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Monday, December 15, 2008

मै निकला हिमपात देखने

निकला मैं कल रात
देखने हिमपात।
क्या खूब बरसते थे
ठंडे तीखे रूई के फाहे
ज्यों तारे टूट कर
गिर रहें हों जमीन पर
या फिर,
स्वर्ग से फूट पड़ा हो
मणि रत्नों का प्रपात।
सडकों पर, छत पर,
पार्क में पड़ी कुर्सियों पर,
पर्वतों के शिखर तक
सागर के तट से
हर तरफ बिछी पड़ीं थी
ठंडी सफ़ेद चादर-
इतनी नाजुक, इतनी निर्मल
झिझक होती थी
कैसे रखूँ मैं कदम इन पर।
खूब घूमा
हवाओं में मदमस्त उडती
बर्फ की बूंदों को
जी भर के चूमा।
निकला मैं कल रात ........
Dr Anoop Kumar Pandey anu29manu@gmail.com
भाई यह कविता कनाडा मे रह रहे मेरे अनुज डा अनूप कुमार पाण्डेय ने भेजी है और चित्र भी … साहित्य के चितेरे थे पर डाक्टरी भारी पडी। अशोक कुमार पाण्डेय

2 comments:

Asha Joglekar said...

खूबसूरत कविता , हिमपात का मजा देती हुई ।

Dr.Bhawna Kunwar said...

बहुत सुन्दर रचना है... बहुत-बहुत बधाई... आँखों के आगे खूबसूरत लम्हें तैरने लगे ...

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