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Monday, December 1, 2008

सिर्फ़ शोर मचाने से क्या होगा?

जब भी कोई आतंकी हमला होता है, बड़ा शोर मचता है। नेताओं के साथ-साथ आम आदमी का भी शोर हर जगह ध्वनित होता है। किसी भी मुसीबत के बाद शोर स्वाभाविक ही है। इस पर किसी को क्या आपत्ति? दिक्कत यह है कि इस पूरे शोर-शराबे का कोई नतीजा नहीं निकलता। याद होगा, संसद पर हमले के बाद भी बड़ा शोर मचा था। देश के स्वाभिमान पर चोट थी। लगा था कि अब आतंकियों के खिलाफ कोई बड़ी कारॆवाई होगी, जिसके बाद इस तरह का दुस्साहस करने की कोई हिम्मत नहीं कर पाएगा। तब भी हमला पाक प्रायोजित होने के पूरे सुबूत थे। यह बात जोर-शोर से कही भी जा रही थी। इसे सुनकर लगा था कि आतंकियों को शरण और शह देने वाले पाक को इस बार सबक तो जरूर सिखाया जाएगा। पर सब जानते हैं वह शोर किस कदर बेमतलब था। हमारे घर में घुसकर पाक परस्त आतंकियों ने एक बार फिर हमारा सीना छलनी कर दिया। फिर बड़ी-बड़ी बातें हो रही हैं। आईएसआई चीफ को तलब किया गया। पाक ने मना कर दिया। अब हम दाऊद और अजहर मसूद को मांग रहे हैं। पता नहीं यह छोटी सी बात हमारे हुक्मरान क्यों नहीं समझ पाते कि मांगने से दाऊद नहीं मिलता। मिलता होता तो उसे पाक में शरण ही क्यों मिलती। इससे पहले भी कई बार दाऊद और मसूद मांगे गए। हर बार टका सा जवाब मिलता है और हम थक-हारकर चुप बैठ जाते हैं। इस बार भी कोई अलग नतीजा निकल पाएगा, लगता तो नहीं। सच बात तो यह है कि पूरे शोर-शराबे का मकसद सिफॆ जनता का ध्यान बंटाना है। हर बार इस तरह के बड़े हमलों के बाद हमारी सरकारें सियासी प्रबंधन में जुट जाती हैं। ताकि उसे कम से कम राजनीतिक नुकसान हो। कुछ इसी तरह की सोच शिवराज और आरआर पाटिल को हटाने और के पीछे भी दिखती है। शिवराज और चिदबंरम का फकॆ दिखेगा, इसकी क्या गारंटी है। शिवराज पाटिल के पहले आडवाणी के वक्त भी तो हालत कुछ इसी तरह की थी। जाहिर है, कुरसी पर बैठे इंसान को बदलने से कुछ नहीं होता। सच बात तो यह है कि बेहतर शासन-प्रशासन को लेकर किसी राजनेता या राजनीतिक दल के पास न तो कोई योजना है और न ही इच्छा। यही वजह है जनता का ध्यान बंटाने के लिए तमाम तरह के हथकंडे अपनाए जाते हैं। कोई आरआर पाटिल अब तक के सबसे बड़े आतंकी हमले को छोटी-मोटी बात कहता है तो कोई जनता के विरोध पर ही सवाल खड़ा करता है। समस्या केवल नेताओं या राजनीतिक दलों की नहीं है। पूरे समाज को देखें तो कहीं कोई तसल्लीबख्श बात नजर नहीं आएगी। आम जनता कहती है कि हमारे नेता भ्रष्टाचार में लिप्त हैं। बार-बार दोहराई जाने वाली इस बात को कहते वक्त कोई अपने अंदर झांककर नहीं देखना चाहता। नेताओं के दामन को दागदार बतानेवालों में वे भी शामिल हैं जो चावल, दाल और मसाले में मिलावट करते हैं। दूध में पानी मिलाने का मौका भी कोई नहीं छोड़ता। घूस लेकर काम करनेवाले लोग भी नेताओं को गालियां देने वालों में शामिल हैं तो घूस की बदौलत बड़ा या छोटा काम करवाने वाले भी। जिसे जहां मौका मिल रहा है वहीं भ्रष्टाचार के बहते नाले में डुबकी लगा रहा है। फिर हम किसी पाक-साफ नेता की उम्मीद करते भी हैं तो क्यों? आखिर नेता भी इसी समाज से निकलकर आएगा, ऊपर से तो आएगा नहीं। किसी आतंकी हमले या इसी तरह की किसी विपदा को लेकर नेताओं और सरकार पर बरस पड़ने वालों में वे लोग भी शामिल हैं जो चुनाव के दिनों अपने वोट का इस्तेमाल करने तक निकलने में कष्ट महसूस करते हैं। आखिर तभी तो अक्सर मतदान प्रतिशत साठ-पैंसठ फीसदी से आगे नहीं बढ़ता। मतलब सिफॆ यह कि नेताओं और सत्ता प्रतिष्ठान पर बरसने से कुछ नहीं होगा। पूरे समाज में बदलाव चाहिए। आतंक, भय-भूख और भ्रष्टाचार से लड़ने का संकल्प चाहिए। विभाजनकारी तत्वों से लड़ने की तत्परता और देश को एकजुट रखने के लिए कोई भी कुरबानी देने का माद्दा चाहिए। सिफॆ सरकार से उम्मीद लगाए न रहें, खुद भी कुछ करें। इससे काम नहीं चलने वाला कि हम क्या कर सकते हैं, यह तो सरकार और प्रशासन का काम है। या हमारे किए क्या होगा? यह वक्त जागने का है। वरना पता नहीं फिर हालात अपने हाथ में रहें या नहीं।

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