Wednesday, December 31, 2008
साल 2008
अलविदा-2008
" नव वर्ष की हार्दिक शुभकामनाएं"
आया नव वर्ष आया
प्रीत,प्यार और स्नेह की धरा पर
कम्बल
Tuesday, December 30, 2008
युद्ध? को भी बना देंगें बाज़ार
Saturday, December 27, 2008
चोरी करना पाप है
हद है! अब ब्लॉग पर भी चोरी होने लगी ।मामला ताजा है , फरवरी २००८ में ही कृत्या मॆ धूमिल पर एक आलेख छपा था, लेखक थे जाने माने कवि और आलोचक भाई सुशील कुमार। अब इसी को शब्दशः चुरा कर मुकुन्द नामक व्यक्ति ने कालचक्र पर छाप दिया है। यहाँ तक कि क़ोटेशन भी वही है।यह ब्लाग की मस्त कलन्दरी दुनिया को गन्दा करने वाला प्रयास है। इसकी लानत मलामत की जानी चाहिये।सबूत के लिये यहाँ
दोनों लिन्क दे रहा हूँ ।http://www.kritya.in/0309/hn/editors_choice.html इस पर सुशील जी का आलेख फ़रवरी मे छपा।http://kalchakra-mukund.blogspot.com/2008/09/blog-post_5626.html इस पर है मुकुन्द जी का स्वचुरित लेख है।
फ़ैसला आप ब्लागर देश के नागरिकों का।
Thursday, December 25, 2008
Monday, December 22, 2008
मंदी की मार, पत्रकार बेकार
Sunday, December 21, 2008
मैं चाहता हूं
मैं चाहता हूं एक दिन आओ तुम इस तरह कि जैसे यूं ही आ जाती है ओस की बूंद किसी उदास पीले पत्ते पर और थिरकती रहती है देर तक मैं चाहता हूं एक दिन आओ तुम जैसे यूं ही किसी सुबह की पहली अंगड़ाइ के साथ होठों पर आ जाता है वर्षों पहले सुना कोई सादा सा गीत और पहले चुम्बन के स्वाद सा मैं चाहता हूं एक दिन यूं ही पुकारो तुम मेरा नाम जैसे शब्दों से खेलते-खेलते कोई बच्चा रच देता है पहली कविता और फिर गुनगुनाता रहता है बेखयाली में मैं चाहता हूं यूं ही किसी दिन ढूंढते हुए कुछ और तुम ढूंढ लो मेरे कोई पुराना सा ख़त और उदास होने से पहले देर तक मुस्कराती रहो मै चाहता हूँ यूँ ही कभी आ बैठो तुम उस पुराने रेस्तरां की पुरानी वाली सीट पर और सिर्फ एक काफी मंगाकर दोनों हाथों से पियो बारी बारी मैं चाहता हूँ इस तेजी से भागती समय की गाड़ी के लिए कुछ मासूम से कस्बाई स्टेशन
अशोक कुमार पाण्डेय
एक छोटी सी कहानी-प्यार की
बचपन के अनोखे दिन
बचपन में हम उन दिनों बहुत ज्यादा शरमाते थे. कविता के दो लाइन भी खुलकर नही बोल पाते थे.
दूरदर्शन के आगे बैठ जंगल- जिंगल गाते थे. पापा घर में आ जाये तब डर से उनके घबराते थे.
Saturday, December 20, 2008
Friday, December 19, 2008
कमाऊ पूत की उपेक्षा
रिश्ता
Thursday, December 18, 2008
"नवभारत टाईम्स का आभार "
एक और बयान बहादुर
महाराष्ट्र के एटीएस प्रमुख हेमंत करकरे शहीद हुए या मारे गए? यह बहस थमी तो नई बहस आगे बढ़ाई गई है। इस बहस की शुरुआत दरअसल पाकिस्तानी मीडिया ने की थी। वहां भी बहस आशंका के रूप में थी, करकरे को गोली मालेगांव धमाकों से जुड़े लोगों ने तो नहीं मारी? पाकिस्तानी मीडिया की आशंका पाक सरकार को स्वर देने की कवायद थी। अब कुछ दिनों बाद केंद्रीय अल्पसंख्यक मामलों के मंत्री एआर अंतुले भी यही बात कह रहे हैं। पूरा देश जिस केंद्र सरकार से पाकिस्तान पर हमले की मांग कर रहा है, उस सरकार का एक वरिष्ठ मंत्री उसी पाक के सुर में सुर मिला रहा है। इसे ही सियासत कहते हैं। यहां देश की भावनाएं नहीं देखी जाती, वोट देखा जाता है। क्या करेंगे, राजनीति को यूं ही तो दलदल नहीं कहा जाता। अंतुले की एक और बात पर गौर करें। अंतुले कहते हैं पाकिस्तानी आतंकियों के पास एटीएस प्रमुख करकरे को मारने की कोई वजह नहीं थी। मतलब, मुंबई पर आतंकी हमलों में जितने लोगों ने जान गंवाई, उन्हें मारने की आतंकियों के पास वजह थी। (लगे हाथों अंतुले यह भी बता देते तो ज्यादा अच्छा रहता कि वह वजह क्या है)। अंतुले का यह बयान कहीं न कहीं आतंकियों की कारॆवाई को एक आधार भी देता है। हमारे केंद्रीय मंत्री का बयान हमें बताता है कि आतंकी बेवजह किसी को नहीं मारते। पाक परस्त आतंकी अरसे से भारत में खूनखराबा कर रहे हैं। हम मानते हों या नहीं, मंत्री जी मानते हैं कि इसकी वजह है। और वो मानते हैं, तो आपको सुनना-पढ़ना होगा। क्या करेंगे, अभिव्यक्ति की आजादी तो उनके लिए भी है। हो सकता है, कुछ लोग अंतुले की आशंका से सहमत हों। तब भी इस बयान को गैर-जिम्मेदाराना ही माना जाएगा। अगर इस तरह की कोई आशंका है, तो पहले उसकी जांच होनी चाहिए। जांच में यह बात स्थापित होती, तब कही जाती। जांच किए जाने की बात अंतुले भी कह रहे हैं। अंतुले केंद्र के वरिष्ठ मंत्री है। सरकार के स्तर पर अपनी बात रखते। जांच करवाते। तब तक इस पर मुंह खोलने से परहेज करते। लेकिन इतनी शांति से उनका मकसद कहां पूरा होता। पता नहीं, अब भी उनका मकसद पूरा हो पाएगा या नहीं। हो सकता है लेने के देने पड़ जाएं। दरअसल भारतीय राजनीति के कुछ पुराने योद्धा देश की जनता को वतॆमान समय के हिसाब से देख ही नहीं पाते। ये लोग देश की जनता को उसी वक्त के हिसाब से देखते हैं, जब इन्हें विस्मृति दोष नहीं हुआ था। उन्हें याद नहीं कि जनता काफी समझदार हो चुकी है। राजस्थान, दिल्ली, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ के चुनावी नतीजों ने भी यही बताया है। किसी राज्य की जनता ने बयान के आधार पर वोट नहीं दिए। वोट काम पर डाले गए।
वैसे अंतुले महोदय शिवराज पाटिल, देशमुख, आरआर पाटिल जैसे बयान बहादुरों से भी कुछ सबक लें।
Tuesday, December 16, 2008
"द्रष्टि"
घुटनों के बल झुके बुश
Monday, December 15, 2008
मै निकला हिमपात देखने
Saturday, December 13, 2008
वैश्विक गाँव के पञ्च परमेश्वर
पहला कुछ नहीं खरीदता न कुछ बेचता है बनाना तो दूर की बात है बिगाड़ने तक का शऊर नहीं है उसे पर तय वही करता है कि क्या बनेगा- कितना बनेगा- कब बनेगा खरीदेगा कौन- कौन बेचेगा दूसरा कुछ नहीं पढ़ता न कुछ लिखता है परीक्षायें और डिग्रियाँ तो खैर जाने दें किताबों से रहा नहीं कभी उसका वास्ता पर तय वही करता है कि कौन पढ़ेगा- क्या पढ़ेगा- कैसे पढ़ेगा पास कौन होगा- कौन फेल तीसरा कुछ नहीं खेलता जोर से चल दे भर तो बढ़ जाता है रक्तचाप धूल तक से बचना होता है उसे पर तय वही करता है कि कौन खेलेगा- क्या खेलेगा- कब खेलेगा जीतेगा कौन- कौन हारेगा चौथा किसी से नहीं लड़ता दरअसल ’शुद्ध ’शाकाहारी है बंदूक की ट्रिगर चलाना तो दूर की बात है गुलेल तक चलाने में कांप जाता है पर तय वही करता है कि कौन लड़ेगा -किससे लड़ेगा - कब लड़ेगा मारेगा कौन - कौन
और पाँचवां सिर्फ चारों का नाम तय करता है।