे गए दो विचारकों को विकल्प बताने की बात पर काबरा साहब का हँसना गलत नहीं है। जिस विद्वत समाज का वे हिस्सा रहे हैं वहाँ ऐसा ही 'माइंडसेट' रहता है। वहाँ गाँधी और लोहिया जैसे विचारकों से फुटकर सहायता ली जा सकती है, उनके चिंतन को आधुनिक प्रगति और विकास का आधार नहीं बनाया जा सकता। ज्ञान और उसकी सरणियों की पूँजीवादी और माक्र्सवादी समझ ने विद्वानों का यह दिमागी दायरा (माइंडसेट) बनाया है। हम यहाँ फिर स्पष्ट कर दें कि यह उदाहरण देना गाँधी अथवा लोहिया के चिंतन को पूँजीवादी साम्राज्यवाद का एकमात्र विकल्प मानने की वकालत करना नहीं है। ज्ञान के क्षेत्रों में प्रचलित वैदुषिक वस्तुनिष्ठता और ईमानदारी की कमी को रेखांकित करना है।

कुछ साथी कह सकते हैं कि यथार्थ को इस रूप में पेश करना निराशावाद है, और कुछ कह सकते हैं कि माक्र्सवाद को छोड़ कर और कौन-सी आशा है? आगे बढ़ने से पहले हम स्पष्ट कर दें कि भविष्य को लेकर हमें कोई निराशा नहीं है। अलबत्ता वर्तमान और निकट अतीत को लेकर जरूर निराश हैं, जिसे ज्यादातर पूँजीवाद, फासीवाद और साम्यवाद के सम्मिलित त्रिकोण ने अंजाम दिया है। गांधीवाद का थोड़ा-बहुत दखल आजादी के अहिंसक संघर्ष में कोई मानना चाहे तो मान लें, वरना देश-विदेश में आधुनिक औद्योगिक व्यवस्था को बनाने और चलाने वालों में उनका कोई पुछत्तर नहीं रहा है। खुद आजाद भारत के पहले प्रधनमंत्री ने उनकी चिठ्ठी को कूड़ेदान के हवाले कर दिया था, उनकी नजर में वही उसकी सही जगह थी। अगर उस वाकिये का हम प्रतीकतार्थ करें तो भारतीय जनता को, जैसी भी भली-बुरी वह है, कूड़ेदान में फेंका गया था। हमारी निराशा के ठोस कारण हैं। साभ्यवादी व्यवस्था की स्थापना में और उसे चलाने-फैलाने के दौरान हुई हत्याओं को 'क्रांतिकारी कर्म' मान कर अलग निकाल दिया जाए, तो भी मानव सभ्यता के इस 'प्रगतिशील चरण' में कई करोड़ हत्याओं का आंकड़ा बताया जाता है। कई मानव समूहों का तो सफाया कर दिया गया है। हत्याओं की बात एकबारगी जाने दें - 'जो आया सो जाएगा राजा रंक फकीर'। भारतीय उपमहाद्वीप समेत एशिया, अफ्रीका, लैटिन अमेरिका में किसी भी लिहाज से मानवीय नहीं कहा जा सकने वाला जीवन जीने वाले असंख्य लोग हमें निराशा से भर देते हैं।

उस दिन कामरेड आईके शुक्ला की याद में शमशुल भाई ने सभा रखी थी। काफी दिन बाद प्रोफेसर रणधीर सिंह से मिलना हुआ। उनकी हमारे ऊपर कृपा और भरोसा दोनों हैं। मिलते हैं तो अपने लेखन और कार्यक्रमों के बारे में उत्साह से बताते हैं। कहने की जरूरत नहीं कि वे पूँजीवादी साम्राज्यवाद के विरोध की एक सच्ची आवाज हैं। उन्होंने बताया कि एक लेख में उन्होंने गाँधी का कुछ जिक्र किया है जो मेरे काम का हो सकता है। फिर बोले कि आजादी क्रांतिकारी रास्ते से आती तो आज यह सब न होता। क्रांतिकारी रास्ते से उनका आशय हिंसक रास्ते से है। उनकी वैसी सैधांतिक मान्यता के लिए उग्र वामपंथी साथी उनका सम्मान करते हैं। हम छिपी और खुली हिंसा से चौतरफा घिरे हैं तो वह अकारण नहीं है। हमें धर्मवीर भारती के 'अंध युग' की पंक्तियाँ अनायास ध्यान आ गईं - 'यह रक्तपात अब कब समाप्त होना है'। आपको बता दें, हिंदी आलोचना में इस कृति को क्रान्ति का खलनायक बताया जाता रहा है।

एक और शास्त्रवादी माक्र्सवादी प्रोफेसर एजाज अहमद माक्र्सवाद की पुर्न प्रतिष्ठा होने की अनिवार्यता के बारे में लगातार लिख और बोल रहे हैं। 'युवा संवाद' के दिसंबर अंक में उनका 'फासीवाद एक निर्मम सूदखोर' लेख छपा है। लिखा है, ''द्वितीय विश्व युध्द के दौरान फासीवाद विरोधी प्रतिरोध में साम्यवादी पार्टियों की केंद्रीय भूमिका रही या सोवियत संघ ने फासीवाद की पराजय में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। इस युध्द में रूस के कुल हताहतों की संख्या मानव इतिहास के किसी भी युध्द में हुए हताहतों से अधिक थी तथा इसके अतिरिक्त केवल वियतनाम में ही संभव हुआ कि इतनी बड़ी संख्या में जान का नुकसान उठाने वाला देश विजयी हुआ।'' एजाज साहब सोवियत रूस और वियतनाम के लाखों सैनिकों और लोगों की मौत को इसलिए इतना मान दे रहे हैं क्योंकि वे भौतिकवादी साम्यवाद की बलिवेदी पर हुईं। जबकि, जैसा कि उन्होंने अपने लेख में कहा है, फासीवादी देशों के सैनिक और लोग आध्यात्मिक राष्ट्रवाद की बलिवेदी पर कुर्बान किए जाते हैं। साम्यवाद के रास्ते पर मरना इतना पवित्र है तो मारना उससे ज्यादा नही ंतो उतना अवश्य होता होगा!

हिंसा की समस्या जटिल है। परिस्थितिजन्य हिंसा का उद्वेग और विस्फोट व्यक्ति और समाजों में होता रहता है। लेकिन हिंसा की सैध्दांतिक संपुष्टि एक अलग चीज है। वह आध्ुनिकता-पूर्व के कई शास्त्रों और जीवन दर्शनों में मिलती है। गाँधीवाद के सिवाय आधुनिक युग की सभी विचारधाराएँ हिंसा की न केवल सैध्दांतिक संपुष्टि करती हैं, हिंसा से परिचालित भी हैं। उनकी हिंसा की चपेट में मनुष्यों के साथ बड़े पैमाने पर अन्य जीवधारी और प्रकृति भी आते हैं। यह जिक्र हमने इसलिए किया कि हम न केवल अपने दिमाग में पूँजीवादी विकास और प्रगति लिए घूमते हैं, हिंसा भी हमारे दिलो-दिमाग में जगह बनाए रहती है। शायद इसीलिए हम गाँधी के विचारों और पध्दति से रिश्ता नहीं बना पाते, जबकि पूँजीवाद और माक्र्सवाद से रिश्ता बनाने में हमें कोई दिक्कत नहीं होती।

ऐसा नहीं है कि हम पूँजी, टैक्नोलोजी और उत्पादन के विरोधी हैं। शालीन, शानदार, सर्जनात्मक और सुरक्षित जीवन के सब हकदार हैं। जिनका दमन और शोषण हुआ है वे सबसे पहले और सबसे ज्यादा। लेकिन पूँजीवाद में इसकी न इजाजत है, और जाहिर है, न व्यवस्था। पूँजीवादी प्रगति और विकास को आदर्श मानने वाला माक्र्सवाद वह कर देगा, ऐसी भी संभावना नहीं है। फिर भी हम कहीं न कहीं मानते हैं कि वैसा हो सकता है, बल्कि होना चाहिए। जब तक हमारे सोच में यह भटकाव रहेगा, और हिंसा बध्दमूल रहेगी, साम्राज्यवाद का सूरज भी चमकता रहेगा।

-प्रेम सिंह लोकसंघर्ष पत्रिका में जल्द प्रकाशित

लो क सं घ र्ष !: छायानट का सम्मोहन...

व्याकुल उद्वेलित लहरें, पूर्णिमा -उदधि आलिंगन आवृति नैराश्य विवशता , छायानट का सम्मोहन जगती तेरा सम्मोहन, युग-युग की व्यथा पुरानी। यामिनी सिसकती -काया, सविता की आस पुरानी। योवन की मधुशाला में, बाला है पीने वाले। चिंतन है यही बताता , साथी है खाली प्याले डॉक्टर यशवीर सिंह चंदेल 'राही'

Friday, August 28, 2009

लाल बाग का राजा और फिल्मी सितारे

आज कल लगभग सभी न्यूज़ चैनल्स पर मुंबई के गणपति उत्सव की धूम रहती है। इनमें लाल बाग के राजा वाले गणपति बप्पा की पूछ सबसे अधिक है। बताते हैं कि वहां लाखों लोग गणपति के दर्शनों को आते हैं। चलो अच्छी बात है। किसी को कहीं जाकर मन की शान्ति मिलती है,उसके बिगडे काम बनते हैं,रुके हुए काम होते हैं,तो इस में बुरा क्या है। गणपति राजा के पास फिल्मी सितारे भी आते हैं। बस उनके आते ही चैनल वालों को पता नहीं क्या हो जाता है कि वे गणपति को भूल कर उन्हें दिखाने लगते हैं। तब लाल बाग का राजा इन सितारों के सामने राजा नहीं रहता। सितारे के हर कदम को चैनल को इस प्रकार से दिखाते हैं जैसे वह सितारा गणपति के दर्शन करने नहीं,गणपति बाबा को दर्शन देने आया हो। एक तरफ़ तो गणपति को लाल बाग का राजा कहा जाता है। दूसरी तरफ़ सितारों के सामने राजा को कोई तवज्जो नहीं दी जाती। ठीक है फिल्मी सितारों का अपना महत्व है मगर ये भी तो सच है कि गणपति के दरबार में सब बराबर होते हैं। गणपति बप्पा किसी में कोई भेद नहीं करते। किंतु न्यूज़ चैनल वाले जो न करवा दे वही कम। इस में कोई संदेह नहीं कि न्यूज़ चैनल्स के कारण ही गणपति उत्सव महारास्ट्र से निकल कर देश भर में धूम मचने लगा है। भारत पाक सीमा पर बसे श्रीगंगानगर जिला मुख्यालय पर कई स्थानों पर गणपति की स्थापना होती है। हमारे परिवार के लोग कभी मुंबई नहीं गए,इस के बावजूद हम गत तीन साल से गणपति की स्थापना करते आ रहें हैं। हम कोई इसका विधि विधान भी नहीं जानते। जैसा टीवी और अख़बारों में आता है वैसा कर लेते हैं। किसी भी ख़बर में अगर मूल तत्व ही पीछे धकेल दिया जाए तो फ़िर वह ख़बर नहीं कुछ और ही हो जाता है। ठीक है फिल्मी सितारों को दिखो मगर उनके सामने लाल बाग के राजा को छोटा मत करो, उसका महत्व न घटाओ। बाकी आपकी मर्जी हमारे कहने से तो कुछ होने वाला नहीं। क्योंकि बाजार में तो जो दिखता है वही बिकता है। कुछ कहा हो तो गणपति बप्पा और न्यूज़ चैनल वाले दिल पर न लें।

लो क सं घ र्ष !: कलिकाल तमस का प्रहरी...

मानवता , करुणा, आशा, विश्वाश, भक्ति , अभिलाषा अनुरक्ति, दया, सज्जनता, चेरी है शान्ति , पिपासा कलिकाल तमस का प्रहरी, नित गहराता जाता है मानव सदगुण को प्रतिपल, कुछ क्षीण बना जाता है आहुति का भाग्य अनल है, है पूर्ण स्वयं जलने में परहित उत्सर्ग अकिंचन, अप्रति हटी गति जलने में डॉक्टर यशवीर सिंह चंदेल 'राही'

Thursday, August 27, 2009

असुविधा: मै अर्जुन नही हूँ

असुविधा: मै अर्जुन नही हूँ अर्जुन नहीं हूं मैं भेद ही नहीं सका कभी चिडिया की दाहिनी आंख कारणों की मत पूछिये अव्वल तो यह कि जान गया था पहले ही मिट्टी की चिडिया चाहे जितनी भेद लूं घूमती मछ्ली पर उठे धनुष से छीन लिया जायेगा तूणीर फिर यह कि रुचा ही नहीं चिडिया जैसी निरीह का शिकार भले मिट्टी का हो मै मारना चाहूंगा किसी आदमखोर को गुरु चाहते थे कि कुछ न देखूं उस दाहिनी आंख के सिवा और मेरी नज़र हटती ही नहीं थी बाईं आंख की कातरता से मैं तो पेडों से विलगते पत्तों को देखकर भी हो जाता था दुखी मुझे कोई रुचि नहीं थी दोस्तों से आगे निकल जाने की भाई तो फिर भाई थे मै तो सजा कर रख देना चाहता था उस मिट्टी की चिडिया को पिंजरे में कि आसमान में देख सकूं एक और परिंदा मै उसकी आंखों में भर देना चाहता था उमंग स्वरों में लय, परों में उडान और अब भी शर्मिंदा नहीं हूं अपनी असफलता से बल्कि ख़ुश हूं कि कम से कम मेरी वज़ह से नहीं देना पडा किसी एकलव्य को अंगूठा।

लो क सं घ र्ष !: विश्व भोजपुरी सम्मलेन

विश्व भोजपुरी सम्मलेन मारीशस में 29 अगस्त से 3 सितम्बर तक आयोजित हो रहा है जिसमें 16 देशों के भोजपुरी साहित्यकार , गायक ,लोक निर्तक हिस्सा लेंगेसम्मलेन के उद्घाटन सत्र में भोजपुरी टाईम्स का भी विमोचन किया जाएगाभारत से डॉक्टर आनंद तिवारी के नेतृत्व में एक प्रतिनिधि मंडल मारीशस रवाना हो चुका है

युवा दखल: सत्ता के चुम्बक बिना बिखरती भाजपा

युवा दखल: सत्ता के चुम्बक बिना बिखरती भाजपा जसवंत सिंह गए... सुधीन्द्र कुलकर्णी और अब अरुण शौरी भी मानो जाने के लिए बेकरार हुए जा रहे हैं। आज एन डी टी वी के वाक द टाक पर जनाब भाजपा को डूबता जहाज बता रहे थे तो राजनाथ सिंह को ''एलिस इन ब्लण्डरलैण्ड'' …रूडी ने सही कहा वे अपने ख़िलाफ़ कार्यवाही चाहते हैं।और निश्चित रूप से यह सूची यहीं ख़त्म नहीं होती…कल तक ख़ुद को पार्टी विथ डिफ़रेंस बताने वाली पार्टी ने यह स्पष्ट कर दिया है कि यह सिर्फ़ पार्टी फ़ार पावर थी। सत्ता के मलाई की बंदरबांट के लिये एकता का नाटक बस तब तक चला जब तक सत्ता की उम्मीद बची थी और इस चुनाव के नतीज़ों से अपनी नियति जान लेने के बाद अब बेचैन हो कर यहां-वहां फ़ुदकने के चक्कर में हैं। न अब धर्म के प्रति इनकी नक़ली आस्था इन्हें बांध पा रही है ना कांधारी राष्ट्रवाद।दरअसल, संघ परिवार इस वक़्त एक बेहद उलझन के दौर से गुज़र रहा है। जब तक सत्ता में नहीं था धर्म, राष्ट्र और सिद्धांत की हवाई बातें कर इसने अपनी एक आभासी छवि तैयार की थी। अपने सामंती चरित्र के कारण जनता का एक तबका इससे प्रभावित हुआ तो कांग्रेस की जनविरोधी नई आर्थिक नीतियों के चलते वंचना का शिकार पीले बीमार चेहरे वाला युवा वर्ग झूठे अहम और अस्मिता की तलाश में इस तक पहुंचा।लेकिन सत्ता के दौर में इन सबके सम्मुख यह स्पष्ट हो गया कि यह पार्टी दरअसल पूंजीपतियों की सबसे विश्वस्त सेवक है और राम की आड बस मालिकों की सेवा करने और बदले में उनसे प्राप्त उत्कोच भकोसने के लिए है। आखिर इन शौरी साहब के विनिवेश मंत्री रहते हुए किए कारनामे कौन भूल सकता है। आज संघ की बीन बजा रहे शौरी हमेशा से संघ के प्रिय रहे हैं और साथ ही निजीकरण और उदारवाद के पक्के समर्थक । मोदी भी एक साथ संघ और पूंजीपतियों के प्रिय हैं।खैर सत्ता और सत्ता की उम्मीद दोनों के चले जाने के बाद अब ये चाकर दूसरे रास्ते तलाश रहे हैं तो इसमे अचरज कैसा।

लो क सं घ र्ष !: आहत है रवि शशि उडगन

है स्वतन्त्र जीव जगती का , बस स्वारथ से अनुशासित। शाश्वत है सत्य यही है, जीवन इससे अनुप्राणित आहत है सभी दिशायें, आहत धरती, जल, प्लावन है व्योम इसी से आहत, आहत है रवि शशि उडगन शिशु अश्रु बेंचती है यह , ममता , विनाशती बंधन। निर्धन का सब हर लेती, करती अर्थी पर नर्तन डॉक्टर यशवीर सिंह चंदेल 'राही'

Wednesday, August 26, 2009

लो क सं घ र्ष !: विश्व अर्थतंत्र में विकासमान देशों की भूमिका

अभी हाल ही में (जून 2009 में) रूस के येकातेरिनबर्ग नामक शहर में ‘ब्रिक’ देशों का शिखर सम्मेलन हुआ। ‘ब्रिक’ का अर्थ है: ब्राजील, रूस, इण्डिया (भारत) और चीन। इन देशों के अंगे्रजी नामों के पहले अक्षरों को मिलाकर ब्रिक बनता है। इसके अलावा शिखर सम्मेलन के तुरंत बाद ही शंघाई सहयोग समिति (एस0सी0सी0) की बैठक भी हुई। यह देशों का मिलाजुला संगठन हैं जिसमें रूस, चीन और भारत शामिल हैं। उपर्युक्त सम्मेलन आज के विश्व और वैश्विक अर्थतंत्र में विकासमान देशों की बढ़ती भूमिका दर्शाते हैं। द्वितीय विश्व यु़द्ध के बाद साम्राज्यवादी संकट के फलस्वरूप अधिकतर पिछड़े देश आजाद होते चले गये। लेकिन इन नये आजाद देशों के सामने सबसे बड़ी समस्या थी आर्थिक पिछड़ेपन की, जो उन्हें राजनैतिक तौर पर भी स्थिर नहीं होने दे रही थी। पिछड़े और विकासमान देशों की एक सम्पूर्ण श्रेणी ही उभर आई जिन्हें सबसे बड़ा खतरा साम्राज्यवाद से था। इन पिछड़े देशों के सामने कृषि, उद्योगों, भारी मशीनों, यातायात, बाजार, अर्थतंत्र इत्यादि के विकास की समस्याएं मँुंह बाए खड़ी थीं। संसाधन, स्रोत, धन एवं पूँजी तथा तकनीक कहाँ से आयेगी? ऐसे में समाजवादी देश सहायता को आगे आये। गुट निरपेक्ष आंदोलन का जन्म हुआ। विकास की रणनीति:- अपने अर्थतंत्रों का विकास करने के लिए पिछड़े देशों ने नई रणनीति अपनाई। इसलिए उन्हें विकासमान देश भी कहते हैं। कुल मिलाकर यह रणनीति समाजवादी देशों के साथ मिलकर अपने पैरों पर खड़े होने की अर्थात आत्मनिर्भरता की रणनीति थी। इसलिए यह साम्राज्यवाद विरोधी नीति थी और है। साम्राज्यवाद, खासकर अमरीकी साम्राज्यवाद, कभी भी नहीं चाहता है कि कोई भी विकासमान देश आर्थिक तौर पर मजबूत हो और आत्म निर्भर बने। इन विकासमान देशों में भारत भी शामिल है। उसकी आर्थिक और विदेश नीति हमेशा ही साम्राज्यवाद विरोध की रही है। युद्धोत्तर काल में पिछले लगभग पाँच से छह दशकों में विकासमान देशों में भारी परिवर्तन आया है। यह गुणात्मक परिवर्तन है, बिल्कुल जमीन आसमान का। एक समय था जब इन पिछडे़ देशों को कर्जों और सहायता की भारी जरुरत हुआ करती थी। दुनिया में उनकी छवि सहायता माँगने वालों की थी। लोगों को विश्वास तक नहीं था कि वे कभी इस स्थिति से निकल भी पाएंगे। बदलती भूमिका- लेकिन आज समय बदला हुआ है। आज भी विकासमान देशों के सामने कई समस्याएँ हैं, लेकिन आज वे न सिर्फ सहायता पाते है बल्कि कई देशों को सहायता देने भी लगे है। आज विकासमान देश बड़े पैमाने पर निर्यात कर रहे हैं जबकि कुछ ही समय पहले तक वे बड़े पैमाने पर आयात करते थे। आज वे न सिर्फ कच्चे मालों का बल्कि मशीनों तथा अन्य तैयार मालों का बड़े पैमाने पर निर्यात करने लगे हैं। भारत के कम्प्यूटर प्रोग्राम, कारें, मशीनें, कपड़े तथा अन्य सामान यूरोप और अमरीका के बाजारों में छाए हुए हैं, इसी प्रकार चीन के भी विकासमान देशों की पूँजी दूसरे देशों में लग रही है। विकासमान देश डब्लू0टी0ओ0 का महत्वपूर्ण गुट बनाते हुए अमरीका के विरूद्ध एकता कायम कर रहे हैं। इस कार्य में ब्राजील, भारत, चीन समेत कुल बीस देशों का गुट विश्व अर्थतंत्र में प्रभावी भूमिका अदा कर रहा है। आज विकासमान देशों की विकास दर विकसित देशों से कही आगे निकल गई है। जहाँ विकसित देशों की दरें 2 प्रतिशत से 4 प्रतिशत के बीच हैं वहीं भारत चीन तथा कुछ अन्य विकासमान देश 6 प्रतिशत से 9 प्रतिशत की दर से विकास कर रहे हैं। आज अन्तर्राष्ट्रीय पटल पर विकासमान देश विश्व अथंतत्र में उचित कीमतों, बाजार तथा निर्यात में हिस्सेदारी उनके सामानों पर पाबंदियाँ हटाने और शुल्क कम करने इत्यादि और सामात्यतः भेद भाव समाप्त करने की माँग कर रहे है। आज विकासमान देश विश्व अर्थतंत्र में एक महत्वपूर्ण शक्ति बनते जा रहे हैं। विकासमान देशों का परस्पर सहयोग- जी-20 और 8$5 के बाद ‘ब्रिक’ और शंघाई स0स0 महत्वपूर्ण घटनाएँ हैं। ब्रिक ने माँग की? कि एक अधिक न्यायपूर्ण विश्व आर्थिक व्यवस्था कायम की जाये। सम्मेलन में खाद्य सुरक्षा से लेकर अधिक विविध मुद्रा प्रणाली की माँग की गयी। विकासमान देशों तथा विश्व के इतिहास में यह एक नई घटना है। अब तक विश्व अर्थतंत्र अमरीकी, ब्रिटिश तथा अन्य उच्च औद्योगीकृत देशों की मुद्राओं से चल रहा था। लेकिन इन विकासमान देशों ने अपनी-अपनी मुद्राओं को अन्तर्राष्ट्रीय मुद्राएं बनाने की दिशा में कुछ कदम उठाना शुरू कर दिया है। भारत समेत अन्य देशों ने ‘संरक्षणवाद’ का विरोध किया है अर्थात् साम्राज्यवाद के पक्ष में संरक्षण का। भारत एवं अन्य देशों के नेताओं ने विश्व आर्थिक मंदी के दौर में उचित कदम् उठाने की माँग की हैं। उन्होंने निर्णय लिया है कि संकट की इस घड़ी में वे एक दूसरे की मदद करेंगे। उन्होंने तय किया है कि वास्तविक अर्थतंत्र में परस्पर सहयोग बढ़ाया जाये। इस दिशा में सम्बद्ध देशों ने संयुक्त संगठन भी बना लिया है। ब्राजील के नेता लूई इनासियों लूला का कहना है कि आज बदलते विश्व में उचित भूमिका अदा करना ‘ब्रिक’ राष्ट्रों के सामने बड़ी चुनौती है, उन्होंने ‘दोहा राउंड’ की समुचित समाप्ति की माँग की। आज ‘ब्रिक’ देश विश्व अर्थतंत्र के विकास का 65 प्रतिशत पैदा करते हैं। दुनिया की लगभग आधी जनता इन देशों में रहती है ये देश विश्व का लगभग 40 प्रतिशत उत्पादन करते हैं। उनके विकास की गति दुनिया में सबसे अधिक हैं, फलस्वरूप वे एशिया तथा विश्व के नये विकास इंजन हैं। अब ये देश कृषि प्रधान नहीं रह गये। वे अब अधिकाधिक औद्योगिक इलेक्ट्रानिक तथा अन्य आधुनिकतम क्षेत्रों में विकास कर रहें हैं। विकासमान देशों में अब इतना आत्मविश्वास पैदा हो गया है कि वे ‘ब्रेटन वुड्स’ के जवाब में अपनी अलग मुद्रा व्यवस्था की बात कर रहे हैं। वास्तव में यह एक समानांतर व्यवस्था नहीं बल्कि बहु दिशावाद का विकास करके ‘ब्रिक’ तथा ऐसे अन्य देशों की मुद्राओं का विकसित देशों की अन्तराष्ट्रीय मुद्राओं के समकक्ष लाने तथा विश्व बाजार और मुद्रा व्यवस्था में अन्य के साथ कार्यशील मुद्रा विकसित करने का प्रयत्न हैं। आज विकासशील देश बहुत बड़े परिवर्तन की कगार पर खड़े हैं। -अनिल राजिमवाले 09868525812 लोकसंघर्ष पत्रिका में शीघ्र प्रकाशित

लो क सं घ र्ष !: लघुतम जीवन का अर्पण...

इसके विशाल पैरो में मानव का आत्म समर्पण। भावना विनाशी का क्रंदन लघुतम जीवन का अर्पण ॥ घर काल जयी आडम्बर, इस नील निलय के नीचे । भव विभव पराभव संचित, लालसा कसक को भींचे ॥ निज का यह भ्रम विस्तृत है , है जन्म मरण के ऊपर। यह महा शक्ति बांधे है, युग कल्प और मनवंतर ॥ डॉक्टर यशवीर सिंह चंदेल 'राही'

Tuesday, August 25, 2009

लो क सं घ र्ष !: ह्रदय-उपवन में एक बार ,प्रिय ! ........

युग-युग से प्यासे मन का , कुछ तो तुम प्यास बुझाते। ह्रदय-उपवन में एक बार ,प्रिय ! अब तो जाते॥ प्रतिक्षण रही निहार, अश्रुपूरित में आँखें राहें। मधुर मिलन को लालायित ये विह्वल व्याकुल बाहें दुःख भरी प्रेम की नगरी में, कुछ मधुर रागिनी गाते ह्रदय-उपवन में एक बार , प्रिय ! अब तो जाते इस निर्जन उपवन में भी, करते कुछ रोज बसेरा यहीं डाल देते प्रियवर ! मम उर में अपना डेरा॥ करते हम तन - मन न्योछावर ,जीवन - धन - दान लुटाते ह्रदय - उपवन में, एक बार, प्रिय ! अब तो जाते। सेज सजाकर तुम्हें सुलाते , निशदिन सेवा करते। इक टक पलकें खोल, नयन भर तुमको देखा करते निज व्यथित नयन - वारिधि में, प्रिय ! स्नान कराते ह्रदय उपवन में एक बार , प्रिय ! अबतो जाते अब पलक -पाँवडे राहो में , नयनो के बिछा दिए है। पग-पग पर हमने प्राणों के, दीपक भी जला दिए है॥ शून्य - शिखर जीवन - पथ हे, मंगलमय इसे बनाते ह्रदय - उपवन में एक बार, प्रिय! अब तो जाते कट सकेंगी तुम बिन , जीवन की लम्बी राहें रुक सकेंगी तुम बिन , दुःख- दर्द भरी ये आहें॥ निर्जीव व्यथित मम उर में , आशा का दीप जलाते ह्रदय उपवन में एक बार, प्रिय ! अब तो जाते॥ खुले रहेंगे सजल नयन , तृष्णा का अंत होगा। मधुर-मिलन जीवन , एक बार भी यदि होगा॥ विनती है यही तन-मन की, श्वासों में बस जाते। ह्रदय-उपवन में एक बार-प्रिय ! अब तो जाते॥ -मोहम्मद जमील शास्त्री

कटी पतंग की किस्मत

---- चुटकी---- कटी पतंग की किस्मत या तो निरर्थक हवा में उडेगी, या किसी पेड़ पर लटकी रहेगी उलटी-सीधी, या फ़िर एक साथ कई लोग उस पर झपट्टा मारेंगें उसको अपने कब्जे में करने के लिए, छीना झपटी में वह हमेशा की तरह तार तार हो जायेगी, अब बीजेपी नामक नई कटी पतंग का क्या होगा यह उसकी लीडरशीप बताएगी।

लो क सं घ र्ष !: लालच की रक्तिम आँखें...

लालच की रक्तिम आँखें , भृकुटी छल बल से गहरी असत रंगे दोनों कपोल ,
असी-काम पार्श्व में प्रहरी
मन में मालिन्य भरा है , 'स्व' तक संसार है सीमित संसृति विकास अवरोधी , कलि कलुष असार असीमित सव रस छलना आँचल में , कल्पना तीत सम्मोहन सम्बन्ध तिरोहित होते , क्रूरता करे आरोहन डॉक्टर यशवीर सिंह चंदेल "राही"

Monday, August 24, 2009

गोविन्द गोयल की चुटकी

---- चुटकी---- कंधार के अपने सम्बन्धों का फायदा उठाओ, अपना टैलेंट यहाँ क्यों बरबाद करते हो जसवंत जी, आप तो तुंरत पाक चले जाओ।

Sunday, August 23, 2009

लो क सं घ र्ष !: सरकारी गुंडन से बन्धु, बोलो कैसे जान बची॥

यह कविता मह्जाल के श्री सुरेश चिपलूनकर साहब को सादर समर्पित
असहाय गरीब मरैं भूखे, राशन कै काला बाजारी मौज करें प्रधान माफिया , कोटेदारों अधिकारी भष्टाचारी अपराधिन से, कइसे देश महान बची सरकारी गुंडन से बंधू, बोलो कैसे जान बची जब गुंडे , अपराधी, हत्यारे, देश कै नेता बनी जई हैं भष्टाचारी बेईमान घोटाले बाज विजेता बनी जई हैं फिर विधान मंडल संसद, कै कइसे सम्मान बची सरकारी गुंडन से बंधू, बोलो कैसे जान बची अब देश के अन्दर महाराष्ट्र, यूपी-बिहार कै भेदभाव धूर्त स्वार्थी नेता करते, देशवासीयों में दुराव कैसे फिर देश अखण्ड रही, कइसे राष्ट्रीय गान बची सरकारी गुंडन से बंधू , बोलो कैसे जान बची रक्षा कै जिन पर भार वही, अब भक्षक बटमार भये का होई देश कै भइया अब, जब चोरै पहरेदार भये कैसे बची अस्मिता जन की , कइसे आन मान बची सरकारी गुंडन से बंधु , बोलो कैसे जान बची देश कै न्यायधीशौ शामिल, हैं पी .एफ. घोटाले मा नहा रहे हैं बड़े-बड़े अब, रिश्वत कै परनाले मा जब संविधान कै रक्षक भटके, कइसै न्याय संविधान बची सरकारी गुंडन से बन्धु, बोलो कैसे जान बची साध्वी शंकराचार्य के, भेष में छिपे आतंकी लेफ्टिनेंट कर्नल बनकर, विध्वंस कर रहे आतंकी आतंकी सेना कै जवान ? फिर कैसे हिन्दुस्तान बची सरकारी गुंडन से बन्धु ,बोलो कैसे जान बची मठाधीश कै चोला पहिने, देश मा आग लगाय रहे मानव समाज मा छिपे भेडिये , हिंसा कै पाठ पढाय रहे नानक चिश्ती गौतम की धरती, कै कइसै पहचान बची सरकारी गुंडन से बन्धु, बोलो कैसे जान बची बलिदानी वीर जवानन कै, अब कइसै सच सपना होई नेहरू गाँधी अशफाक सुभाष , कै कइसै पूर संकल्पना होई नन्हे मुन्नों के होठन पर, फिर कैसे मुस्कान बची सरकारी गुंडन से बन्धु, बोलो कैसे जान बची मोहम्मद जमील शास्त्री

लो क सं घ र्ष !: यूपी एसटीएफ का एक और कारनामा

‘22-23 जून 07 की रात जलालुद्दीहन उर्फ बाबू भाई के साथ मो0 अली अकबर हुसैन, अजीजुर्रहमान और शेख मुख्तार चारबाग लखनऊ, रेलवे स्टेशन किसी आतंकी वारदात को अजांम देने आए। बाबू भाई तीनों को वहींJustify Full रुकने के लिए कह, कहीं चला गया। 23 की सुबह चाय पीने के लिए जब वे तीनों बाहर आए तो टीवी पर चल रहे समाचार कि बाबू भाई गिरफ्तार, की खबर सुनने के बाद वे घबरा गए। इस आपा-धापी में उन लोगों ने रायबरेली जा रही एक जीप से पीजीआई के पास पहुंचे जहां टूटी हुई कोठरी की पिछली दीवार के पास गड्ढा खोद उसमें डेटोनेटर और हैंड गे्रनेड गाड़ दिया।’ थर्ड क्लास की जासूसी फिल्मों से ली गयी इस पुलिसिया पटकथा से पिछले दिनों तब पर्दा हटा जब पता चला कि अजीजुर्रहमान को 22 जून 07 को तिलजला कोलकाता में डकैती करने की साजिश के आरोप में गिरफ्तार कर अलीपुर न्यायालय में पेश किया गया था। जहां न्यायालय ने उसे 26 जून 07 तक की पुलिस रिमांड में दे दिया था। ऐसे में सवाल उठता है कि जब अजीजुर्रहमान पुलिस की हिरासत में था तो वह कैसे तकरीबन हजार किलो मीटर की दूरी तय करके लखनऊ आ सकता था। कहानी में आए इस नए मोड़ से यूपी एसटीएफ सकते में आ गयी है कि एक बार फिर से उसकी थुक्का-फजीहत होने जा रही है। यूपी के एडीजी बृजलाल इस पर कोई प्रतिक्रिया यह कहते हुए नहीं दे रहें हैं कि मामला कोर्ट में है। पुलिस की इस गैरजिम्मेदाराना हरकत पर उत्तर प्रदेश के पूर्व पुलिस महानिदेशक एस आर दारापुरी कहते हैं कि इस तरह की फर्जी गिरफ्तारियां एसटीएफ की कार्यशैली बन गयी हैं। जिसके चलते सैकड़ों निर्दोष जेलों में सड़ने को मजबूर हैं। इसके पीछे वजह बताते हुए वे कहते हैं कि एसटीएफ को जिस तरह की खुली छूट मिली है, जो बहुत हद तक गैरकानूनी है, उससे ही इस तरह की स्थितियां उत्पन्न हुयी हैं। क्योंकि उनको इतने विशेषाधिकार मिले हैं कि उनके हौसले बुलंद हो गए हैं। ऐसे में वे पेशेवर अपराधियों की तरह लोगों को फर्जी मामलों में फसा रहे हैं या एनकाउंटर कर रहे हैं। बहरहाल, सवाल यहां यह है कि इतनी भारी मात्रा में विस्फोटक पुलिस को कहां से मुहैया हुआ। क्योंकि अजीजुर्रहमान कोई पहला शख्स नहीं है, इसके पहले आफताब आलम अंसारी जिसे हुजी का एरिया कमांडर और कचहरी धमाकों का मास्टर माइंड बताया गया था उसके पास से तो डेढ़ सौ कुंतल आरडीएक्स बरामदगी का दावा पुलिस ने शुरु में किया ; पुलिस से कोई कैसे जीते/1 अपै्रल 08 प्रथम प्रवक्ता द्ध। पर मात्र 22 दिनों में रिहाई के बाद यह सवाल गायब हो गया कि पुलिस को किस सरकारी या आतंकी संगठन से विस्फोटक मुहैया हुआ था। दरअसल इस पूरी थ्योरी को गढ़ने के लिए यूपी पुलिस ने एक अभियान चलाया था। जिसका जिक्र उसने चार्जशीट में भी किया है। पर इस पुलिसिया अभियान का पर्दाफाश उसी समय हो गया था जब हरिद्वार से उठाए गए नासिर जिसकी गुमशुदुगी की रिपोर्ट और पेपरों में आयी खबरों से यह बात आ चुकी थी कि उसे एसटीएफ ने ही उठाया था। उसी नासिर को जब पुलिस ने 21 जून 07 के प्रेस कानफ्रेस में पेश किया तो पत्रकारों ने सवाल कर दिया कि क्या यह वही नासिर है जिसे ऋषिकेश से उठाया गया था। इस पर पुलिस सकते में आ गयी और तकनीकी कारणों का हवाला देते हुए उसे वहां से हटा दिया और उस पर कुछ बोलने से इनकार कर दिया। ; आतंक, उत्पीड़न और वहशीपन यानी एसटीएफ! 16 जुलाई 08 प्रथम प्रवक्ता द्ध। बाद में आयी चार्जशीट में पुलिस ने उसे उसी दिन लखनऊ से गिरफतार करने का दावा किया। हूजी के नाम पर पकड़े गए इन युवकों को पकड़ने के अभियान की कागजी शुरुवात 21 जून 07 से शुरु हुयी। जिसमें उसने नासिर को नाका से तो याकूब को हुसैनगंज थाना क्षेत्र लखनऊ से गिरफ्तार करने का दावा किया। नासिर की कहानी से ही मिलती जुलती याकूब की भी कहानी है। याकूब की पत्नी शमा बताती हैं कि 9 जून 07 को 2 बजे के तकरीबन याकूब अपने गांव तारापुर से नगीना के लिए गया, उसके बाद उसका कुछ अता-पता नहीं चला। वे बताती हैं कि 22 तारीख के अखबारों से उन लोगों को मालूम हुआ कि याकूब को पुलिस ने पकड़ लिया है। पुलिसिया पटकथा के अनुसार नासिर और याकूब से पूछताछ में यह जानकारी हुयी कि जलालुद्दीन उर्फ बाबू भाई और नौशाद एक बड़ी आतंकी वारदात को अंजाम देने के लिए लखनऊ में हैं। 22 जून 07 की रात के तकरीबन साढ़े ग्यारह बजे मुखबिर से सूचना मिली कि वे अमीनाबाद के किसी होटल में भारी मात्रा में विस्फोटक और हथियारों के साथ हैं और वे बस स्टैंड से कहीं बाहर निकलने की फिराक में हैं। इसके बाद क्या था, पुलिस ने सूचना के आधार पर इनकी घेरेबंदी की जिसमें पुलिस के साथ इनकी मुठभेड़ भी हुयी। जिसमें पुलिस अंततः सफल हुयी और रात के तकरीबन 2ः40 पर जलालुद्दीन और नौशाद को एके 47, पिस्टल और भारी मात्रा में विस्फोटक के साथ गिरफतार किया। इस गिरफ्तारी के बाद की घटना बड़ी दिलचस्प ह।ै पुलिस के अनुसार गिरफ्तारी के तत्काल बाद उन्होंने बताया ‘दो बांगलादेशी हमारे पीछे रिक्शे से आ रहे थे। शायद उन्होंने आपको देख लिया तो वे हमारे पीछे नहीं आए। वे हमारी मदद के लिए आज ही आए थे उनका नाम हम नहीं जानते, अजीज जानता है। क्योंकि वे लोग उसी के गुर्गे थे और हम सबको ट्रेनिंग के वक्त नाम नहीं बताया जाता।’ यहां गौर करने की बात है कि इन दोनों को अजीज का नाम मालूम था। दूसरी बात यह कि जिस जलालुद्दीन को हूजी का बहुत बड़ा मास्टर माइंड पुलिस ने बताया वह गिरफ्तारी के तुरंत बाद किसी रट्टू तोते की तरह सब कबूलने लगा। और उसका भरोसा करके पुलिस ने पीछे आ रहे दोनों लोगों का पीछा करने की कोशिश भी की। इतना ही नहीं इन लोगों ने अजीजुर्रहमान के बारे में यह भी बताया ‘अजीज और उसका भाई शहर से आरडीएक्स कमर के कहने पर हमारे साथ-साथ अन्य टेªनिंगशुदा लोगों को देते थे।’ यहां आरडीएक्स का ऐसे नाम लिया गया है जैसे वो किराने पर मिलने वाली कोई वस्तु हो। जलालुद्दीन का यहां एक और बयान कि अजीजुर्रहमान 22 जून 07 को ही लखनऊ से कोलकाता चला गया था, एक और अंर्तविरोध पैदा करता है। जो सुनवायी के दौरान ही प्रमाणित होगा कि वह पुलिस के दबाव में दिया गया बयान था कि खुद उसका। इस पूरी घटना में अजीजुर्रहमान का इकबालिया बयान और उसके बयान पर उप अधिक्षक आर एन सिंह ने जो बरामदगी दिखायी वो काफी महत्वपूर्ण है। जिसमें उसने कहा कि जलालुद्दीन की गिरफ्तारी के बाद वह अपने साथियों के साथ विस्फोटक छुपाकर ‘इलाहाबाद होते हुए कलकत्ता चले गए थे, वहीं पकडे़ गए। लखनऊ की पुलिस हमें लखनऊ लाकर जेल में बंद कर दी।’ ये बयान स्पष्ट करता है कि यह अजीजुर्रहमान का नहीं बल्कि पुलिस का बयान है। दूसरा कि जिस तरह इसमें कहा गया कि उसे कोलकाता में पकड़ा गया वह स्पष्ट करता है कि अजीज के बारे में यूपी पुलिस उस तथ्य को कि वह अलीपुर में किसी दूसरे मुकदमें के तहत बंद है, नहीं बताना चाहती थी। क्योंकि इससे उसकी पूरी कहानी ही बिगड़ जाती क्योंकि एक ही व्यक्ति जो कोलकाता में पुलिस की अभिरक्षा में उसी दिन था वह कैसे लखनऊ पहुंच सकता था। आतंकवाद के नाम पर बंद कई निर्दोषों को छुड़ा चुके और कई बार अदालतों में सांप्रदायिक और लंपट वकीलों के शिकार बने वकील मो0 शोएब कहते हैं कि अजीजुर्रहमान ही नहीं ऐसे दर्जनों लड़के हैं जो पुलिस की अन्र्तविरोधी फर्जी पटकथाओं के शिकार हैं। ऐसे तमाम लोगों को वकील मिल जांए तो वे छूट सकते हैं पर एसटीएफ और पुलिस उनको वकील मिलने ही नहीं देते और अगर कोई उनका मुकदमा लड़ता है तो उन पर हमला करवाते हैं। वे कहते हैं कि अजीजुर्रहमान का मुकदमा उन्हें दिसंबर में मिला और मैंने सारी तफ्तीश कर जमानत अर्जी डाल दी है और वह बस चंद दिनों का सरकारी मेहमान है। बड़े अफसोस के साथ वे कहते हैं कि अजीज सिर्फ वकील न मिलने के चलते इतने दिनों तक जेल में बंद रहा उसके खिलाफ तो कोई सबूत ही नहीं बनता बल्कि उल्टे पुलिस के खिलाफ सबूत बन रहे हैं। अजीजुर्रहमान ईंट भट्ठा मजदूर था। अजीज की पत्नी आरिफा बताती हैं कि इस घटना ने उनकी घर-गृहस्थी को बर्बाद कर दिया और वे दाने-दाने को मोहताज हो गए हैं, क्योंकि अजीज ही एक कमाने वाला था। वे कहती हैं कि उनके पास तो वकील रखने तक का पैसा नहीं है। अजीज की बूढ़ी मां सफूरा बीवी पूछने पर कहती हैं कि खुदा के यहां देर है अंधेर नहीं, वह हमारे साथ न्याय करेगा। पीयूसीएल के प्रदेश अध्यक्ष और वरिष्ठ मानवाधिकार नेता चितरंजन सिंह कहते हैं कि पुलिस में जिस तरह फर्जी तरीके से लोगों को उठाने की प्रवृत्ति बढ़ी है उस पर अंकुश लगाने के लिए जरुरी है कि अगर कोई अभियुक्त छूटता है और पुलिस के चार्जसीट फर्जी निकलती है तो ऐसे में राज्य को ऐसे पुलिस अधिकारियों के खिलाफ मुकदमा चलाने और दंड देने की गारंटी करनी चाहिए। जो पुलिस वाले ऐसी घटनाओं में झूठी गवाही देते हैं उन पर फर्जी गवाही देने का मुकदमा चलाया जाना चाहिए। -राजीव यादव लोकसंघर्ष पत्रिका में जल्द प्रकाशित

लो क सं घ र्ष !: इर्ष्या से अधर सजाये....

यह स्वार्थ सिन्धु का गौरव अति पारावार प्रबल है सर्वश्व समाहित इसमें, आतप मार्तंड सबल है मृदुभाषा का मुख मंडल, है अंहकार की दारा सिंदूर -मोह-मद-चूनर, भुजपाश क्रोध की करा आश्वाशन आभा मंडित, इर्ष्या से अधर सजाये पर द्रोही कंचन काया, सुख शान्ति जलाती जाए डॉक्टर यशवीर सिंह चंदेल 'राही'

Saturday, August 22, 2009

लो क सं घ र्ष !: अलि को पंकिल कर देता...

बंधन का ज्ञान किसे है , सन्दर्भ शून्य कर देता मादक मकरन्द लुटाता , अलि को पंकिल कर देता भवसागर जीवन नैया , लघुता पर रोदन करती इश्वर की माया विस्तृत, कर्मो का शोधन करती प्रणय ज्वाल में तिल तिलकर जीवन का जलते जाना प्रतिपल लघुता आभाषित , संयम का गलते जाना
डॉक्टर यशवीर सिंह चंदेल "राही"

Friday, August 21, 2009

लो क सं घ र्ष !: मीडिया के खौफनाक दस्ते

उस दिन ट्रेन से लौट रहा था। जैसा कि स्टेशन पर ट्रेन रुकते ही अफरा-तफरी का माहौल हो जाता है, उसी दरम्यान किसी ने कसाब-कसाब चिल्लाया। हर शख्स की निगाहें खिड़की से चिल्ला रहे उस शख्स पर और जिस चार साल के बच्चे को वह सम्बोधित कर रहा था की तरफ गयी। अफरा-तफरी के माहौल में न जाने कहां से एक चुप्पी और फुसफुसाहट सी आयी और धीरे-धीरे सब सामान्य हो गया। हमने कसाब के बारे में काफी देर तक सोचा। और जिस भी निष्कर्ष पर पहुंचते वहां कहीं न कहीं मीडिया नजर आती। मीडिया ने इस तरह चिल्ला-चिल्लाकर यह नाम लिया कि आज हर शख्स इससे वाकिफ हो गया है। कुछ शब्द ऐसे हो जाते हैं जिनके संबोधन से पहले हमें बड़ी संजीदगी से अपने आस-पास देखना होता है। और अगर कहीं वह खुद के धर्म व निवास स्थान से जुड़ा हो तो और भी। ऐसा ही एक शब्द आजमगढ़ पिछले दिनों प्राइम टाइम में राष्ट्रीय उत्सुकता का विषय बना। जिन वजहों से आजमगढ़ जाना गया उन घटनाओं को बीते साल भर होने जा रहे हैं। पर घटनाएं जैसे-जैसे पुरानी हो रही हैं उस पर जमीं धूल की परत औरों के मन में इसके प्रति और कुंठा भरती जा रही है। जो भी हो आजमगढ़ आज मानवाधिकार हनन के सबसे बड़े मरकज के रुप में तब्दील हो गया है। जहां के लोगों के जेहन में इस हमारे सबसे बड़े कथित लोकतंत्र को टिकाए रखने के लिए शहादत और पीड़ित होने का पूर्वानुमान हमेशा सालता रहता है। सरकारों की जरुरत, प्रशासन के द्वारा और मीडिया की सहभागिता से इस पूरे मिथक की रचना की गयी है। आजमगढ़-आतंकवाद, ‘मिथक और यथार्थ’ एक ऐसा सवाल है जिसका उत्तर देते-देते वे थक गए हैं। बस एक जुबान से चाहे इसे सवाल कहें या मांग-अपने मासूम बच्चों की हत्या की न्यायिक जांच। शायद इनका उत्तर भी यहीं से पूरा होगा। चारों तरफ एक सरहद जिसके बाहर वो आतंकगढ़ के रुप में जाना जाता है। दुनिया को ‘घुमक्ड़ी’ और ‘भागो नहीं दुनिया को बदलो’ की नसीहत देने वालों को आज एक सरहद में कैद कर दिया गया है। ‘जहां-जहां आदमी, वहां-वहां आजमी’ कहने वालों के स्वर धीमे हो गए हैं। हो भी क्यों न अपने ही देश के महानगरों में एक अदद कमरे को तरसना पड़ रहा है। तो वहीं अन्दर अनाधिकृत खौफ के दस्तों की निगरानी में जीने को मजबूर हैं। आज आजमगढ़ के भविष्य के इतिहास की रचना को मीडिया ऐसे व्याकुल है कि उसने उसके पुराने इतिहास को ही विस्मृत कर दिया है। जैसे कैफी-राहुल बीते जमाने की चीज हों। इस नए प्राइमटाइमिया इतिहास लेखन से लड़ने के लिए आजमगढ़िए तैयार हैं और नए-नए तरह के हथियार गढ़ रहे हैं। जैसे वे कभी ‘सांप्रदायिक और अफवाह फैलाने वाले पत्रकार यहां न आएं’ लिखे बैनर बांधते हैं तो कभी जब इन कुत्सित इतिहासकारों को उनकी तमाम नैतिकताओं की याद दिलाने के बावजूद जब वे नहीं मानते तो जनकार्यवाई का भी सहारा लेते हैं। बहुत से पत्रकार इस वजह से मौका-ए-वारदात पर भी अब आजमगढ़ में नहीं जाते। क्योंकि उन्हें अपनी जबान पर यकीन रहता है कि वे कुछ ऐसा करेंगे की उन पर जनकार्यवाई होगी। इनकी वजह से ही अपने मासूम बच्चों की हत्या, जेलों में दी जा रही यातना व दर्जनों को फरारी के नाम पर पुलिस कब मार गिराए इन आशंकाओं के साथ यहां के लोग जीने को अभिशप्त हैं। कभी-कभी यहां तक कह देते हैं कि मारना है तो सीधे पूरे परिवार को फासी पर चढ़ा दे सरकार पर इस तरह हमारे मासूमों को न मारे। पिछले दिनों यहां आए मानवाधिकार संगठनों की जांच के दौरान खूफिया, पुलिस व मीडिया के जिस तांडव से हम रुबरु हुए वह काफी भयावह था। इस दौरान साथ गयी अमेरिकी मानवाधिकार कार्यकर्ती से इस हालात को समझ कर इस बात का एहसास हुआ कि उनके और हमारे लोकतांत्रिक प्रणाली में मानवाधिकार हनन की सीमाओं में काफी अंतर था। बहुत छोटी-छोटी बातें कि गिरफ्तारी के बाद फोन नहीं करने दिया, जेल में मुलाकात करते वक्त पुलिस रहती है, उनके लिए बड़े सवाल थे। जबकि यहां की गयी गिरफ्तारियों में अधिकांश को कहीं से उठाकर हफ्तों बाद कहीं और से भारी मात्रा में बम-बारुद के साथ दिखाया गया है या फिर किसी फर्जी मुठभेड़ में मार गिराने का दावा किया गया, जो इतना सामान्य हो चुका है कि अब न्यायालय भी इस पर बिना किसी झिझक के पुलिस के पक्ष में निर्णय दे देती है। लोकतंत्र एक आधुनिक विचार है पर हमारी पुलिस या शासन प्रणाली सामंती विचार की है। जैसा कि इसी दौरान सरायमीर के एक इस्पेक्टर जिसको दौड़ने में हाफा छूट जाएगा के आने पर हमने कुर्सी नहीं छोड़ी और नमस्कारी नहीं की तो वे काफी उखड़ गए। हमको वे इस सम्मान के लायक नहीं लगे क्योंकि जांच या फिर पूरी लड़ाई ही इस पूरे तंत्र के खिलाफ है ऐसे में हमारा यह व्यवहार स्वाभाविक था। यहां इस बात पर सोचने की बात है कि वो हमसे क्यों ऐसी अपेक्षा रखता है। इसका उत्तर साफ है कि हमारा पूरा तंत्र एक लोकतांत्रिक सामंतवाद की परिधि में ही हमें आजादी देता है। उसके बाहर जाने पर तमाम काले कानूनों और जो हमारे लिए गैर कानूनी या असंवैधानिक हैं उनकी अपनी जरुरतों के चलते वे कानूनी और संवैधानिक हो जाते हैं। एक इंस्पेक्टर मीडिया वाले के साथ आया और कहा मीडिया जानना चाहती है कि आप कहां जाएंगे। हमने कहा हम नहीं बताएंगे। वो तुरंत कुछ लोगों का नाम हमें बताने लगा और हमारी व्यक्तिगत बातों को भी। यहां गौर करने की बात है कि इस पूरे क्षेत्र में जो भी लोग मानवाधिकार हनन का सवाल उठाते हैं गैर कानूनी तरीके से उनके मोबाइल टेप किये जाते हैं और पुलिस उनको धमकी देती है। संजरपुर जिसे मीडिया ने आतंकवाद के नाम पर चल रहे खूनी यु़द्ध के लिए लड़ाकों की नर्सरी तो कभी आतंकवादियों के गांव के रुप में स्थापित किया है वहां मीडिया के कारिंदे पुलिस की गाड़ियों में घूमते नजर आए। जिनके फोटो खींचने पर वे अपना मुंह हाथों से ठीक वैसे ही छुपा रहे थे जैसे किसी अश्लील जुर्म में पकड़े गए लोग। जिन्हें पकड़े जाने के बाद इस बात का एहसास रहता है कि वे गलत कर रहे थे और उनकी यह छवि समाज में नहीं जानी चाहिए। पर यहां तो हद थी सब शर्म-हया ये धो कर पी चुके थे। इंजीनियरिंग के छात्र सरवर जिसे उज्जैन से एसटीएफ ने उठाकर लखनऊ में गिरफ्तार दिखाया, जिसकी उज्जैन में अपहरण की रिपोर्ट भी दर्ज है, के घर चांद पट्टी जाना हुआ। यहां तो खुफिया और मीडिया गुंडई पर उतारु हो गए कि उनके परिजनों बयान उनके सामने लिया जाय। सरवर को पिछले दिनों पेशी के दौरान कैदियों से मरवाया-पिटवाया गया। हम लोगों ने इन लोगों से कहा कि यह घटना उत्पीड़न की है और आप लोगों के सामने परिजन बेबाकी से बोल नहीं पाएंगे। खुफिया के लोग तो चले गए पर पत्रकार ने यह तर्क दिया कि ऐसा कर हम उसके काम में बाधा पहुंचा रहे हैं। यहां तंत्र के तीनों स्तंभों से मानवाधिकार हनन की लड़ाई लड़ रहे लोगों को दूसरी और अहम लड़ाई मीडिया से लड़नी पड़ रही है। वहां से चलते-चलते उस पत्रकार से हमने कहा कि भाई ऐसे धमका के पत्रकारिता नहीं की जाती। वो बिना बोले सिर हिलाते हुए सहमति भी व्यक्त कर रहा था। पर तभी पीछे से दो पहिया वाहन पर गमछे से मुंह बाधे आखों पर काला चश्मा लगाए गुंडों की तरह लगने वाले खुफिया पुलिस ने पत्रकार को गाड़ी पर बैठने का इशारा किया। हमने फिर उसे समझाया कि यार पुलिस वालों के साथ पत्रकारिता नहीं की जाती पर वह हमें झटकते हुए गाड़ी पर बैठ गया। फिर क्या था हमने भी कैमरा निकाला और उनकी फोटो खींचने की कोशिश की। दोनों मुंह छिपाते हुए कैमरे और हम पर हमलावर हो गए। पर उनके पास हमारे सवालों का कोई उत्तर न था। राजीव यादव लोकसंघर्ष पत्रिका में शीघ्र प्रकाशित

चुटकी

----- चुटकी----- भाजपा कहो या फ़िर कहो कांग्रेस आई, नाम के अलावा दोनों में अब कोई फर्क नहीं है भाई।

Thursday, August 20, 2009

लो क सं घ र्ष !: सरकारी गुन्ड़न से बंधू , बोलौ कैसे जान बची॥

नेता पुलिस दुऔ हत्यारे ,कैसे मान सम्मान बची। सरकारी गुन्ड़न से बंधू, बोलौ कैसे जान बची ॥ नेता जी सत्ता के बल पर, घर औ जमीन हथियाय रहे। जो करें शिकायत थाने पर, थानेदारो लातियाय रहे ॥ असहाय गरीब किसानन कै, अब कैसे खेत मकान बची। सरकारी गुन्ड़न से बंधू, बोलौ कैसे जान बची ॥ अपराधी चोर लुटेरा अब, सत्ता कै दामन थाम रहे। औ बड़े-बड़े आइ ए एस , सब उनका ठोक सलाम रहे ॥ कैसे देश की महिमा, कैसे देश कै गौरव गान बची। सरकारी गुन्ड़न से बंधू, बोलौ कैसे जान बची ॥ जहाँ देखो ठेकेदारन कै, बस अब तौ तूती बोल रही। माफिया कै नजर भाई टेढी , अफसरन कै कुर्सी डोल रही॥ कैसे ई दूषित समाज से, भारत कै पहिचान बची। सरकारी गुन्ड़न से बंधू , बोलौ कैसे जान बची॥ ईमानदार अधिकारीं का सत्ता कै गुंडे डांट रहे। भष्टाचारी अफसर नेता, सब मिलिकै बन्दर बाँट रहे॥ सीधे साँचे अधिकारिन कै , अब कैसे ईमान बची। सरकारी गुन्ड़न से बंधू , बोलौ कैसे जान बची॥ मोहम्मद जमील शास्त्री

लो क सं घ र्ष !: अनगिनत नाम बंधन के

नियति ,कर्म या भाग्य ईश, अनगिनत नाम बंधन के। अनचाहे ही अनुबंधित, है सारे जीव जगत के ॥ यह धरा स्वर्ग हो जाए, क्या मानव जी पायेगा । पतझड़ में कलिका फूले , क्या सम्भव हो पायेगा ॥ पुष्पों को तोड़ पुजारी , साधना सफल करता है। पाषाण ह्रदय का मन भी, क्या उसे ग्रहण करता है॥ डॉक्टर यशवीर सिंह चंदेल 'राही'

असुविधा: वे चुप हैं

असुविधा: वे चुप हैं

Tuesday, August 18, 2009

लो क सं घ र्ष !: प्रतिरोध के नये क्षेत्र: साहित्य, दलित और मुस्लिम दलित

हिन्दी में दलित-साहित्य का इतिहास साहित्य की जनतांत्रिक परम्परा तथा भाषा के सामाजिक आधार के विस्तार के साथ जुड़ा हुआ है। इसे सामंती व्यवस्था के अवसान, जो निश्चित ही पुरोहितवाद के लिए भी एक झटका साबित हुआ तथा समाज में जनतांत्रिक सोच के उदय, भले ही रूढ़िग्रस्त ही क्यों न हो, के साथ ही प्रजातांत्रिक शासन-व्यवस्था के एक महत्वपूर्ण पड़ाव के रूप में भी देखा जा सकता है। यहाँ हम यह स्वीकार करते चलें कि अन्यायपरक वर्ण-व्यवस्था पर आघात-दर-आघात करने वाला कविता का भक्ति-आंदोलन, ज्योतिबा फुले द्वारा आरम्भ किया गया सामाजिक पुनर्निर्माण का ऐतिहासिक अभियान, वर्ण-व्यवस्था के जुल्म से निजात पाने की इच्छा तथा प्रतिरोधस्वरूप बड़ी संख्या में संभव हुआ धर्मांतरण-जैसी दूरगामी प्रभावों वाली घटनाएँ सामंती व्यवस्था के काल में ही घटित हुई। भारतीय समाज, उसमें भी ज़्यादा अकल्पनीय दमन से त्रस्त दलित वर्ग को महामुक्ति के चिरस्मरणीय दूत के रूप में बाबा साहब भीमराव अम्बेडकर का मिलना (मुक्ति-पथ पर जिनके कदमों के निशान बहुत गहरे हैं) एक सामंत का ही अवदान है। मानववादी उदारता से उपजी सहानुभूति की यह प्रवृत्ति ही साहित्य में भी दलित-दमन के त्रासद यथार्थ के प्रभावशाली चित्रांकन का आधार बनी। कहना होगा कि इस प्रवृत्ति को प्रौढ़ता आधुनिकताावदी सोच के प्रभाव में ही प्राप्त हो पायी। हिन्दी साहित्य के इतिहास का यह रोचक संयोग है कि सामंतवादी वैचारिकता से संघर्ष करते हुए प्रेमचंद, निराला तथा कुछ दूसरे लोगों में यह प्रवृत्ति विकसित हुई। यही वह काल है, बल्कि थोड़ा पहले, जब प्रसिद्ध शायर इक़बाल के सोच में भी इस प्रवृत्ति ने जगह बनायी। उनकी बहुत मशहूर पंक्ति है:- ‘जो करे इम्तियाजे़ रंग-ओ-खूँ मिट जाएगा’ यानी जो रंग व रक्त के आधार पर पक्षपात करेगा मिट जाएगा। वे आह्वान करते हैं:- आ ग़ैरियत के पर्दे इक बार फिर उठा दें, बिछड़ों को फिर मिला दें, नक़्शे दुई मिटा दें। नज़्म ‘नानक’ में वे दलित यथार्थ की इस तह तक जाते हैं:- आह! शूद्र के लिए हिन्दुस्तान ग़मख़ाना है दर्दे इन्सानी से इस बस्ती का दिल बेगाना है बिरहमन सरशार है अब तक मए-ए-पिंदार में शम्मे गौतम जल रही है महफ़िले अग़ियार में। उनका इशारा बौद्ध धर्म के प्रति दलितों में बढ़ते आकर्षण तथा ब्राह्मणों द्वारा उनके तिरस्कार की ओर है। उन्होंने ब्राह्मणों को पुकारकर कहा कि तुम्हारे बुतक़दे के बुत पुराने हो गये हैं, उन्हें बदल डालो और लोकतंत्र का ज़माना आ रहा है, दलितों का दमन बंद करो। इससे सहानुभूति को दलित लेखन का प्रमुख निकर्ष मान लेने का तात्पर्य नहीं लेना चाहिए। सच्चे दलित लेखन में स्वानुभूति व सहानुभूति में किसकी भूमिका प्रमुख है यह विवाद अभी समाप्त नहीं हुआ है। वह जारी है। दोनों के पक्षधर अपनी-अपनी जगह डटे हुए हैं। कुछ मानते हैं कि सहानुभूति से दलित जीवन का वास्तविक यथार्थ उभारा जा सकता है, तो दूसरे पक्ष का बल है कि स्वानुभूति के बिना ऐसा संभव नहीं है। ‘‘दलित समाज और सवर्ण समाज के अनुभव अलग ही नहीं, अपितु विपरीत होते हैं। दोनों के अनुभव और जीवन के स्तर का अंतर उनके जीवनबोध और सौंदर्यबोध में भी अंतर ला देता है। यही वह अन्तर है, जो दलित-साहित्य के संदर्भ में ‘स्वानुभूति’ और ‘सहानुभूति’ के प्रश्न को अनिवार्य बनाता है। यद्यपि प्रेमचंद और निराला सरीखे साहित्यकारों के संदर्भ में दावा किया जाता है कि साहित्य-सर्जन के लिए जीवनानुभव ग़ैर जरूरी है।’’ (राजेश कुमार, दलित साहित्य - 2006) राजेश कुमार ने इसी लेख में डाॅ0 विश्वनाथ त्रिपाठी की कुछ पंक्तियाँ उद्धृत की हैं, जिनमें जीवन-बोध को प्रमुखता दी गयी है: ‘‘बोध हो भी, तो जरूरी नहीं कि निजी अनुभव से बना हो। यह बोध या चेतना ज़्यादा जरूरी चीज़ है। निराला ने ‘विधवा’ पर कविता लिखी। वे खुद तो विधवा नहीं थे। प्रेमचंद ने होरी जैसा किसान गढ़ा। यह सब बोध से पैदा हुआ।’’ वीरेन्द्र यादव ने तो यह घोषणा तक कर डाली कि जिस साहित्य में प्रेमचंद एवं निराला सरीखे दलितों-पीड़ितों के प्रवक्ता एवं पक्षधर रहे हों, वहाँ दलित-साहित्य की पक्षधरता के नाम पर किसी साहिव्योतर प्रेरणा की कोई आवश्यकता नहीं।’’ (उत्तर प्रदेश, दलित विशेषांक) मुद्राराक्षस सामाजिक न्याय के लिए दोनों तरह की अनुभूतियों की भूमिका को खारिज करते हैं और शिवकुमार मिश्र निराला के ‘चतुरी चमार’ को सहानुभूति व स्वानुभूति दोनों प्रेरणाओं का उदाहरण मान लेने का आग्रह करते हैं। ऐसा आग्रह करते हुए वे यह अनुमान नहीं लगा पाते कि इससे बहुत सारे लोग विचलित हो सकते हैं। दरअसल, भक्तिकाल के लंबे अंतराल के बाद बीसवीं सदी में दलित-यातना के प्रति प्रकट रूप में पहला ध्यान औपनिवेशिक मुक्ति के संघर्ष की तीव्रता के दौर में गया। यानी कि दलित मुक्ति की चिंता दूसरे या तीसरे नंबर पर थी और मुल्क की आज़ादी की चिंता पहले नम्बर पर। इस ओर ध्यान प्रमुख रूप से उन लेखकों का गया, जो तात्कालीन सामाजिक हालात से अपनी संवेदनशीलता या आगे बढ़ी हुई चेतना के कारण गहरे तक असंतुष्ट थे, जिनके पास आधुनिक से प्रभावित निश्चित सामाजिक दृष्टिकोण था। अतः ऐसे लेखकों की कविताओं या कहानियों में चित्रित दलित यथार्थ न तो स्वानुभूति से प्रेरित है और न सहानुभूति से, इसमें मुख्य भूमिका सामाजिक दृष्टिकोण की है। उदार मानवतावादी चेतना का भी कुछ दखल हो सकता है। दलित जीवन अर्थात् अपने अनुभवों को ही रचना में डालते हुए दलित रचनाकार के लिए भी इस दृष्टिकोण का पर्याप्त महत्व है। इसके अभाव में रक्त धधका देने वाले दमन व यातना का बहुत सच्चा अनुभव भी बड़ा रचनात्मक अनुभव नहीं बन सकता। यह सामाजिक चेतना, जो संवेदनशील व्यक्ति को अन्याय के विरूद्ध सक्रिय करती है, यदि दलित रचनाकार के पास नहीं है, तो वह अन्याय व दमन का प्रथम अनुभूति रखने के बावजूद उसी तरह सक्रिय नहीं हो पाएगा न वह उसी दृढ़ता से वैसा स्टैण्ड ले पाएगा जैसा प्रेमचंद ने ‘सद्गति’, ‘ठाकुर का कुआं’, ‘दूध का दाम’ या ‘गोदान’ में, जगदीशचन्द्र ने ‘धरनती धन न अपना’ या ‘नरक कुंड में वास’ में; गोपाल उपाध्याय ने ‘एक टुकड़ा इतिहास’ में, मुद्राराक्षस ने ‘दण्डविधान’ में; मदन दीक्षित ने ‘मोरी की ईंट’ में या शिवमूर्ति ने अपनी लगभग सभी कृतियों में लिया। हम ओमप्रकाश वाल्मीकि की ‘शव यात्रा’, ‘सलाम’; सूरजपाल चैहान की ‘बदबू’; रमणिका गुप्ता की ‘दाग दिया सच’; महेश कुमार केसरी की ‘क़ैद’ कहानियों का उदाहरण ले सकते हैं। ये कहानियाँ कौन-सा स्टैण्ड लेती नज़र आती हैं। यह तो हो सकता है कि अखिलेश की कहानी ‘ग्रहण की बदबू’ की अपेक्षा सूरजपाल चैहान की कहानी की बदबू ज़्यादा तेज़ और सघन हो और दूर तक पीछा करती हो तथा अखिलेश जिस बदबू में अपनी प्रतिभा के विकास के साक्ष्य देख रहे हों या अपनी पक्षधरता की व्याकुलता, वहीं सूरजपाल चैहान की यह गंध एक समुदाय कि यातना के रूप में सताती हो; परन्तु प्रश्न यही है कि वह इस गंध या इस गंध से पैदा हुई व्यथा से क्या काम लेना चाहते हैं। दलित यथार्थ के चित्रांकन से साहित्य से क्या काम लेना चाहते हैं? दलित यथार्थ के चित्रांकन मंे साहित्य के अनुभव लोक को नये क्षेत्र की सम्पन्नता मिलती है। निश्चय ही यह स्थिति किसी भी भाषा के लिए उल्लेखनीय उपलब्धि हो सकती है। फिर दिल और दिमाग़ छील देने वाली क्रूर यातना के भयानक दृश्य तथा तिरस्कार व अवमानना की वेदनापरक घटनाओं से अश्वेत लेखन विश्व साहित्य का शिलालेख बन पाया तो इसलिए कि उसमें मनुष्यों को ज़िंदा जलाये जाने से उपजी चीत्कार और हाहाकार की आघातकारी ध्वनियाँ अब भी उसी आवेग से सुनी जा सकती हैं। जलते माँस की उबकाई भरी गंध अब भी आपको बेचैन करती है, परन्तु इन्सानों के साथ जानवरों से बदतर सुलूक का वृतांत एवं अपने को सभ्य व सुसंस्कृत होने का दर्प पाले लोगों की पैशाची हरकतों के अचूक साख्य क्या साहित्य की अभिवृद्धि तक सीमित रह जाने चाहिए? हर क्षण शब्दों में ढ़ल जाने को व्याकुल सादियों की संचित व्यथा का शेष क्या साहित्य की अभिवृद्धि और उसके अनुभव लोक के विस्तार तक ही सीमित रह जाना चाहिए? कुछ लोगों के लिए डाॅक्ट्रेट की डिग्री, कुछ के लिए पुरस्कार, कुछ के लिए शोहरत, कुछ के लिए सामाजिक दृष्टिकोण की व्यापकता का कवच, कुछ के लिए अपने भोगे हुए को बयान कर देने के गौरव या संतोष की अनुभूति, कुछ के लिए जातिवादी आग्रहों के बावजूद उदार मानवतावादी दृष्टिकोण का दंभ, तो कुछ के लिए वैचारिक प्रतिबद्धता के दायित्वों की पूर्ति का साधन बनने की चेतना के प्रसार की कर्मभूमि बनने की चिंता से संलग्न होना चाहिए? अवश्य ही साहित्य सामाजिक बदलाव को संभव नहीं बनाता लेकिन वह बदलाव की चेतना के अंकुर रोपने की क्षमता अवश्य रखता है। बदलाव में कविता, कहानी या उपन्यास की अपेक्षा वैचारिक लेखन की भूमिका अधिक कारगर होती है। सामाजिक आंदोलन इस भूमिका को निर्णायक मोड़ तक ले जाने की सामथ्र्य रखते हैं। यह उत्साहपूर्ण स्थिति है कि दलित मुक्ति के पक्ष में हिन्दी में वैचारिक लेखन भी खूब हुआ है। अब भी हो रहा है। डाॅ0 भीमराव अम्बेडकर यदि दलित मुक्ति के अग्रदूत बन पाये, तो इस कारण ही कि साहसिक धारदार वैचारिक लेखन तथ कानूनी लड़ाई तक ही सीमित नहीं रहे, बल्कि उन्होंने विराट सामाजिक आन्दोलन भी खड़ा किया। आजादी से पहले हिन्दी और उर्दू में दलित यथार्थ की जो रचनाएँ आयीं, उनके पीछे यह आंदोलन प्रेरक शक्ति के रूप में उपस्थित रहा है। इतना अवश्य है कि दलित रचनाकारों की आत्मकथाएँ, कहानियाँ, कविताएँ भी वैचारिक लेखन की भूमिका अदा करती हैं। आन्दोलन संवेदना की अपेक्षा चेतना के विकास को अधिक संभव बनाते हैं। दलित-साहित्य के विकास में चेतना की जो भूमिका रही है, वैसी संवेदना की नहीं हो पायी। आगे भी चेतना ही प्रमुख भूमिका निभाएगी। कह सकते हैं कि संवेदना के बिना तो लेखन हो ही नहीं सकता। जो संवेदनशील नहीं है वह किसी की तक़लीफ़ को क्या समझेगा? ज़रूरी तौर पर संवेदना किसी भी रचना का महत्वपूर्ण तत्व होती है। संवेदना दर्द को महसूस करने की सामथ्र्य तो देती है, परन्तु दर्द के निवारण की तमीज़ चेतना ही से मिलती है। संवेदना भावुकता के अतिरेक में वर्चस्ववाद को तो चुनौती दे सकती है, लेकिन इस वर्चस्व के ध्वंस की कल्पना बिना चेतना के संभव नहीं है। यहाँ दलित व ग़ैर-दलित के बीच इतना ही अंतर हो सकता है कि ग्रहण का अंधकार जिस सघनता व व्यापकता में एक दलित के मन-मस्तिवक में आकार लेता है, ग़ैर-दलित के नहीं। फिर भी, रचना का शेष रह जाना इस अंधकार के स्वरूप या उसकी अनुभूति के आकार से ही नहीं बल्कि रचना-कौशल से ही संभव होता है। ‘गोदान’ और ‘मैला आँचल’ कालजयी बन पाये, तो इन दोनों विशिष्टताओं के बेहतर एकीकरण के कारण। सामाजिक सरोकार से बँधी रचना,कला के प्रतिमानों पर खरी उतरे यह जरूरी नहीं हैं। उसका सौंदर्य उसकी प्रतिबद्धता है। उसकी एतिहासिकता समाज में व्याप्त बदसूरती के प्रति व्यक्त विक्षोभ है। तनिक सोंचिए,समाज में बदसूरती फैली हुई है और साहित्य सौंदर्य के नये प्रतिमान गढ़ रहा है। हम यहाँ शरण लिंबाले का संदर्भ ले सकते हैं:- ‘‘दलित लेखक सामाजिक ज़िम्मेदारी से लिखता है। उसके लेखन में कार्यकर्ता का आवेश और निष्ठा अभिव्यक्त होती है। समाज बदले, समाज अपने प्रश्न समझे, वह तिलमिलाहट उसके लेखन में तीव्रता से व्यक्त होती है। दलित लेखक आंदोलन करते हुए लिखने वाला कार्यकर्ता-कलाकार है। वह अपने साहित्य को आंदोलन मानता है। उसकी प्रतिबद्धता दलित और शोषित वर्ग से है।’’ (दलित साहित्य का सौंदर्यशास्त्र, पृष्ठ 41) प्रगतिशील आंदोलन के प्रभाव में लिखी गयी बहुत-सी रचनाएँ भी उद्देश्यगत प्रतिबद्धता तथा विचार की उपस्थिति के कारण कुछ आलोचकों के द्वारा ख़ारिज की जाती रही हैं। ख़ारिज होकर भी वे मरी नहीं हैं। बड़ी बात यह है कि एक ख़ास दौर में, जिसे हम जन-संधर्षों का दौर भी कह सकते हैं, इन रचनाओं ने, जिनमें उर्दू की अनेक प्रगतिशील कविताओं को प्रमुखता प्राप्त है, महत्वपूर्ण भूमिका निभायी। कितनी लड़ाइयों को उन्होंने शक्ति और ऊर्जा दी, कितने निराश लोगों में नयी स्फूर्ति भरी तथा जुल्म के ख़िलाफ खड़े होने का हौसला दिया। विचारणीय है कि इन्सानी शोषण के प्रतिमान टूट रहे हों और साहित्य कला-प्रतिमानों के नये शिखर छू रहा हो, मनुष्य जिं़दा जलाये जा रहे हों और रचना के शेष रह जाने पर जोर दिया जा रहा हो, घरों के रुदन तथा बलात्कार को जातीय श्रेष्ठता की स्वाभाविक अभिव्यक्ति माना जा रहा है। इन्सानों के बड़े समूह पर बड़े घर की देहरी पार करने पर प्रतिबंध हो। जाति विशेष के पुरूषों के लिए घोड़ों पर चढ़ना अपराध हो और इन भयावह दृश्यों से मुक्त किताबें शेल्फ़ में सजी हों एवं बिल्ली-कुत्ते एयर कंडीशंड कमरों में रहने की हैसियत में हों, तो उस समाज का चित्र कैसा बनता है? जो जितना बड़ा यथास्थितिवादी है, वह उतना ही बड़ा कलावादी है, रूपवादी और संरचनावादी भी हो सकता है, ग़रीब भारत के सर थोपे गये शाइनिंग इंडिया के नारे के साथ देश की जनता ने कैसा सुलूक किया था, आप सब अच्छी तरह जानते हैं। यहाँ तात्पर्य कला और पुस्तकों के महत्व को कम करना नहीं है। प्रतिबद्ध रचनाकार के लिए कला हमेशा एक कठिन चुनौती की तरह रही है, रचना को प्रभावशाली बनाने की उसकी चिंता को समझा जा सकता है। लेकिन, कला के सामाजिक संदर्भ भी होते हैं, वह समाज-सापेक्ष होती है, समाज निरपेक्ष नहीं। वैसे ही, जैसे लेखक और रचना का समाज में द्वंद्वात्मक सम्बन्ध होता है। लेकिन, वह कला को रचना के केन्द्रीय तत्व होने की अनिवार्यता को स्वीकार नहीं करता। कला ज़रूरत है, निर्भरता नहीं। ठीक इसी प्रकार, सामाजिक परिवर्तन तथा जुल्म व नाइन्साफ़ी के ख़िलाफ़ चलने वाला प्रत्येक आन्दोलन पुस्तकों से ही शक्ति व दृष्टि प्राप्त करता है। कारणवश, ऐसे व्यक्तियों के लिए पुस्तकें हमेशा बहुत प्रिय रही हैं। कार्ल माक्र्स से लेकर लेनिन तक, लेनिन से लेकर अम्बेडकर और भगत सिंह तक का पुस्तक-प्रेम उनके जीवन का बहुविदित यथार्थ है। कैसी होती हैं वे किताबें, जो दिलों में आग जलाती हैं और दिमाग़ों को रोशन करती हैं? इन्हें आप क्या ड्राइंगरूम में सजाते हैं? ऐसी किताबें घर में कहीं भी हो सकती हैं, यहाँ तक कि आपके काम करने की जगहों पर भी। यह कोई चमत्कार नहीं है कि जब हिन्दी की साहित्यिक पुस्तकों का बिकना कठिन हो रहा हो, तब दलित-साहित्य की माँग लगातार बढ़ रही है। इसलिए जब मुद्राराक्षस, प्रेमकुमार मणि या कुछ दूसरे विद्वान ज़ोर दे रहे हों कि ‘दलितों के लिए दलितों द्वारा लिखा गया साहित्य ही दलित साहित्य है’, तो इसे तर्कविहीन सिद्धांतशास्त्र का भोथरापन मानने के बजाव इसके बारे में गंभीरता से सोचे जाने की ज़रूरत है। ठीक उसी तरह जैसे दलित-लेखन के लिए अम्बेडकरवाद की अनिवार्यता के बारे में। ग़ैर-दलित रचनाकारों द्वारा दलित यथार्थ उभारने में चाहे जितनी ईमानदारी बरती गयी हो,इस यथार्थ के प्रति उनमें चाहे जितना गहरा विक्षोभ और आक्रोश क्यों न हो, दलित-साहित्य की आवश्यक पहचान-मुक्ति की समग्र चेतना तथा जातिवादी चेतना के बीच के अंतर को ध्यान में रखना चाहिए। प्रेमचद की दो-तीन कहानियाँ इस आंदोलन के लिए ऊर्जा-संचयन का काम करती रही हैं। प्रेमचंद ने अपने वैचारिक लेखन में भी जातिभेद तथा वर्ण-व्यवस्था का विरोध किया है। सच्ची राष्ट्रीयता के लिए सामाजिक समानता के सिद्धान्त को उन्होंने कभी नहीं छोड़ा, दो अतिवादी दृष्टिकोणों के बीच पिसने से प्रेमचंद को बचाना चाहिए। विचारणीय है कि दलित-जीवन को आधार बनाकर ग़ैर-दलित रचनाकारों द्वारा कविता, कहानी या उपन्यास लिखना, भले वे अम्बेडकरवाद से प्रभावित न हों और उनमें से कुछ माक्र्सवाद के प्रभाव में लिखी गयी हों या उदार मानववाद के आवेग में, उनके प्रति निषेध या निंदा का रवैया हर हाल में हानिकारक है तथा दलित-मुक्ति के लक्ष्य के लिए भी आघातकारी है। निंदा तो उन प्रगतिशील क्रांतिकारियों, कलावादी, मानवतावादी, मनुष्य-मात्र से संलग्नता का दावा करने वाले रचनाकारों की कीजिए, जो हमारे समाज के सबसे भयावह यथार्थ की ओर से आँखें मूँदे रहे हैं। संभव है, इनमें ऐसे लोग भी हों, जो जाति-समस्या को आरोपित यथार्थ मानते हुए वर्गीय-एकता और इस आधार पर बनी चेतना को ही जातिवादी समस्या का हल मान रहे हों, लेकिन जातिवादी चेतना तथा उससे पैदा हुए विभेद के रहते वर्गीय-एकता न तो टिकाऊ हो सकती है और न वर्गीय चेतना का सही दिशा में विकास हो सकता है। प्रेमचंद वर्णविहीन सामाजिक-एकता के पक्षधर थे, दुखद यही है कि उनकी परम्परा का अपेक्षित विकास संभव नहीं हुआ, वरना स्थिति कुछ बदली हुई अवश्य नज़र आती। यह जानना विस्मयकारी हो सकता है कि उर्दू में रशीद जहाँ, सज्जाद ज़हीर, हयातुल्ला अंसारी, इस्मत चुग़ताई व कृश्नचंदर वग़ैरह ने प्रेमचंद के तत्काल बाद उनकी परंपरा को आगे बढ़ाया, परन्तु हिन्दी में इसका पुनरुत्थान कई दशकों बाद मराठी, दलित-साहित्य के प्रभाव से संभव हो पाया। हिन्दी और उर्दू दोनों भाषाओं में रचे गये दलित-साहित्य की यह विडम्बना ध्यान खींचती है कि उसमें मुस्लिम, सिक्ख और ईसाई दलितों के जीवन-संघर्ष की अनुगूँज बहुत कम सुनायी पड़ती है। ‘झीनी-झीनी बीनी चदरिया’ जैसे कितने उपन्यास हैं हिन्दी में? उर्दू में तो वह भी नहीं है। भगवान दास मोरवाल के उपन्यास ‘काला पहाड़’ का नाम भी लिया जा सकता है। प्रश्न यह है कि क्या अस्पृश्यता को ही दलित होने का एकमात्र पहचान मान लिया जाना चाहिए? क्या मुस्लिम मेहतर और मोची मुस्लिम समाज में अछूत होने की प्रताड़ना बर्दाश्त नहीं करता? यदि हाँ, तो दमन की ग़ैर हिन्दू आकृतियाँ भी सामने आनी चाहिए। बहुत संभव है कि जिस प्रकार पिछली सदी के सत्तर-अस्सी के दशक में दलित लेखकों के व्यापक उभार ने हिंदू और बौद्ध दलितों की जीवन-स्थितियों को हिदी साहित्य की प्रमुख चिंताओं में स्थापित किया, एक अंतराल के बाद ठीक वैसा ही दूसरे दलित वर्गों के साथ भी हो और मुस्लिम व ईसाई समाजों में उपस्थित जातिगत विसंगतियाँ-विकृतियाँ संभव आवेग से उद्घाटित हो सकें। मुस्लिम दलित तथा पिछड़े वर्ग के अधिकारों के लिए सक्रिय अनेक कार्यकर्ताओं और संगठनों ने इस्लाम व मुस्लिम समाज के बारे में जातिगत असमानता व भेदभाव रहित होने के बहुप्रचारित यथार्थ का वास्तविक चेहरा सामने लाने का फ़ैसला किया है। इस प्रचार या बनी-बनायी धारणा ने दलित व पिछड़े मुसलमानों को भारी क्षति पहुँचायी है। इससे पूरे मुस्लिम समाज का चेहरा बिगड़ा है। भूख से तड़पते, वंचित, उपेक्षित, कई प्रकार की ताड़नाओं से त्रस्त मुस्लिम दलित के हिस्से की रोटी उस तक पहुँचने में बाधाएँ खड़ी हुई हैं, किसी हद तक यह स्थिति मुस्लिम पिछड़े वर्ग पर भी लागू होती है। ‘मसावत की जंग’ में अली अनवर लिखते हैं:- ‘‘चलिए, थोड़ी देर के लिए यह भी मान लें कि मुस्लिम दलित अपने समाज में ठीक हिन्दू दलित की तरह छुआछूत का शिकार नहीं होता, पर जिस लोकतंत्र में संख्या बल महत्वपूर्ण है, वहाँ यह सवाल कैसे दबा रहेगा कि मुस्लिम दलित समाज का दायरा कितना बड़ा है। कुल मुस्लिम आबादी बारह से चैदह प्रतिशत के बीच है। बाक़ी आबादी का वह तबक़ा तो मुस्लिम दलितों के साथ भी वही सुलूक करता है, जो हिन्दू दलित के साथ करता आ रहा है। मुस्लिम धोबी, मेहतर, चमार, नट, पासी आदि जातियों केा तो अपने पेशे के लिए हिन्दू-मुस्लिम दोनों समुदायों में जाना पड़ता है, इस तरह तो वे भी छुआछूत का शिकार होते हैं।’’ इसी पुस्तक में अली अनवर एक जगह लिखते हैं: ‘‘हिन्दू समाज में वर्ण व्यवस्था की उसूलन मान्यता थी, इसीलिए वहाँ जात-पाँत या छुआछूत है, तो यह बात समझ में आती है। मगर जहाँ इस्लाम और उनकी किताब ‘कुरआन’ में जात-पाँत की मान्यता नहीं, वहाँ तो इसका होना और भी ख़तरनाक है। मुस्लिम समाज की इस बीमारी के लिए कौन जवाबदेह है? इसको कैसे समाप्त किया जाए? इस पर खुलकर विचार-विमर्श करने के बजाय बीमारी को छिपाने की प्रवृत्ति आज भी मुस्लिम समाज पर हावी है।’’ बीमारी को छिपाने की प्रवृत्ति तथा परम्परा से चली आ रही अवधारणाओं के कारण मुस्लिम समाज की जातिवादी पहचान नहीं बन पायी। 1857 के विद्रोह में अग्रणी भूमिका के कारण भीषण दमन; उसके तकरीबन 70-75 वर्ष बाद से लगातार होने वाले साम्प्रदायिक दंगों; देश-विभाजन, उसके बाद उपजी व्यापक घृणा तथा ‘इस्लाम ख़तरे में है’ के अनवरत प्रलाप ने दलित व पिछड़े मुसलमानों को अपने अधिकारों के लिए संगठित व आंदोलित होने से बार-बार रोका। उन्हें यह समझने का अवसर ही नहीं मिला कि उनके दुखों के कुछ ठोस कारणों में ये मौलवी साहिबान भी शामिल हैं। अभाव और वंचना के विरूद्ध संघर्षशील सामाजिक चेतना की अपेक्षा उनमें अपने हालात को अल्लाह की मर्ज़ी मानने तथा धार्मिक कर्मकांड के प्रति उन्मुखता अधिक बढ़ी। जहाँ हर समय मुसलमानों के सर पर तलवार लटक रही हो, वहाँ धोबी, नाई, मोची, नट-नचनिया या सफ़ाईकर्मी अपने लिए अलग से कैसे बात करें। इनमें पिछड़े वर्ग में आने वाली बुनकर (अंसारी) जाति को किसी हद तक अवश्य अपवाद माना जा सकता है। इस मनोविज्ञान को भी समझना चाहिए कि वर्ण-व्यवस्थाजनित अमानुषिकता से बचने के उद्देश्य से जिन लोगों ने कभी हिंदू धर्म का परित्याग किया था, वे ही धर्म-परिवर्तन के बाद यह कैसे कहें कि यहाँ भी उनके साथ कमोवेश पहले जैसा सुलूक हो रहा है, यहाँ उन्हें मस्जिद में जाने तथा साफ़-सुथरे कपड़ों में दूसरी जातियों के साथ उठने-बैठने की सुविधा तो है ही, रोटी-बेटी का सम्बन्ध न सही। विडम्बना यह भी रही कि न तो समानता के दर्शन पर आधारित राजनीतिक दलों ने, न तो इस्लाम को समानता व भाईचारगी का धर्म बताने वाले मौलानाओं ने, न सामाजिक कार्यकर्ताओं और न जाति-विहीन समाज का नारा लगाने वाले दलित नेताओं ने उनकी समस्याओं की ओर ध्यान दिया। दलित नेताओं ने मुस्लिम व ईसाई दलितों के साथ एका बनाने के प्रयास भी नहीं किये। नतीजा यह हुआ कि हिंदु दलित जातियों को मिलने वाली आरक्षण की सुविधा से मुस्लिम दलितों को वंचित कर दिये जाने से उनके सामाजिक हालात खराब होते गये। शिक्षा और रोज़गार सहित दूसरे सभी क्षेत्रों में उनका पिछड़ते जाना एकदम स्वाभाविक था। ऐसे में सच्चर कमेटी के इन निष्कर्षों पर आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि मुस्लिम आबादी का बड़ा भाग हिन्दू दलितों से भी ज्यादा दरिद्र है। हिन्दुओं के समान ही भारतीय मुसलमानों में भी पिछड़ों-दलितों की संख्या अधिक है। साहित्य के संदर्भ में प्रतिरोध के नये क्षेत्रों पर विमर्श करते हुए चिंतन की कुछ दिशाएँ इस ओर भी जानी चाहिए। यह साहित्य की धर्म-निरपेक्ष परम्परा की इज्ज़त का भी सवाल है। जिस प्रकार गुजरात के नर-संहार के उपरांत धार्मिक आधार पर राहत-पैकेज़ निश्चित किया गया, क्या साहित्य में पीड़ाओं और प्रतिरोध की अभिव्यक्तियाँ भी इसी आधार पर होंगी। कहा जा सकता है कि विभिन्न आन्दोलनों के ज़रिये जिस प्रकार हिन्दू दलितों ने समकालीन बौद्धिकता तथा संवेदना को प्रभावित किया, वैसा मुस्लिम दलित या पिछड़े वर्ग के माने जाने वाले लोग नहीं कर पाये। किसी हद तक यथार्थ का यह वास्तविक आख्यान है यानी कि हालात का खंडित सच। प्रश्न यह है कि यदि भगवानदास मोरवाल ‘काला पहाड़’ जैसा उपन्यास लिख सकते हैं, तो फिर दूसरे लोग क्यों नहीं? लेकिन इससे भी बड़ा सवाल यह है कि वह उर्दू भाषा, जो उत्तर व पूर्वी भारत के मुसलमानों के अनुभव-लोक, उनके सामाजिक यथार्थ की अभिव्यक्ति का सबसे प्रिय माध्यम रही है, उसमें ही मुस्लिम दलितों-पिछड़ों को लेकर इतनी गहरी ख़ामोशी क्यों छायी रही? हिन्दी में कम से कम ‘झीनी-झीनी बीनी चदरिया’ तथा ‘काला पहाड़’ जैसे उपन्यास तो हैं। इसे विडंबना मानिए या रोचक प्रसंग कि उर्दू कविता और कहानी दोनों में हिन्दू दलितों के कारूणिक सामाजिक यथार्थ की अभिव्यक्तियाँ मिल जाएँगी, परन्तु मुस्लिम दलितों को लेकर शून्य जैसी स्थिति है। प्रेमचंद, हयातुला अंसारी, कृश्नचंदर, इस्मत चुग़ताई, जीलानी बानो, राजेन्द्र सिंह बेदी, रशीद जहाँ, ग़ज़नफ़र जैसे और भी कई रचनाकार हैं, जिनकी रचनाओं में दलित-जीवन का अवसाद ध्वनित हुआ। यहाँ तक कि पाकिस्तान में लिखे गये अब्दुल्ला हुसैन के अति चर्चित उपन्यास ‘उदास नस्लें’ में भी यह ध्वनि साफ़ सुनायी पड़ती है। इस्मत चुग़ताई और किसी हद तक हयातुल्ला अंसारी अवश्य अपवाद हैं, जिन्होंने मुस्लिम समाज में मौजूद जातिवादी भेदभाव की रचना को अंतर्वस्तु के रूप में स्वीकार किया। दास्तानों में, कुर्रतुल ऐन हैदर के कथा-साहित्य में भी इन जातियों के पात्र तो हैं, लेकिन अपनी त्रासदियों से कटे हुए। समाज की रौनक बढ़ाते हुए, उर्दू शायरी में शेख़-ओ-ब्रहमन के बीच व्याप्त दूरी और इस दूरी को ख़त्म करने की ज़रूरत का तो बहुत ज़िक्र आया है, परन्तु शेख़ और ब्रहमन जिन धार्मिक सम्प्रदायों से ताल्लुक रखते हैं, उनमें जाति या पेशे के आधार पर कैसा भयानक बँटवारा है और ताड़ना व दमन के कितने अवसर हैं, इस बारे में शायरी में दूर तक नीरवता छायी हुई है। यहाँ तक कि ख़ास पेशे के कारण मानी जाने वाली जातियों से आये शायर भी इस बारे में मौन साधे हुए हैं। नज़ीर अकबराबादी का कुछ ध्यान इस तरफ़ गया था, लेकिन एक तो सामंती आभिजात्य से गहरे तक ग्रस्त शायरों, तज़किरानिग़ारों ने उन्हें शायर मानने से इन्कार किया फिर ग़ज़ल के वर्चस्व के कारण उनकी समाजोन्मुखी नज़्म-निगारी की परम्परा भी आगे नहीं बढ़ पायी। प्रगतिशील आंदोलनों के दौर में इस परम्परा के लिए ख़ासी संभावनाएँ निर्मित हुईं उनका विकास भी हुआ परन्तु वहाँ वर्गवादी चेतना के हल्लाबोल का ज्यादा जोर था। निश्चय ही, इस कारण प्रगतिशील आंदालनों पर टीका-टिप्पणी तो अवश्य की जा सकती है, उसे कटघरे में खड़ा नहीं किया जा सकता। सामाजिक समानता के दृष्टिकोण की अलख आखि़र इस आंदोलन ने ही रोशन की और उसे साहित्य ही क्यों समूचे कला-कर्म का ज़रूरी मूल्य बनाया। जातिवादी भेदभाव व दमन के प्रति व्यापकता में लोगों का ध्यान खींचने का श्रेय अम्बेडकर के आंदोलन के बाद प्रगतिशील आन्दोलन से जुड़े रचनाकारों ने भी भारतीय समाज में जाति की समस्या को आम तौर पर अम्बेडकर की आँखों से ही देखा। स्वयं द्वंद्वात्मक भौतिकवाद के फ़ार्मूले को यहाँ लागू करने की ज़रूरत नहीं समझी गयी। ऐसे में सामाजिक संरचना की समग्र पड़ताल एकांगी होकर रह गयी। पंडित नेहरू कहते रह गये कि हिन्दु और मुसलमान दोनों समाजों में ख़ास उच्च-वर्ग का एक समूह प्रभुत्व जमाये हुए है। ये नेहरू ही के शब्द हैं:- ‘‘हालाँकि इस तरह का प्रभुत्व सांस्कृतिक, शैक्षणिक आदि क्षेत्रों में व्याप्त है, परन्तु आर्थिक क्षेत्र में तो यह अनिवार्य रूप से मौजूद है। एक समूह, जो आर्थिक रूप से बुरी अवस्था में है, बड़े इत्मीनान से सांस्कृतिक एवं शैक्षणिक स्तर पर ह्रासोन्मुख है और दूसरों के द्वारा बड़ी आसानी से शोषित हो रहा है।’ (पंडित नेहरू द्वारा बिहार के प्रसिद्ध नेता अब्दुल कय्यूम अंसारी को लिखे गये 1939 के पत्र का एक अंश) शैक्षणिक रूप से पीछे रह जाने, बल्कि निरक्षरता के विकराल वर्चस्व की वजह से दूसरी दलित जातियों के समान मुस्लिम दलितों में सामाजिक चेतना का विकास संभव नहीं हो सका। अपनी अवमानना, वंचना तथा अधिकारों के प्रति जिस प्रतिरोधी चेतना की उन्हें जरूरत थी, वह चिरस्वप्न बनी रही। उनके बीच से ऐसे लोग नहीं उभर सके, जो अपने वाजिब हुकूक़ के लिए राजनीतिक दलों, धार्मिक नेताओं तथा सरकार पर दबाव बना सकने वाला आंदोलन चला सकते थे। जो बहुत थोड़े से लेखक, कथाकार, शायर पैदा भी हुए, तो वे मध्यकाल के शायरों के समान बहती धारा में विलीन हो गये। क्योंकि हिन्दी का सामाजिक आधार नित नया विस्तार पाता गया है और उसमें न्याय के संघर्षों की अनुगूँज लगातार अधिक फैलती गयी है कारणवश, यह अपेक्षा की जा सकती है कि वह प्रतिरोध के इस नये क्षेत्र तक अपना विस्तार पाये।
  • शकील सिद्दीकी
  • एम0आई0जी0 317, फेज-2, टिकैतराय एल0डी0ए0 कालोनी,
  • मोहान रोड, लखनऊ-17
लोकसंघर्ष पत्रिका में जल्द प्रकाशित

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