" मैं दूंढ लाता हूँ"
अगर उस पार हो तुम " मैं अभी कश्ती से आता हूँ .....
जहाँ हो तुम मुझे आवाज़ दो " मैं दूंढ लाता हूँ"
किसी बस्ती की गलियों में किसी सहरा के आँगन में ...
तुम्हारी खुशबुएँ फैली जहाँ भी हों मैं जाता हूँ
तुम्हारे प्यार की परछाइयों में रुक के जो ठहरे ............
सफर मैं जिंदिगी का ऐसे ख्वाबों से सजाता हूँ
तुम्हारी आरजू ने दर बदर भटका दिया मुझको ............
तुम्हारी जुस्तुजू से अपनी दुनिया को बसाता हूँ
कभी दरया के साहिल पे कभी मोजों की मंजिल पे........
तुम्हें मैं ढूँडने हर हर जगह अपने को पाता हूँ
हवा के दोष पर हो कि पानी की रवानी पे .............
तुम्हारी याद में मैं अपनी हस्ती को भुलाता हूँ
मुझे अब यूँ ने तड़पाओ चली आओ चली आओ ......
चली आओ चली आओ चली आओ चली आओ
अगर उस पार हो तुम " मैं अभी कश्ती से आता हूँ .....
जहाँ हो तुम मुझे आवाज़ दो " मैं दूंढ लाता हूँ"...........
5 comments:
Seema ji, Aap ki rachnayen sabhi Rangkarmi saathiyon ko pasand aa rahi hai. Aap is ke liye dheron shubhkamnayen.... Ummid hai aap ki kalam aise hi chalti rahegi....
Ader sahit....
Parvez sagar.
एक शाश्वत कशिश को स्वर देती कविता !
'parvez ji m thankful to you and entire team for support and encouragement. You hav gvn me this plateform to present my creation. I feel proud to be part of it'. 'Arvind je many a lot thanks for ur word of appreciation. Regards
Bhut badhiya. khaskar
तुम्हारे प्यार की परछाइयों में रुक के जो ठहरे ............
सफर मैं जिंदिगी का ऐसे ख्वाबों से सजाता हूँ
सीमा जी ,बहुत ही सुन्दर कविता कही हे आप ने,हमारी तारीफ़ के शब्द भी छोटे पडते हे आप की कविता के सामने.
धन्यवाद
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