Sunday, September 14, 2008
सदी के पार
रेत की तासीर
में है आंच,
बारिश
धूप की है
मैं नदी के पार
जाना चाहता हूँ।
मैं कोई
पाषाण का टुकड़ा नही हूँ
आदमी हूँ ,
आदमी हूँ इसलिए
संवेदना में हांफता हूँ।
हांफ कर कुछ पल
ठहरने को भला तुम
हार का पर्याय
कैसे मान लोगे ।
मैं शिशिर का
ठूंठ , पल्लवहीन
पौधा भी नही हूँ
बीज हूँ
मुझमें उपजने की
सभी संभावना
मौजूद हैं जब,
क्योँ करूँ स्वागत
किसी बांझे दशक का।
मैं सदी के
पार जाना चाहता हूँ ।
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3 comments:
बहुत अच्छा लिखा।
लिखते रहें ।
मैं कोई
पाषाण का टुकड़ा नही हूँ
आदमी हूँ ,
आदमी हूँ इसलिए
संवेदना में हांफता हूँ।
हांफ कर कुछ पल
ठहरने को भला तुम
हार का पर्याय
कैसे मान लोगे ।
सत्यबोधी पद्य वाक्य हैं! बहुत सुन्दर।
बहुत ही सुन्दर
धन्यवाद
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