मैं चाहता हूं एक दिन आओ तुम इस तरह कि जैसे यूं ही आ जाती है ओस की बूंद किसी उदास पीले पत्ते पर और थिरकती रहती है देर तक मैं चाहता हूं एक दिन आओ तुम जैसे यूं ही किसी सुबह की पहली अंगड़ाइ के साथ होठों पर आ जाता है वर्षों पहले सुना कोई सादा सा गीत और पहले चुम्बन के स्वाद सा मैं चाहता हूं एक दिन यूं ही पुकारो तुम मेरा नाम जैसे शब्दों से खेलते-खेलते कोई बच्चा रच देता है पहली कविता और फिर गुनगुनाता रहता है बेखयाली में मैं चाहता हूं यूं ही किसी दिन ढूंढते हुए कुछ और तुम ढूंढ लो मेरे कोई पुराना सा ख़त और उदास होने से पहले देर तक मुस्कराती रहो मै चाहता हूँ यूँ ही कभी आ बैठो तुम उस पुराने रेस्तरां की पुरानी वाली सीट पर और सिर्फ एक काफी मंगाकर दोनों हाथों से पियो बारी बारी मैं चाहता हूँ इस तेजी से भागती समय की गाड़ी के लिए कुछ मासूम से कस्बाई स्टेशन
अशोक कुमार पाण्डेय
3 comments:
बड़ी ही सुंदर चाहतें हैं आपकी |
बहुत बढ़िया चाहत.
khoobsurat shabd aur divya vishay.
Nice poem
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