जब कभी आप किसी सच्चाई की तलाश करना चाहते है तो यह जरूरी है कि आप उसके प्रचलित और लोकप्रिय अर्थ से हटकर सोचने की कोशिश करें । साम्प्रदायिकता की परिभाषा आज नए सिरे से करने की जरूरत है। समाज का एक वर्ग जब किसी चीज की परिभाषा एक तरह से करना शुरू कर देता है तब हम उसी दिशा में सोचने लगते है । अगर दस-पाँच पीढियों से हमारा परिवार हिन्दुस्तान में रह रहा है तो मैं उतना ही राष्ट्रीय हूँ जितने की आप। फिर क्या जरूरी है कि आप मुझे अपनाएंगे जब मैं आपके कानो में राष्ट्रीयता का झुनझुना बजाऊं । यदि मैं सांप्रदायिक हूँ तो आप मुझसे ज्यादा सांप्रदायिक हैं, जिन्होंने मुझे सांप्रदायिक बनाया ।
-गुलशेरखान शानी
विनोद दास की 'बतरस' से साभार
सुमन
loksangharsha.blogspot.com
 
 

 


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