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Friday, May 22, 2009

हम कैसे पत्रकार बनते जा रहे हैं?

पत्रकारिता के पेशे मे हम और हमारे साथी किस दौर से गुज़र रहे हैं उसका अन्दाज़ा लगाना अब ज़्यादा मुश्किल नही है। टेलीविज़न हो या अखबार सभी जगह पत्रकारों को इस्तेमाल किया जा रहा है या फिर वो इस्तेमाल हो रहे हैं। लेकिन ये सारी कवायद पत्रकारिता के मकसद के लिये नही बल्कि सनसनीखेज़ ख़बरों के लिये है। इस दौरान कुछ इस तरह के काम या ख़बरें भी पत्रकारों को करनी पड़ रही हैं जो वो नही करना चाहते। इसे परिवार और अपना पेट भरने की मजबूरी कहा जा सकता है। भले ही हम खुद को पत्रकार कहते हों लेकिन असलियत मे हम क्या हो गये हैं ये एक लम्बी बहस का मुद्दा है बहरहाल एक न्यूज़ चैनल मे काम करने वाले एक पत्रकार साथी ने मेल भेजकर अपना दर्द कुछ शब्दों की शक्ल मे बयां करने की कोशिश की है जिसके साथ नाम गुप्त रखे जाने की गुज़ारिश भी है। इस दर्द को आपके लिये यहां पोस्ट कर रहा हूँ क्योंकि ये सिर्फ एक की नही बल्कि कईयों की कहानी है। :- "मैं भी एक पत्रकार हूं'', यह अहसास दिल में एक जज्बा पैदा किये रहता था। कुछ दिन पहले एक रेड लाइट एरिया की खबर कवर करने गया तो खुद में और वहां खड़ी मिली पथराई-सी आंखों वाली कांता में कुछ भी फर्क नहीं पाया. अब तो कहीं खुद को पत्रकार बताते हुए परिचय देता हूं तो कांता की वही तस्वीर आंखों के सामने आ जाती है जिसमें उसकी आंखों से दर्द तो झांकता है मगर अपने धंधे की मजबूरी चेहरे पर मुस्कराहट बनाये रखने को मजबूर करती रहती है. हम भी तो कुछ ऐसा ही कर रहे हैं. हमे पता है की हमारी खबरों को संसथान अपने व्यावसायिक हितों के हिसाब से चलाता/छापता है, फिर भी खबरों के मैनेजर हमारे "सर" हैं। "हमें माफिया, चरित्रहीन और सड़क छाप से करोड़पति बने नेताओं की खबर उन्हें महिमा मंडित करके बनानी पड़ रही है क्योंकि ऐसा नहीं करेंगे तो नौकरी कौन देगा ? माफिया से पैसे लेकर और चार सौ बीसी करने वाले, धोखाधड़ी से अकूत पैसा पैदा करने वाले धंधेबाज लोग पत्रकारिता समूहों के मालिक बन बैठे हैं। वो हमारे "सर" हैं क्योंकि वो हमारा पेट पाल रहे हैं, भले ही आधी रोटी खुद ही रख लेते हों। न्यूज डेस्कों पर बैठी वो कमसिन कन्याएं भी हमारी बॉस हैं जिन्हें ये नहीं पता कि एसपी थाने में बैठता है या फिर वो कोई बड़ा अफसर होता है ? तनख्वाह पांच महीने न मिले तो कोई बात नहीं। तनख्वाह मांगने का हमें अधिकार नहीं है। तनख्वाह मालिक काट कर आधी कर दे तो भी हमें पूछने का अधिकार नहीं "क्योंकि हम कांता के दुःख-दर्द की बात तो उठा सकते हैं मगर अपनी नहीं"। "उस मजदूर की आवाज बुलंद कर सकते हैं जिसकी मजदूरी ग्राम प्रधान फर्जी मास्टर रोल बनाकर हड़प कर जाता है" मगर अपनी नहीं जिसके हजारों रूपये मालिक हड़प कर जाता है। "कांता को तो अपनी मजदूरी का पैसा रोज मिल ही जाता है, भले ही पुलिस, दलाल और कोठे की मालकिन अपना हिस्सा उससे रोज हड़प लते हों मगर मुझे तो ये भी पता नहीं होता की अपनी मजदूरी कब मिलेगी? अपना ईमान धर्म और जज्बा बेचने की मजदूरी? फिर मै अपनी तुलना कांता से क्यों करूँ? शायद और कोई और होगी. कांता के जैसी ....बस इसी तलाश में हूं। (मै एक न्यूज चैनल में वरिष्ट पत्रकार हूं। कृपया मेरी पहचान गुप्त रखी जाये।)

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