निकला मैं कल रात
देखने हिमपात।
क्या खूब बरसते थे
ठंडे तीखे रूई के फाहे
ज्यों तारे टूट कर
गिर रहें हों जमीन पर
या फिर,
स्वर्ग से फूट पड़ा हो
मणि रत्नों का प्रपात।
सडकों पर, छत पर,
पार्क में पड़ी कुर्सियों पर,
पर्वतों के शिखर तक
सागर के तट से
हर तरफ बिछी पड़ीं थी
ठंडी सफ़ेद चादर-
इतनी नाजुक, इतनी निर्मल
झिझक होती थी
कैसे रखूँ मैं कदम इन पर।
खूब घूमा
हवाओं में मदमस्त उडती
बर्फ की बूंदों को
जी भर के चूमा।
निकला मैं कल रात ........
Dr Anoop Kumar Pandey
anu29manu@gmail.com
भाई
यह कविता कनाडा मे रह रहे मेरे अनुज डा अनूप कुमार पाण्डेय ने भेजी है और चित्र भी … साहित्य के चितेरे थे पर डाक्टरी भारी पडी।
अशोक कुमार पाण्डेय
2 comments:
खूबसूरत कविता , हिमपात का मजा देती हुई ।
बहुत सुन्दर रचना है... बहुत-बहुत बधाई... आँखों के आगे खूबसूरत लम्हें तैरने लगे ...
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