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Friday, November 30, 2007

ज़िंदगी

दिन ढले, एक ज़िंदगी का टुकडा अपने कांधे उठाए एक गठ्रा सुस्त कदम चला आता बैठ पास कई सवाल उठता कभी दिल का हाल बंटाता क्यों कोई तनहा समझाता क्यों उलझने बतलाता जाने के नाम, धीमे से मुस्का अपना गठरा सर उठा ज़िंदगी यही, सीखा जाता.... कीर्ती वैदया

4 comments:

Parvez Sagar said...

ज़िन्दगी की दास्तान कुछ लाईनों मे पन्नों पर उतार देना एक मुश्किल काम नज़र आता है। लेकिन आप को इस काम मे महारत है इसका सबूत आपकी रचनाऐं है। उम्मीद है आपकी रचनाऐं सभी साथियों को पसन्द आयेंगी।

36solutions said...

सुन्‍दर चित्रण ।

आरंभ : शिवरीनारायण देवालय एवं परंपराएं

Amit said...

बहुत ख़ूब। जिंदगी की इबारत को इतने कम लफ्जों में एक कवि ही बयान कर सकता है। आप ऐसे ही लिखती रहें। शुभकामनाएं।

- अमित मिश्रा, सीएनईबी

Daisy said...

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