"मैं "
कलमों के टूटे ढेर थे मैं छेड़ता रहा,
लफ्जों के हेर फेर ने समझा नहीं मुझे....
कच्ची थी सोंधी ख़ाक में मैं बोलता रहा ,
चाकों के एतबार ने चूप्का किया मुझे...
लौहएमकान का का राज़ था क्यों फाश हो गया ,
कुत्बों के इन्तखाब ने रुसवा किया मुझे ... ..
खारे -चमन था लेकिन चुप चाप जी गया ,
कलियों की बेकली ने तड़पा दिया मुझे ....
2 comments:
बढिया!
sunder kavita
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