साधारण महिला का असाधारण बलिदान
‘‘अत्याचार जितना भीषण होगा, उसकी प्रतिक्रिया उतनी ही भीषण होना अटल है।’’ लार्ड मैकाले के इन शब्दों को याद करते हुए, उग्र राष्ट्रवाद के व्याख्याकार और प्रचारक, स्वाधीनता संग्राम के प्रारम्भिक सेनानी विनायक दामोदर सावरकर ने प्रथम स्वाधीनता संग्राम पर अपनी प्रसिद्ध पुस्तक में एक स्थान पर लिखा है, ‘स्वदेश की यंत्रणाओं को देख, एक आध व्यक्ति या किसी एक विशेष वर्ग को तीव्र विषाद महसूस हो रहा था, ऐसी बात नहीं है। हिन्दु-मुसलमान, ब्राह्मण, शूद्र, क्षत्रिय, वैश्य, राजा-रंक, स्त्री-पुरूष, पंडित-मौलवी, सैनिक- पुलिस इन भिन्न-भिन्न धर्म, भिन्न पंथ और कई भिन्न व्यवसायों के लोगों ने मिलकर, स्वदेश का बुरा हाल देखते रहना असंभव हो जाने से, अकल्पनीय थोड़े अवसर में भयानक प्रतिशोध का बवंडर खड़ा करदिया। कितना राष्ट्रव्यापी था वह आन्दोलन, इस एक ही बात से मालूम होगा कि जिस पराकाष्ठा को जुल्म पहुँच गया था, उसी पराकाष्ठा तक अपने प्रतिकार को पहुँचाने का जतन भी किया गया था।’
वीर सावरकर की यह स्थापना 1857 के महासंग्राम का बहुत हद तक वास्तविक बिम्ब है। इससे भी पहले सर्वहारा की सत्ता का दर्शन देने वाले, सभी तरह के उपनिवेशों से जनता के विशाल हिस्सों की मुक्ति के पक्षधर, महान दार्शनिक कार्लमाक्र्स और ऐगेलस ने, इस संग्राम को आजादी की पहली लड़ाई मानते हुए, उसे उपनिवेशवादी जुल्म और दमन के खिलाफ भारतीय जनता के विराट विद्रोह के रूप में रेखांकित किया। यह जानना सुखद हो सकता है कि मई 1857 से आरम्भ होकर 1858 के उत्तरार्द्ध अर्थात सोलह महीनों तक चले इस महाविद्रोह के बारे में माक्र्स और ऐगेल्स ने 28 लेख लिखे। कार्लमाक्र्स ने 1853 के एक लेख में महत्वपूर्ण संकेत किया था कि अंग्रेजों ने हिन्दुस्तान में अपने राज की हिफ़ाजत के लिये हिन्दुस्तानी पलटन खड़ी करके, अनजाने ही हिन्दुस्तानियों के हाथ में स्वतंत्रता का हथियार सौंप दिया है। जब इस सेना ने हिन्दुस्तानी अवाम के मुख़्तलिफ तबकों के साथ मिलकर अंग्रेजी राज के खिलाफ विद्रोह किया तब कार्ल माक्र्स अभिभूत हो उठे। उन्होंने 15 जुलाई 1857 को न्यूयार्क डेली ट्रिब्यून में लिखाः-
......‘‘यह पहली मर्तबा है कि देशी फौजों ने अपने यूरोपियन अफसरों को मार डाला है, मुसलमान और हिन्दू परस्पर घृणा को छोड़कर अपने मालिकों के खिलाफ एक हो गये हैं, हिन्दुओं से प्रारम्भ होने वाली अशांति की परिणति दिल्ली के राजसिंहासन पर एक मुसलमान सम्राट के आरोहण से हुआ है....कि बगा़वत कुछ स्थानों तक सीमित नहीं है और अंतिम यह कि आंग्ल -भारतीय सेना का विद्रोह उस समय हुआ है जबकि अंग्रेजों के प्रभुत्व के खिलाफ महान एशियाई राष्ट्र आम असंतोष प्रकट कर रहे हैं......।’’
इस महा विद्रोह की सबसे बड़ी विशिष्टता थी भारत की दलित दमित जनता के सभी हिस्सों में उमड़ आया अप्रतिम आत्मविश्वास और आजाद होने का असाधारण उत्साह, साधारण सिपाही से लेकर सामान्य ग्रामवासी तक का अपनेको मुक्ति संघर्ष का नायक समझने का भाव, जिसका कई अंग्रेज लेखकों ने मज़ाक़ भी उड़ाया। जिस पर भारतीय इतिहास के विलक्षण अध्येता डा0 राम विलास शर्मा ने बहुत अर्थपूर्ण टिप्पणी की हैः-
‘बात सही है, भारतीय इतिहास में यह पहला अवसर था जब यहाँ का किसान सैनिक वेश में-स्वयं को देश का राजा समझता था। बांदा के पास एक गाँव में शाही झण्डा फहराने के बाद घुड़सवार सिपाहियों ने ऐलान किया ख़ल्क खुदा का-मुल्क बादशाह का, अमल सिपाही का।’’
इस पृष्ठभूमि में वीरांगना ऊदादेवी के संघर्ष और बलिदान को देखें तो उनसे सम्बंधित समूचा घटना़क्रम अधिक अर्थपूर्ण लगता है तथा उसके नये आयाम उद्घाटित होते जान पड़ते हैं। बहुत से लोगों के लिए यह रोमांचक बलिदान इस कारण महत्वपूर्ण हो सकता है कि ऐसा साहसिक कारनामा एक स्त्री ने किया। बहुत से लोग केवल इस कारण गर्व से मस्तक ऊँचा कर सकते हैं कि उस बलिदानी, दृढ़ संकल्पी महिला का सम्बन्ध दलित वर्ग से था। दूसरे लोग मात्र इसी कारण इस महाघटना के अचर्चित रह जाने को बेहतर मान सकते हैं। वे इसके लिये ठोस प्रयास भी करते रह सकते हैं, बल्कि किया भी है। 16 नवम्बर 1857 को लखनऊ के सिकन्दरबाग चैराहे पर घटित इस अपने ढंग के अकेले बलिदान तथा इसकी पृष्ठभूमि में सक्रिय अभिन्न पराक्रम को इस कारण अधिक महत्वपूर्ण माना जा सकता है कि इस घटना मात्र से समूचे प्रथम स्वाधीनता संग्राम को न केवल नयी गरिमा मिलती है बल्कि उसके अपेक्षित विमर्श से वंचित रह गये कुछ पक्षों पर व्यापक विचार के अवसर भी उपलब्ध होते हैं। विशेष रूप से यह विमर्श कि सामंतवाद के वैभवग्रस्त प्रतीकों के अवसानकाल में दमन पर आधारित, बहुत हद तक अमानवीय जाति व्यवस्था की क्रूर उपस्थिति के गहरे विषाद को नजरअंदाज सी करती लखनवी दरबार की विशिष्ट संस्कृति ने, जो अपनी स्त्री उन्मुखता के कारण सबसे ज्यादा बदनाम हुई, स्त्री के लिए कहाँ कितने अवसर निर्मित किये।
-शकील सिद्दीक़ी
सुमन
loksangharsha.blogspot.com
Friday, October 23, 2009
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2 comments:
बहुत gyanvardhak lekh है
जहाँ तक मुझे याद है lucknow में botonical garden vale chaurahe pr uda devi की prtima sthapit है
aabhar
आपके लेख से आपने ऊदा देवी के राष्ट्रभक्ती को एक नई चमक दी है ।
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