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Sunday, October 11, 2009

लो क सं घ र्ष !: प्रधानमंत्री एक कारपोरेट हाउस की पैरवी में

यह शायद पहली बार हुआ है कि भारत के प्रधान मंत्री ने किसी कारपोरेट घराने को फायदा पहुँचने के लिए खुले आम उसके लिए पैरवी की हो। पर अब प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने एक ऐसी गलती मिसाल कायम कर दी है। वैसे तो चोरी-छिपे इस तरह की सिफ़ारिशें पहले भी चलती रही होंगी , जैसा कि मित्तल परिवार के ही लक्ष्मी मित्तल द्वारा आरसेलर नामक विदेशी कंपनी के अधिग्रहण के समय हुआ, पर खुले आम इस तरह की सिफारिश कर प्रधानमंत्री ने एक ग़लत परम्परा की नींव डाल दी है। एक भारतीय कंपनी -भारती एयरटेल और दक्षिण अफ्रीकी कंपनी-एमटीएन के बीच खरबों रुपयों का गठबंधन सौदा पिछले कई दिनों से अटका पड़ा था । सम्भावना व्यक्त की जा रही थी की 30 सितम्बर तक यह मामला नही सुलझा तो सौदा ही कैंसल हो जाएगा। भारती एयरटेल भारत के एक सबसे बड़े कारपोरेट-घराने मित्तल घराने की कंपनी है। प्रधानमंत्री जी-20 शिखर सम्मलेन की बैठक में भाग लेने अमेरिका के पिट्सबर्ग शहर गए थे। लगता है जी-20 बैठक के आलावा सुनील मित्तल की कंपनी- भरती एयरटेल का सौदा भी उनके पिट्सबर्ग एजेंडे में शामिल था। सम्मलेन के दौरान अफ्रीका के राष्ट्रपति जैक्जूमा के साथ उनकी कोई मीटिंग निर्धारित नही थी तो भी प्रधानमंत्री के दिमाग में एक भारतीय पूंजीपति घराने का हित इस कदर हावी था की उन्होंने राष्ट्रपति जूमा से मुलाकात की और उनसे कहा की वे चाहते है कि भारती एयरटेल और ऍमटीएन का सौदा हो जाए। प्रधानमंत्री के सिपहसलार इस मीटिंग को चाहे कोई भी नाम दें, इसके बारे में कोई भी सफाई दे, पर व्यवहारतः यह भारती एयरटेल के लिए प्रधानमंत्री की सिफारिश ही थी। बेशक पूंजीपरस्त ताकतें प्रधानमंत्री की इस सिफारिश को राष्ट्रिय हित का काम बता रही है, पर प्रधानमंत्री ने एक कंपनी की पैरवी कर प्रधानमंत्री पद की गरिमा को नुकसान पहुँचाया है और एक नई परम्परा शुरू कर दी है। देश के एक प्रमुख आर्थिक पत्र "इकनॉमिक टाईम्स" ने एक निजी डील के लिए प्रधानमंत्री की पैरवी का स्वागत किया है। पर उसे भी यह लिखना पड़ा है कि प्रधानमंत्री का यह कदम एक ऐसी मिसाल का काम कर सकता है जिसे बाद में पिछलग्गु पूँजीवाद के रूप में अध: पतन के लिए इस्तेमाल किया जा सकता है। जाहिर है इकनॉमिक टाईम्स यह भुलाने कि कोशिश कर रहा है कि देश में क्रोनी केप्टलिज्म का दौर पहले ही चल रहा है। इकनॉमिक टाईम्स का विचार है कि प्रधानमंत्री कि "त्रुटिहीन एवं अनिंध विश्वाशनियता एवं इमानदारी के चलते इस डील विशेष के लिए प्रधानमंत्री द्वारा पैरवी का कोई भी अन्य अर्थ नही निकलेगा सिवाय इसके की उन्होंने यह काम एक "सामूहिक हित" के लिए किया। पता नही इकनॉमिक टाईम्स को एक कारपोरेट घराने के व्यवसायिक फायदे में "सामूहिक हित" कहाँ नजर आ रहा है ? और थोडी देर के लिए यदि सामूहिक हित की बात को भी मान लिया जाए तो "त्रुटिहीन एवं अनिंध विश्वसनीयता " वाले प्रधानमंत्री के प्रशासकीय एवं राजनैतिक लाव लश्कर में - जो कारपोरेट घरानों के इस इस तरह के मामलो को प्रधानमंत्री के एजेंडे में शामिल करता है- व्यापक भ्रष्टाचार से कौन आँखें मूँद सकता है और कैसे माना जा सकता है की बात इस सामूहिक हित" तक ही सीमित है? और अंत में क्या नतीजा निकला? इस सौदे को दक्षिण अफ्रीका की सरकार के अनुमोदन की जरूरत थी। प्रधानमंत्री की पैरवी के बावजूद दक्षिण अफ्रीका की सरकार ने इस सौदे का अनुमोदन नही किया और सौदा नही हो पाया। अब क्या इज्जत रह गई हमारे प्रधानमंत्री की ? आर. एस. यादव

1 comment:

राज भाटिय़ा said...

अब क्या इज्जत रह गई हमारे प्रधानमंत्री की ? आर. एस. यादव
यादव साहब पहले कोन सी इज्जत थी??
आप ने लेख बहुत अच्छा लिखा,

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